Wednesday, 6 December 2017

श्रीरामाचे वैराग्य (भाग १)




एकनाथमहाराजांनी भावार्थ रामायण या ग्रंथामध्ये श्रीराम  चरित्र मराठीमध्ये ओवीबध्द केलेले आहे. नवव्या अध्यायामध्ये एकनाथमहाराजांनी श्रीरामाने मनुष्य  शरीराच्या  दु:खाचे केलेले वर्णन अतिशय प्रबोधनकारी आहे.
देह  तव  अत्यंत  अशक्त ।  देहकर्म  तेही  नाशवंत ।  कर्मफळ  ते  क्षयभूत ।  सुख  कोण  येथ  देहसंगे ।५।
देहदोषा  विषयी  श्रीराम  विश्वामित्रऋषींना  प्रश्न  विचारतात-मनुष्य  शरीर  साधारणतः  अशक्त  आहे.  ते  निराधार  आहे.  त्याचा  आधार  हा  आत्मा  आहे.  आत्म्याने  साथ  दिली  तरच  ते  कार्य  करू  शकते.  त्या  शरीराने  जे  काही  कर्म  केले  जाते  ते  सर्व  नाशिवंत  आहे.  इथे  समझून  घेतले  पाहिजे.  शरीर  नाशिवंत.  ज्या  सृष्टीमध्ये  कर्म  करायचे  ती  सृष्टी  नाशिवंत.  म्हणून  शरीराने  केलेले  कर्म  नाशिवंत.  कर्मच  नाशिवंत  असल्यामुळे  कर्मफळ  सुध्दा  नाशिवंत.  म्हणून  शरीराला  भूतलावर  कोणतेच  सुख  नाही.  उदा.  शरीराने  घर  बांधले.  ते  अनेकजणांच्या  सहकार्याने.  घर  नाशिवंत.  घरामध्ये  आई, वडिल, बायको, मुले, मुली,  अनेक  माणसे,  प्रत्येकाचा  स्वभाव  वेगळा.  त्या  घरापासून  कोणते  सुख  मिळणार.
देहलोभे  आर्तभूत ।  जो  विषय  सेवीत ।  तो  तात्काळ  विष्ठा  होत ।  सुख  कोण  येथे  देहसंगे ।६।
या  मनुष्य  शरीराचा  लोभ  दुःखकारी  आहे.  जे  काही  या  शरीरामध्ये  खाल्ले  जाते  त्यातील  काही  भागाचे  मलमूत्र  तयार  होते  ते  शरीरातून  काढून  टाकावे  लागते.  भजीचा  वास  आला  की  खावीशी  वाटते,  परंतू  ती  पोटात  गेल्यावर  काही  भागाचे  मलमूत्र  तयार  होते.  ते  शरीरातून  काढून  टाकावे  लागते.  तर  या  मनुष्य  शरीराला  कोणते  सुख  आहे.
देही  काळ  लागला  नित्य ।  क्षयो  करी  अहोरात्र ।  शेखी  भोगवी  जन्ममरणावर्त ।  सुख  कोण  येथे  देहसंगे ।७।
या  मनुष्य  शरीराला  काळाचे  मोठे  भय  निरंतर  आहे.  काळ  म्हणजे  मृत्यु.  मनुष्य  रात्री  झोपलेला  सकाळी  उठून  जागा  होतो  की  नाही  याची  शाश्वती  नाही.  दररोज  काळजी  उद्या  तर  मरण  येणार  नाही  ना.  रात्रंदिवस  मनुष्याचे  आयुष्य  कमी  होत  असते.  आपण  पन्नासाव्वा  वाढदिवस  आनंदाने  साजरा  करतो,  परंतू  त्याचे  आयुष्य  जर  बावन्न  वर्षेच  असले  तर  आयुष्याची  पन्नास  वर्षे  संपली  आता  फक्त  दोन  वषर्चे  शिल्लक  आहेत.  हा  आनंद  आहे  की  दुःख.  मरणाचे  दुःख  मनुष्यास  सदैव  छळत  असतो.  तर  या  मनुष्य  शरीराला  कोणते  सुख  आहे.
देहा  क्षुधेचा  मारा  नित्य ।  तृष्णा  पीडी  जीवनार्थ ।  देही  देहभय  निभ्रांत ।  सुख  कोण  येथे  देहसंगे ।८।
या  मनुष्य  शरीरास  जगण्यासाठी  तहान  भूख  निरंतर  लागते.  आता  खाल्ले  पिले,  तरी  दोन  तासाने  तहान  भूख  आहेच.  पुन्हा  ती  पूर्ण  करण्यासाठी  कष्ट  करावे  लागतात.  हे  मरेपर्यंत  चालूच  रहाते.  तर  या  मनुष्य  शरीराला  कोणते  सुख  आहे.
ऐके  स्वामी  साचार ।  देह  तव  दुःखाचा  डोंगर ।  देह  विकल्पाचा  सागर ।  देह  तो  महापूर  अति  तृष्णेचा ।९। ऋषीवर्य  माझा  विचार  ऐका  म्हणून  हे  मनुष्य  शरीर  दुःखाचा  डोंगरच  आहे.  या  मनुष्य  शरीरास  मन  आहे.  मन  हे  संकल्प-विकल्पात्मक  आहे.  म्हण-मन  चिंती  ते  वैरी    चिंती.  मन  नेहमी  विकल्पाचाच  विचार  जास्त  करते.  तृष्णा  म्हणजे  फक्त  तहान  नव्हे.  प्रबळ  इच्छा  म्हणजे  तृष्णा.  प्रसिध्दीची  तृष्णा,  धनाची,  कीर्तिची,  विद्येची  इत्यादी.  त्याला  अंत  नाही.  असा  हा  मनुष्यदेह  भरपूर  दुःखाने,  विकल्पाने    इच्छेने  भरलेला  आहे.  म्हणून  मनुष्य  शरीराला  कोणतेही  सुख  नाही.
देह  नित्य  मूत्राची  न्हाणी    देह  तव  नरकांची  खाणी ।  देह  तव  पोहणखाणी ।  रोगांची  श्रेणी  हा  देह ।१०।
या  मनुष्य  शरीरामध्ये  दुर्गंधीयुक्त  मूत्र  साठून  रहाते.  तेथे  ते  जास्त  झाले  की  बाहेर  पडते.  पोहणखाणी  म्हणजे  घाणेरडे  डबके.  मनुष्याच्या  कर्मगतीनुसार  प्रमुख  ३६  प्रकारच्या  दुर्गंधीयुक्त  नरकांचे  वर्णन  शास्त्रामध्ये  केलेले  आहे.  शिवाय  त्यास  शारीरीक    मानसिक  रोग  चिकटलेले  आहेतच.  काही  तर  महारोग  आहेत.  अशा  प्रकारे  हे  मनुष्य  शरीर  दुर्गंधीने, रोगाने  जर्जर  आहे.  म्हणून  मनुष्य  शरीराला  कोणतेही  सुख  नाही.
देह  संदेहाचे  सोलीव    देह  अहंकाराचे  ओतीव ।  देह  विषयांचे  भरीव ।  कृमींचे  पेव  तो  देह ।११।
या  मनुष्य  शरीरास  मन  आहे.  मनामध्ये  अनेक  संशय  असतात.  इतर  मनुष्यांविषयी,  वस्तुंविषयी,  परमेश्वराविषयी,  शक्तीविषयी  वगैरे.  मनुष्यास  देहाचा  अहंकार  हेच  मोठे  अज्ञान  आहे.  सौंदर्याचा,  श्रीमंतीचा,  विद्येचा,  बुध्दीचा  वगैरे.  तसेच  मनुष्यास  विषयांची  आसक्ती  आहे.  प्रमुखतः  पाच  प्रकारच्या  ज्ञानेद्रियांचे  पाच  विषय  आहेत.  डोळे-रूप, कान-शब्द, नाक-गंध, जिभ-रस, त्वचा-स्पर्श  इत्यादी.  या  शरीरामध्ये  अनंत  सूक्ष्म  जंतू  आहेत.  कारण  त्यामूळेच  रासायनिक  क्रिया  होत  असतात.  दुधास  विरजण  ही  रासायनिक  क्रिया  आहे.  दह्यामध्ये  दुर्बिणिने  पाहिल्यास  दिसून  येते.  असा  हा  मनुष्य  देह जंतूमय आहे .
देह  द्वंद्वांची  निजधरणी   देह  दुःखाची  निजनिशाणी ।  देह  विकल्पाची  पूर्ण  भरणी ।  अरिष्टांची  तो  आरणी  देह ।१२।
द्वंद्व  म्हणजे  दोन.  या  मनुष्य  शरीरास  मन  आहे.  मनामध्ये  अनेक  द्वंद्वे  आहेत.  गरीब-श्रीमंत,  ज्ञानी-अज्ञानी,  सज्जन-दुर्जन,  भक्त-अभक्त,  स्त्री-पुरूष,  तरूण-वृध्द  वगैरे.  शिवाय  त्यास  शारीरीक    मानसिक  दुःखे  आहेत.  शारीरीक  दुःखा  पेक्षा  मानसिक  दुःखे  आधिक  भयानक  असतात.  काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, अहंकार  ही  मानसिक  दुःखे  आहेत.  असा  मनुष्य  देह विकारी आहे.
देह  आशेचा  कळवळा   देह  अहंकाराचा  अंगवळा ।  देह  अहंममतेचा  सोहळा ।  विकारांचा  मळा  तो  देह ।१३।
मनाचे  अनेक  विचार  आहेत.  कार्याची  पूर्तता  होईल  अशी  आशा  असते.  इतकेच  नाही  तर  आत्ता  पूर्तता  झाली  नाही  तर  नंतर  होईल  अशी  आशा  असते.  मी  शरीर  आहे  हाच  मोठ्ठा  अहंकार.  हा  अहंकार  जन्मापासूनच  असतो.  पुढे  पुढे  तो  आधिकतेने  दुणावत  जातो.  त्यामुळेच  अहंता    ममता  निर्माण  होते.  असा  हा  अनेक  विकारांचा  मळा  म्हणजे  मनुष्य  शरीर  होय.
वाढविता  विषयसोस ।  नित्य  आयुष्याचा  होय  नाश ।  परमार्थ  पडे  ओस ।  नाही  सुखलेश  तारूण्यामाजी ।५३।
तारूण्यामध्ये  स्वतःचे  विषय  तसेच  कुटूंबाचे  विषय  रोज  वाढतच  असतात.  या  इंद्रियविषयांमध्ये  दुःखच  आहे.  त्या  विषयांच्या  पूर्तीसाठी  आयुष्य  खर्ची  पडते.  आपल्या  कुटूंबासाठी  घर  घेण्याची  इच्छा.  आयुष्यभर  कष्ट  करून  पैसे  जमवावे  लागतात.  स्वार्थच  आयुष्यभर  केला  करीत  राहिला  तर  परमार्थ  केव्हा  करणार.  म्हणून  तारूण्यामध्ये  शरीरास  सुख  नाही.
तारूण्य  लोलूप  विषयापासी ।  तारूण्य  स्त्रीकामाची  दासी ।  तारूण्य  गर्वे  मुसमुसी ।  तारूण्यासी  सुख  काय ।६५।
तारूण्यामध्ये  कामवासना  प्रबळ  असते.  स्त्री  पुढे  मनुष्य  माकडाप्रमाणे  नाचत  असतो.  त्या  स्त्रीचा  गुलाम  होतो.  तारूण्यामध्ये  कर्माचा  गर्व  शिगेला  पोहोचतो.  गर्वाने  तो  मनुष्य  आंधळा  होतो.  म्हणून  तारूण्यामध्ये  शरीरास  सुख  नाही.
वार्धक्यी  जिरेना  अन्न ।  तरी  खावयाची  तृष्णा  गहन ।  वृध्दांचे  सदा  संचित  मन ।  सुख  कोण  वार्धक्यी ।७२।
म्हातारपणी  सर्व  अवयव  शिथील  झालेले  असतात.  पचनक्रिया  मंदावलेली  असते.  परंतू  वासना  प्रबळ  असते.  मन  अत्यंत  विचलित  झालेले  असते.  जे  पाहिजे  ते  मिळत  नसते.  म्हणून  म्हातारपणी  शरीरास  सुख  नाही.
देहबुध्दीच्या  कल्लोळी ।  मोहममतेच्या  महाज्वाळी ।  परमार्थाची  जाली  होळी ।  वृथा  रवंदळी  नरदेहा ।८०।
इंद्रियविषयांमध्ये  बुध्दी  अडकून  रहाते.  इंद्रियविषयांच्या  हव्यासामुळे  मोह  ममतेचे  मोठे  जंजाळ  निर्माण  होते.  आयुष्यभर  असाच    संपणारा  स्वजनांचा  पसारा  वाढतच  रहातो.  आयुष्य  संपले  कधी  समजतच  नाही.  परमार्थ  करण्यासाठी  वेळ  कोठे.  एक  तर  आवडच  नाही.  आवड  असेल  तरच  सवड  निर्माण  होते.  काही  वेळा  परमार्थ  झाला  नाही  असा  त्रागा  मात्र  होतो.

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