Saturday, 9 December 2017

पांडवांचा अज्ञातवास




पांडवांनी बारा  वर्षे  वनामध्ये  राहून  तेराव्या  वर्षी विराट  नगरामध्ये  अज्ञातवास    पूर्ण  केला. विराटनगरीमध्ये  पांडवांनी  प्रवेश  केल्यानंतर  युधिष्ठिराने  दुर्गादेवीची  स्तुती  केली. युधिष्ठिराच्या  अंतःकरणपूर्वक  स्तुतीने  दुर्गादेवीने  दर्शन  दिले.    वर  दिला. युधिष्ठिरा,  लवकरच  तू  महासंग्रामामध्ये  कौरवसेनेचा  पराजय  करून  संपूर्ण पृथ्वीचे  राज्य  प्राप्त  करशील.  तूम्हा  सर्वांस  प्रसन्नता  प्राप्त  होईल.  माझ्या  कृपेने  तुम्हास  सुख    आरोग्य  प्राप्त  होईल.  माझ्या  कृपेने  तुम्हास  कौरव  तसेच  विराटनगरीतील  प्रजाजन,  राजा  कोणीही  ओळखू  शकणार  नाही.  असा  आशीर्वाद  देऊन  देवी  गुप्त  झाली.  युधिष्ठिर विराटराजा  बरोबर  कंक  नावाच्या  ब्राह्मण  वेशामध्ये  गुत्परूपाने  राहुन त्याने विराटराजाचे  मनोरंजन  केले. भीमाने  बल्लव  नाव  धारण  करून  राजाच्या  पाकशाळेमध्ये  काम  केले. रूचकर  अन्न  शिजवून  राजास  प्रसन्न  केले. अर्जुनाने बृहन्नला  या  नावाने  मुद्दामूनच  नपुंसक  भाव  धारण  केला.  राजाच्या  स्त्रियांचे  गीत  गायन    नृत्य  शिकवून  मनोरंजन  केले. द्रौपदीने सैरंध्री  हे  नाव  धारण  करून  महाराणी  सुदेष्णेची  दासी  म्हणून  तिची  सेवा केली. नकुलाने ग्रंथिक  हे  नाव  धारण  करून  राज्याच्या  घोड्यांची  देखभाल  केली.  घोड्यांचे  रक्षण  करून  त्याने राजास  प्रसन्न  केले.  सहदेवाने  तन्तिपाल  हे  नाव धारण करून,  विराट  राज्याच्या  गाईंची  सेवा  केली.  गाईंची  उत्तम  रितीने  सेवा,  रक्षण  करून  राजास  प्रसन्न  केले.  अशा रितिने सर्वजणांनी  विराट  नगरी  मध्ये  अज्ञातमासामध्ये  असल्याचे  सतत  भान  ठेवले.  कोणीही  ओळखू  नये  याची  दक्षता  घेतली. 
या  अज्ञातवासाच्या  काळामध्ये  महाराणी  द्रौपदीच्या  रक्षणाची  नेहमी गुप्तरूपाने  काळजी घेतली. तेथे  अपमान  किंवा  सन्मान  झाला  तरी  एक  वर्ष  गुप्तरूपाने  राहिले.  राजाने  विचारल्या  शिवाय  राजास  कधीही  सल्ला  दिला नाही.  मौनव्रताने  राजाची  सेवा  केली.  आवश्यकतेनुसार  राजाची  प्रशंसा  केली.  राजस्त्रियांकडे कधीही नजर टाकली नाही,  त्यांच्याशी  बोलले नाहीत.  कोणत्या  ही  कार्याची  राजाकडून  आज्ञा  घेतल्या  शिवाय  ते  कार्य  करू  नाही.  राजाची  आज्ञा  होत  नाही  तोपर्यंत  राजासमोर  ऊभे  राहीले.  राजाच्या  आज्ञेचे  पालन  केले.  बेफिकीर,  गर्व,  क्रोध  यांचा  त्याग  केला.  निर्णयाच्या  प्रसंगी  हितकारी    प्रिय,  मधुर  भाषा  वापरली.  प्रत्येक  वेळी  राजाच्या  अनुकूलतेचेच(आवडणारे)  वर्तन  केले.  राजाच्या  समोर  शांत  बसले.  विचारल्यावरच  उत्तर  दिले.  राजाने  भेट  दिलेल्या  वस्तुंचा  प्रेमाने  आदराने  उपयोग केला.  
युधिष्ठिर  विराटराजा  बरोबर  राजाच्या  मनोरंजनासाठी  अधून  मधून  द्युत  खेळत  असे.  तो  द्युतक्रिडेमध्ये  जिंकल्यावर  मिळालेले  धन  आपल्या  भावंडास  गुप्तपणे  वाटून  देत  असे.  ते  विराटराजाला  सुध्दा  समजत  नसे.  तसेच  भीम,  अर्जुन,  नकुल    सहदेव  सुध्दा  मिळविलेले  धन  सर्व  पांडवांमध्ये  वाटून  घेत  असत.  ते  कोणालाही  समजत  नव्हते.  अशा  रितीने  पांडवांचा  अज्ञातवास  विराट  नगरीमध्ये  गुप्तपणे  चालू  होता.  चौथ्या  महिन्यामध्ये  विराटनगरीमध्ये  ब्रह्मोत्सव  सुरू  झाला.  तेव्हा  नगरी  सजून  गेली.  नगरीला  जत्रेचे  रूप  आले.  काही  ठिकाणी  कुस्त्या  खेळण्यासाठी  आखाडे  होते.  अनेक  मोठमोठे  मल्ल,  पहेलवान  कुस्ती  खेळण्यासाठी  आले  होते.  विराट  नगरीतील  पहेलवान  कुस्ती  परदेशातून  आलेला  जीमूत  पहेलवानाने  विराट  नगरीतील  पहेलवानांना  तसेच  इतर  सर्व  पहेलवानांना  कुस्तीमध्ये  हरविले.  तो  मुद्दामून  इतर  मल्लांना  आव्हान  देत  होता  परंतू  सर्वजण  त्याच्या  पूढे  जाण्यास  घाबरत  होते.  तेव्हा  विराटराजाने  बल्लवास(भीमास)  जीमूत  पहेलवानाशी  कुस्ती  खेळण्याचा  आग्रह  केला.  भीम  आपण  ओळखले  जाऊ  या  भितीने  जात  नव्हता.  परंतू  विराटराजाच्या  आग्रहामुळे  बल्लवाने(भीमाने)  जीमूत  पहेलवानाशी  कुस्ती  खळण्याचे  आव्हान  स्विकारले.  दोघाची  कुस्ती  खूप  वेळ  झाली.  दोघेही  बलवान  होते.  सरते  शेवटी  बल्लवाने(भीमाने)  जीमूत  पहेलवानास  दोन्ही  हाताने  उचलून  हवेत  फिरवून  चितपट  केले.  विराटराजास    विराट  नगरीतील  सर्वांना  आनंद  झाला.  विराटराजाने  बल्लवाचा  सत्कार  केला.  देवदेवतांच्या  कृपेने  भीम  कोणासही  ओळखता  आला  नाही.  
अशा  रितीने  पांडवांचा  एक  वर्षाचा  अज्ञातवास  जवळ  जवळ  संपत  आला.  त्या  कालावधीमध्ये  एकदा  राजाचा  सेनापती    महाराणीचा  भाऊ  किचकाची  नजर  सैरंध्रीवर  पडली.  तिचे  सौंदर्य  पाहून  तो  कामातूर  झाला.  आपल्या  बहिणीकडे  सैरंध्रीची  चौकशी  केली. 
सुदेष्णा--हे  किचका  तू  वाईट  नजरेने  सैरंध्रीकडे  पाहू  नकोस.  कारण  तीचे  पाच  पती  (गंधर्व)  आकाशातून  तीचे  संरक्षण  करीत  असतात.  जो  मनुष्य  तिच्याकडे  वाईट  नजरेने  पहाण्याचा  प्रयत्न  करतो,  तो  त्याच  रात्री  यमलोकी  जातो.  तरी  सुध्दा  किचकाने  सैरंध्रीची  मनधरणी  केली.  किचक--हे  सुंदरी  तूझे  सौंदर्य  पाहून  मी  कामातूर  झालो  आहे. तू  दासीच्या  योग्यतेची  नाहीस.  मी  तूला  माझी  राणी  बनवेन.  सैरंध्री--हे  सूतपूत्रा,  माझ्या  मोहामध्ये  पडू  नकोस  प्राण  गमाऊन  बसशील.  माझे  पाच  गंधर्व  पती  आकाशातून  सदैव  संरक्षण  करीत  असतात.  मला  छळण्याचा  प्रयत्न  केलास  तर  ते  तूला  पाताळातून,  समुद्रातून,  आकाशातून  शोधून   ठार  मारतील.  तू  अजून  मला  ओळखलेले  नाहीस.  मी  माझे  खरे  स्वरूप  लपवून  ठेवलेले  आहे.  तरी  सुध्दा  किचकाने  आपल्या  बहिणीस  भाग  पाडले  कि  सैरंध्रीस  किचकाकडे  पाठवावे.  तेव्हा  सैरंध्रीने  दोन  तास  सूर्यदेवाची  उपासना  केली.  म्हणून  सूर्यदेवाने  सैरंध्रीच्या  संरक्षणासाठी  एक  अदृश्यरूपाने  राक्षस  नियुक्त  केला.  किचकाने  पुन्हा  सैरंध्रीची  मनधरणी  सुरू  केली.  सैरंध्री--हे  सूतपूत्रा,  जसे  शूद्र  ब्राह्मण  स्त्रीला  स्पर्श  करू  शकत  नाही  तसेच  तू  मला  स्पर्श  करू  शकत  नाही.  तू  दूर्गतीमध्ये  पडणार  आहेस.  इतके  ऐकून  सुध्दा  किचकाने  सैरंध्रीचा  डावा  हात  पकडला.  सैरंध्रीने  जोराचा  झटका  देऊन  ती  राजभवनामध्ये  देली.  जेथे  कंक    बल्लव  दोघे  होते.  तेव्हा  सूर्यदेवाने  नियुक्त  केलेल्या  राक्षसाने  किचकाला  पकडून  दूरवर  एका  झाडाखाली  फेकून  दिले.  किचकाला  चक्कर  आली.  भीम  तात्काळ  किचकास  मारावयास  प्रवृत्त  झाला,  परंतू  युधिष्ठिराने  त्यास  ओळखण्याच्या  भितीमुळे  अडविले.  सैरंध्री--महाराज,  जो  राजा  प्रजाजनांचे  रक्षण  करीत  नाही,  आपले  कर्तव्य  करीत  नाही,  तो  नरकामध्ये  जातो.  यज्ञ,  दान,  गुरूसेवा  याही  पेक्षा  कर्तव्यनिष्ठा  अत्यंत  महत्वाची  आहे.  तरी  सुध्दा  विराटराजाने  अपराधी  किचकास  शिक्षा  केली  नाही.  विराटराजा--हे  सैरंध्री,  तूम्हा  दोघांचे  भांडण  कशाने  झाले  आहे  हे  दोघांकडून  मी  जाणल्या  शिवाय  कसा  न्याय  करू  शकतो.  त्यानंतर  सभसदांनी  किचकाची  निंदा  केली.    सैरंध्रीचे  सांत्वन  केले.  कंक (युधिष्ठिर)--हे  सैरंध्री,  धर्मशास्त्रानुसार  कुलवती  स्त्रीचा  धर्म  असा  आहे.  स्त्रीने  कोणताही  यज्ञ  करायचा  नाही.  श्राध्द  करायचे  नाही.  उपवास  करायचा  नाही.  स्त्रीने  केवळ  पतिची  सेवा  केल्यानेच  तीला  स्वर्गप्राप्ती  होते.  कुमारवस्थेमध्ये  पिता,  तारूण्यामध्ये  पति    वृध्दावस्थेमध्ये  पुत्र  स्त्रीचे  रक्षण  करीत  असतो.  स्त्रीने  कधीही  स्वतंत्र  राहू  नये.  पतिव्रता  स्त्री  अनेक  प्रकारची  संकटे  सहन  करून,  अपमानीत  होऊन  सुध्दा  पति  वर  क्रोध  करीत  नाही.  अशी  अनन्यभावाने  पतिची  सेवा  करणारी  पतिव्रता  पुण्यलोक  प्राप्त  करते.  क्षमा  करणे  हा  उत्तम  धर्म  आहे.  क्षमा  सत्य  आहे.  क्षमा  दान  आहे.  क्षमा  तप  आहे.  सैरंध्री,  जा.  महाराणीच्या  महालामध्ये  जा.  गंधर्व  तूझी  इच्छा  पूर्ण  करेल.  क्षत्रिय  पिता    ब्राह्मण  माता  यांच्या  पुत्रास  सूत  म्हणतात.  ही  जात  क्षत्रियां  पेक्षा  हिन    वैश्यांपेक्षा  श्रेष्ठ  आहे.  किचकाचा  पिता  केकय  क्षत्रिय  असून  माता  मालवी  ब्राह्मण  होती.  किचकाचा  पराक्रम  पाहून  विराटराजाने  त्यास  सेनापती  केले  होते.  क्रोधाने  तपस्या  नष्ट  होते.  म्हणून  द्रौपदीने  किचकास  शाप  दिला  नाही.  क्षमा  करणे  हा  उत्तम  धर्म  आहे.  क्षमा  सत्य  आहे.  क्षमा  दान  आहे.  क्षमा  तप  आहे.  क्षमा  यश  आहे.  क्षमा  शील  आहे.  क्षमा  कीर्ति  आहे.  क्षमा  तत्त्व  आहे.  क्षमा  पुण्य  आहे.  क्षमा  तीर्थ  आहे.  म्हणून  द्रौपदीने  किचकास  क्षमा  केली.  त्या  रात्री  द्रौपदी  किचकाच्या  वधाचाच  विचार  करीत  होती.  एकदा  तीने  भीमाकडे  जाऊन  आपले  दुःख    शोक  प्रकट  केला.  तेव्हा  भीमाने  किचकाच्या  वधाची  एक  योजना  आखली.  त्या  नुसार  द्रौपदीने  एकट्या  किचकास  भीमाकडे  रात्री  घनघोर  अंधारामध्ये  नृत्यशाळेमध्ये  पाठविले.  भीम  तेथे  आधीच  जाऊन  किचकाची  वाट  पहात  होता.  अंधारामध्ये  भीमाने  किचकास  ठार  मारले.    तो  पाकशाळेमध्ये  निघून  गेला.  सकाळ  झाल्यावर  द्रौपदीने  रक्षकास  सांगितले  कि,  पहा  पापी  किचकास  माझ्या  गंधर्व  पतिने  ठार  मारले  आहे.  सर्वांनी  खरोखर  पाहिले  कि,  हे  काम  कोणी  मनुष्य  करू  शकत  नाही.  ते  गंधर्वानेच  केले  आहे.  किचकाच्या  सरदारांनी  हा  किचकाचा  वध  सैरंध्रीमुळेच  झाला  म्हणून  किचकाच्या  दहना  बरोबरच  सैरंध्रीला  ही  जाळून  टाकण्याचा  विचार  केला.  तेव्हा  भीमाने  त्या  सर्वांचा  संहार  केला.  सैरंध्रीला  मुक्त  केले.   प्रजाजनांनी  सर्वांनी  हा  पराक्रम  गंधर्वांनीच  केला  असा  समज  केला.  विराटराजा  गंधर्वांना  घाबरून  होता.  किचकास  गंधर्वांने  मारले  ही  बातमी  सर्वत्र  पोहोचली.  हस्तिनापूरामध्ये  ही  बातमी  समजल्यावर  शत्रुच्या  पराभवाची  बातमी  ने  दुर्योधन  सर्वजण  आनंदी  झाली.  विराटराजा  दुर्योधनाचा  शत्रु  होता.  
अशा  रितीने  पांडवांचा  एक  वर्षाचा  अज्ञातवास  जवळ  जवळ  संपत  आला.  त्या  कालावधीमध्ये  दुर्योधनाने  असंख  गुप्तचर  दाही  दिशांना  पाठविले  होते  परंतू  कोणा  कडून  ही  पांडवांचा  शोध  लागला  नाही.  दुर्योधनाने  विचार  केला  कि  कोणालाही  पांडवांचा  शोध  लागला  नाही  याचा  अर्थ  पांडवांचा  मृत्यु  झाला  असावा.  
तेव्हा  द्रोणाचार्य--पांडव  शूरवीर,  विद्वान,  बुध्दीमान,  जितोंद्रिय,  धर्मज्ञ,  असून  युधिष्ठिराच्या  आज्ञेचे  पालन  करणारे  आहेत.  ते  महापुरूष  नष्ट  होत  नसतात.  ते  ओळखता  येणार  नाहीत.  भीष्माचार्य--पांडव  सदैव  भगवान  श्रीकृष्णाच्या  कृपेने  सुरक्षित  असून  ते  प्रतिज्ञेचे  पालन  करीत  आहेत.  तेव्हा  कृपाचार्य--महाराज,  पांडवांचा  अज्ञातवास  संपलेला  आहे.  ते  महाबली,  महापराक्रमी  पांडव  आता  प्रकट  होतील.  आपण  आपली  सेना  सज्ज  ठेवली  पाहिजे.  दुर्योधन--मंत्रीगण  हो,  माझ्या  अंदाजा  प्रमाणे  महापराक्रमी  पांडव  विराट  नगरीमध्ये  असावेत.  म्हणून  विराट  राजावर  आक्रमण  करून  गोधनावर  आपला  अधिकार  स्थापन  करावा.  कर्णाने    कृपाचार्यांनी  त्यास  दुजोरा  दिला.  सुशर्मा  राजाने  सुध्दा  विराटराजाच्या  जून्या  वैरा  निमित्त  सूडभावनेने  कौरवांस  सहकार्य  केले.  सर्वांनी  मिळून  विराट  राजावर  आक्रमण  करून  गोधनावर  आपला  अधिकार  स्थापन  केला.  आता  पांडवांचा  अज्ञातवास  पूर्ण  झालेला  आहे.  सुशर्माच्या  आक्रमणामुळे  विराट  नगरीमध्ये  खूप  गोंधळ  झाला.  विराटराजाने  अभेद्यकल्प  नावाचे  कवच  धारण  केले(ज्यामुळे  कोणतेही  अस्त्र  शरीराची  हानी  करू  शकत  नाही.)  सेनेसहित  सुशर्माच्या  सेनेचा  प्रतिकार  करू  लागले.  विराटराजाने  पांडवांच्या  विनंतिनुसार  त्यांनाही  युध्द  करण्याची  परवानगी  दिली.  इतके  दिवस  लपून  राहिलेले  पांडव  युध्दवेषामध्ये  युध्द  करू  लागले.  धनघोर  युध्द  सुरू  झाले.  सुशर्माने  विराटराजास  बंदी  केले.  तेव्हा  भीमाने  सुशर्माशी  युध्द  केले  त्यास  रथावरून  जमिनीवर  आणले.  भीमाने  सुशर्मास  बंदी  केले.   सुशर्मा  विराटराजाचा  दास  झाला.  विराटराजा  भीमावर    युधिष्ठिरावर  खूष  झाले.  त्यांच्यामुळे  विजय  प्राप्त  झाला.  विराटराजा--हे  कंक,  तूझ्या  मुळे  माझा  विजय  झालेला  आहे.  मी  तूझा  राज्याभिषेक  करतो.  माझे  सर्व  राज्य  आता  तूझे  झाले.  युधिष्ठिर--महाराज,  आपण  शत्रुच्या  तावडीतून  निसटून  परत  आला  आहेत  हेच  माझ्या  दृष्टीने  प्रसन्नतापूर्वक  आहे.  तूम्ही  आता  निर्भयतेने  राज्य  करा.  विजयोत्सव  साजरा  करा.  वैशंपायन--जनमेजया,  भीष्माचार्यांनी  पांडवांचा  वनवास    अज्ञातवासाचा  तेरावर्षाचा  कालावधी  पूर्ण  केलेला  आहे  असे  गणिताने  सिध्द  केले.  भीष्माचार्यं--तेरा  वर्षे  पूर्ण  झाल्या  नंतर  पाच  महिने    बारा  दिवस  झालेले  आहे.(चार  आधिकमासाचे  धरून  सुध्दा)  पांडवांनी  जी  प्रतिज्ञा  केलेली  आहे,  त्याचे  त्यांनी  पालन  केलेले  आहे.  हे  जाणूनच  अर्जुन  तेथे  आलेला  आहे.  ज्यांचा  नेता  युधिष्ठिर  आहे  ते  धर्माच्या  विषयी  गल्लत  करणार  नाही.   त्यानंतर  दुर्योधनाने  विराटनगरीवर  आक्रमण  केले.  दुर्योधना  बरोबर  भीष्माचार्य,  द्रोणाचार्य,  कृपाचार्य,  कर्ण,  अश्वत्थामा,  शकुनि  इत्यादी  महारथी  होते.  दुर्योधनाने  विराटराजाची  साठहजार  गाईवर  आधिकार  स्थापन  केला.  विराटराजाने  आपल्या  पुत्रास  (नाव--उत्तर)  कौरवांचा  सामना  करण्यास  पाठविले.  द्रौपदीने  अर्जुनास  उत्तराचे  सारथ्य  करण्याचा  आग्रह  केला.  पांडवांचा  अज्ञातवास  संपलेला  होता  म्हणून  अर्जुन  तयार  झाला.  अर्जुनाने  कवच    दिव्यास्त्रे  धारण  केली    कौरवाचा  सामना  करण्यासाठी  सारथ्य  करू  लागला.  कौरवांची  सेना  सागराप्रमाणे  विशाल  होती.  ती  प्रचंड  सेना  पाहून  उत्तर  राजकुमार  घाबरला    माझ्या  मध्ये  त्या  प्रचंड  सेनेचा  मुकाबला  करण्याचे  साहस  नाही  असे  म्हणाला.  मी  परत  जातो.  अर्जुन--हे  राजकुमार,  क्षत्रियाने  युध्दामध्ये  घाबरून  जाऊ  नये  शत्रुचा  सामना  करावा.  मृत्यु  आला  तरी  बेहत्तर.  परंतू  युध्द  सोडून  पळून  जाऊ  नये.  शमीवृक्षावरची  आपली  शस्त्रास्त्रे  घेऊन  अर्जुन--हे  राजकुमार,  ही  पांडवांची  दिव्य  शस्त्रास्त्रे  आहेत.  मी  स्वतः  अर्जुन  आहे.  राजभवनातील  कंक  माझे  जेष्ठ  बंधु  महाराज  युधिष्ठिर  आहेत.  बल्लव  भीम  तर  नकुल  ग्रंधिक    सहदेव  हा  तन्तिपाल  असून  सैरंद्री  ही  महाराणी  द्रौपदी  आहे.  राजकुमार  उत्तर--हे  बृहन्नला  मला  अर्जुनाची  दहा  नावे  सांग  तरच  मी  तूला  अर्जुन  मानेन.  अर्जुन--हे  राजकुमार,  अर्जुन,  फाल्गुन,  जिष्णु,  किरीटी,  श्वेतवाहन,  बीभत्सु,  विजय,  कृष्ण,  सव्यसाची    धनंजय.  अर्जुन--मी  सर्व  पृथ्वीवर  दिग्विजय  करून  अमाप  धन  प्राप्त  केले  म्हणून  मला  .धनंजय  म्हणतात.  मी  प्रत्येक  वेळी  युध्द  करून  विजय  प्राप्त  करतो,  म्हणून  मला  .विजय  म्हणतात.  माझ्या  रथाला  पांढरे  शुभ्र  घोडे  आहेत,  म्हणून  मला  .श्वेतवाहन  म्हणतात.  माझा  जन्म  उत्तर  फाल्गुनी  नक्षत्रावर  झाला,  म्हणून  मला  .फाल्गुन  म्हणतात.  माझा  युध्दामध्ये  महापराक्रम  पाहून  इंद्राने  माझ्या  डोक्यावर  मुकुट  ठेवला,  म्हणून  मला  .किरीटी   म्हणतात.  मी  युध्द  करताना  कोणतेही  बीभत्स(अघोरी)  कार्य  करीत  नाही,  म्हणून  मला  .बीभत्सु  म्हणतात.  माझे  दोन्ही  हात  गांडीव  धनुष्याची  दोरी  ओढण्यास  समर्थ  आहेत,  म्हणून  मला  .सव्यसाची  म्हणतात.  (अर्जुन  या  शब्दाचे  तीन  अर्थ--दिप्ती,  समता,  शुध्दता)  समस्त  पृथ्वीवर  समुद्रापर्यंत  माझ्या  सारखी  दिप्ती  दुर्लभ  आहे,  म्हणून  मला  .अर्जुन  म्हणतात.  मला  पराजित  करणे,  अत्यंत  दुर्लभ  आहे,  म्हणून  मला  .जिष्णु  म्हणतात.  (कृष्ण  या  शब्दाचा  अर्थ  श्यामवर्ण    आकर्षून  घेणारा)  मी  लहानपणी  श्यामवर्णाचा    चित्तआकर्षून  घेणारा  होतो,  म्हणून  मला  १०.कृष्ण  म्हणतात.  तेव्हा  उत्तरास  खात्री  पटली.  त्याने  अर्जुनाच्या  चरणी  प्रणाम  केला.  उत्तर--हे  कुंतीनंदन,  माझे  हे  भाग्य,  मला  आपले  दर्शन  झाले.  आपले  स्वागत  आहे.  मी  आपणास  अज्ञानाने  जे  बोललो,  त्यास  माफ  करावे.  मी  आपला  दास  आहे. हे  कुंतीनंदन,  तू  श्रेष्ठ  धनुर्धर  अर्जुन  असून  तूला  नपुंसकभाव  का  आहे.  अर्जुन--हे  राजकुमार,  मी दिव्यास्त्रे  प्राप्त  करण्यासाठी  स्वर्गामध्ये  गेलो  असताना  उर्वशीच्या  शापामुळे  मला  हा  एक  वर्षाचा  नपुंसकभाव  प्राप्त  झालेला  आहे.  तो  अज्ञातवासामध्ये  संपेल  असा  वर  मला  इंद्राने  दिलेला  आहे.  आता  ते  अज्ञातवासाचे  एक  वर्ष  संपलेले  आहे.  माझा  नपुंसकभाव  सुध्दा  नष्ट  झालेला  आहे.  अर्जुनाने  हातातल्या  बांगड्या  काढल्या.  स्त्रीवेष  काढला    अर्जुनाने  योध्दाचा  वेष    कवच  परिधान  केले.  राजकुमार  उत्तरने  श्रेष्ठ  धनुर्धर  अर्जुनाच्या  दिव्य  रथाचे  सारथ्य  केले.  अर्जुनाने  आपला  शंखध्वनी  केला  तेव्हा  रणभूमीमध्ये  हाहाकार  झाला.  अर्जुनाने  कौरवांचा  प्रतिकार  केला.  अर्जुनाने  महापराक्रम  केला.  अर्जुनाने  भीष्माचार्य,  द्रोणाचार्य,  कृपाचार्य,  कर्ण,  अश्वत्थामा,  शकुनि  इत्यादी  महारथींचा  पराभव  केला.  त्यांच्या  रथाचा  विध्वंस  केला.  त्यानंतर  सर्व  महारथी  भीष्माचार्य,  द्रोणाचार्य,  कृपाचार्य,  कर्ण,  अश्वत्थामा,  शकुनि,  दुर्योधन  इत्यादी  हस्तिनापूरी  परत  गेले.  अर्जुनाचा  महापराक्रम  पहाण्यासाठी  आकाशामध्ये  देवतागण  आले  होते.  आपले  गोधन  ताब्यात  घेऊन  अर्जुन    राजकुमार  उत्तर  विराटनगरीमध्ये  आले.  राजकुमार  राजाकडे  गेला.  त्याचा  विजय  ऐकून  राजा  त्याच्यावर  प्रसन्न  झाला.  राजकुमार  उत्तर--महाराज,  हा  सर्व  पराक्रम  माझा  नाही.  मी  तर  सागरासमान  कौरवसेना  पाहून  घाबरून  गेलो  होतो.  एका  देवपुत्राने  हा  महाभयंकर  पराक्रम  केलेला  आहे.  वैशंपायन--जनमेजया,  दुसया  दिवशी  सर्व  पांडव  स्नान  करून  राजवस्त्रे  परिधान  करून  राजमहालामध्ये  आले.  युधिष्ठिर  राजसिंहासनावर  बसले.  युधिष्ठिरा  समवेत  महाराणी  द्रौपदी  बसली.  त्यांच्या  सेवेसाठी  चार  बंधु  (पांडव)  होते.  पांडवांच्या  तेजाने  सभाभवन  उजळून  गेले  होते.  काही  वेळानंतर  विराटराजा  तेथे  आला  तो  कंकास  अभद्र  बोलू  लागला,  कारण  कंक  विराटाच्या  सिंहासनावर  बसलेला  होता.  अर्जुन--राजन,  हे  तर  युधिष्ठिर  महाराज  इंद्राच्या  सिंहासनावर  बसण्याच्या  योग्यतेचे  आहेत.  ते  मूर्तिमान  धर्मराज  आहेत.  ते  राजर्षी  असून  सर्वत्र  विख्यात  आहेत.  ते  इंद्रियसंयमी  असून  दृढ  प्रतिज्ञ,  ब्राह्मणभक्त,  कृपाळू,  सत्यवक्ता  आहेत.  यांच्या  सदगुणांची  गणना  करता  येत  नाही.  हा  बल्लव  भीम,  ग्रंधिक  हा  नकुल    तन्तिपाल  हा  सहदेव  असून  सैरंद्री  ही  महाराणी  द्रौपदी  आहे.  मी  कुंतीनंदन  अर्जुन  आहे.  तेव्हा  राजकुमार  उत्तरने  अर्जुनाचा  महाभयंकर  पराक्रम  वर्णन  केला.  तो  श्रेष्ठ  धनुर्धर  देवपुत्र  अर्जुनच  होता.  तेव्हा  विराटराजास  आश्चर्य  वाटले.  वर्षभर  महारथी  पांडव  आपल्या  समवेत  असून  आपण  त्यांना  ओळखू  शकलो  नाही.  विराटराजा--हे  धर्मराज,  हे  माझे  भाग्य  आपण  आमच्या  राज्यामध्ये  अज्ञातवास  पूर्ण  केला.  माझे  सर्व  राज्य  आपणास  समर्पित  आहे.  माझी  कन्या  उत्तरा  मी  अर्जुनास  पत्नीरूपाने  देत  आहे  तीचा  स्विकार  करावा.  युधिष्ठिराच्या  संमतीने  अर्जुन--मी  आपल्या  कन्येस  पुत्रवधुच्या  रूपाने  स्विकार  करतो.  सुभद्रानंदन  अभिमन्युचा  उत्तरेबरोबर  विधीवत  विवाह  बलराम-श्रीकृष्णाच्या  साक्षीने  संपन्न  झाला.
हा वृतांत महाभारताच्या विराटपर्वामध्ये सांगितलेला आहे.  या  विराटपर्वाचे  श्रवण  केल्याने  मनुष्याच्या  आधी(मानसिक  चिंता)    व्याधि(शारीरिक  दुःख)  नष्ट  होतात.  मनुष्याचे  भयंकर  संकट  नष्ट  होते.  पुण्य,  आरोग्य  प्राप्त  होते.  मनुष्य  एकटा  सर्व  संकटांचा  सामना  करण्यास  सिध्द  होतो.  प्रियजनांचा  वियोग  होत  नाही.  देवतांच्या  प्रसन्नतेसाठी वस्त्र,  सुवर्ण,  धान्य    गाई  ब्राह्मणांस  दान  कराव्यात.  वाचकांचा  सन्मान  करून  त्यास  यथाशक्ती  दानधर्म  करावा.  ब्राह्मणास  सुग्रास  भोजन  द्यावे.  यामुळे  श्रोत्यास  उत्तम  फळाची  प्राप्ती  होते.      
  

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