Wednesday, 6 December 2017

श्रीरामास उपदेश (भाग२)




एकनाथमहाराजांनी भावार्थ रामायण या ग्रंथामध्ये श्रीराम  चरित्र मराठीमध्ये ओवीबध्द केलेले आहे. बालकांडातील  अकराव्या अध्यायामध्ये विश्वामित्रऋषींनी श्रीरामास उपदेश केलेला आहे.
जेणे  पाविजे  ब्रह्मप्राप्ती ।  ऐसी  असेल  जरी  युक्ती ।  ते  सांगावी  मजप्रती ।  कृपामूर्ति  ऋषिवरा ।९३।
असा  हा  शरीराचा  खेळ  समजल्यावर  श्रीराम  या  संकटातून  मुक्त  होण्याचा  मार्ग  विश्वामित्रऋषींना  विचारीत  आहेत.  ब्रह्मप्राप्तीचा  मला  उपाय  सांगा.  माझ्यावर  कृपा  करा.  मायेच्या  जंजालातून  मला  मुक्त  व्हायचे  आहे.
मज  नसेल  अधिकार ।  तरी  तूम्ही  संत  सर्वाधार ।  सत्संगती  दीनोध्दार ।  हे  ब्रीद  साचार  संतांचे ।९४।
माझा  जरी  अधिकार  नसेल  तरी  सांगा.  कारण  तूमचा  अधिकार  मोठा  आहे.  तूमच्या  संगतीनेच  दीनांचा  पतीतांचा  उध्दार  होतो  हे  संतांचे  वचन  आहे.  त्या  वचनाला  जागून  मला  ब्रह्मप्राप्तीचा  मला  उपाय  सांगा.  संतांना  काहीच  अशक्य  नाही.
श्रीरामवैराग्य  समेळी ।  ऋषीवर  दाटले  भूतळी ।  सिध्द  दाटले  नभोमंडळी ।  मुमुक्षू  ते  काळी  चातक  जाले ।९७।
श्रीरामांच्या  या  प्रार्थनेमुळे  सर्वांना  आनंद  झाला.  या  प्रश्नांचे  निरूपण  ऐकण्यासाठी  सर्वजण  आतूर  झाले.  भूतलावरील  सर्व  ऋषी-मुनी  तेथे  गर्दी  करू  लागले.  सिध्दगण  आकाशामध्ये  जमा  झाले.  मोक्षाची  ज्यांना  जिज्ञासा  होती  ते  सुध्दा  चातकाप्रमाणे
विश्वामित्रऋषींच्या  निरूपणाची  आतूरतेने  वाट  पहात  होते.  त्या  सर्वांना  मुक्तीचा  मार्ग  पाहिजे  होता.
रामा  तुज  द्यावया  समाधान ।  उपदेशावया  ब्रह्मज्ञान ।  वसिष्ठ  कुळगुरू  सज्ञान ।  सदा  संपन्न  षडगुणैश्वर्य ।८।
विश्वामित्रऋषी  श्रीरामांच्या  या  प्रार्थनेला  उत्तर  देत  आहेत.  येथे  अधिकाराचा  प्रश्न  येतो.  या  जगामध्ये  प्रत्येकास  एक  विशीष्ट  कार्य  नेमून  दिलेले  आहे.  तेच  त्याने  करायचे  आहे.  तूझ्या  सर्व  प्रश्नांची  उत्तरे  देण्यास,  ब्रह्मज्ञानाचा  उपदेश  करण्यास  तूझे  कुलगुरू  वसिष्ठ  समर्थ  आहेत.  ते  सहा  गुणांनी(ज्ञान,वैराग्य,औदार्य,यश,श्री,ऐश्वर्य)  संपन्न  आहेत. भूत  भविष्य  वर्तमान ।  त्रिकाळ  ज्ञाता  सर्वत्र ।  अंतर्यामी  साक्षी  पूर्ण ।  गुरूत्वे  गहन  श्रीवसिष्ठ ।९।
विश्वामित्रऋषी  श्रीरामांस  सांगतात--तूझे  सद्गुरू  श्रीवसिष्ठ  भूत  भविष्य  वर्तमान  या  तिन्ही  काळांचे  जाणकार  आहेत.   तसेच  संपूर्ण  ब्रह्मांडातील  ज्ञान  त्यांचे  कडे  आहे.  तसेच  सर्व  मनुष्याच्या  अंतर्मनातील  ज्ञान  त्यांना  प्राप्त  आहे.  गहन,  रहस्यमय  प्रश्नांची  उत्तरे  त्यांचे  कडे  आहेत.
सुर्यवंशी  जे  जे  उत्पन्न ।  त्यांसी  वसिष्ठ  सांगे  ज्ञान ।  श्रीवसिष्ठांचे  ज्ञानमहिमान ।  हरिहर  आपण  वंदिती  स्वये ।१०।
तूझ्या  कुळामध्ये  जन्माला  आलेल्या  प्रत्येकाला  श्रीवसिष्ठांनी  ब्रह्मज्ञानाचा  उपदेश  केलेला  आहे.  त्या  श्रीवसिष्ठांचा  महिमा  विष्णु(आपणच)व  महादेवांनी  गायीलेला  आहे.  त्यांना  वंदन  केलेले  आहे.
शिष्याचे  विकल्प  समस्त ।  खंडोनि  निर्विकल्प  करित ।  तेचि  ज्ञान  अखंडित ।  शुध्द  शास्त्रार्थ  या  नाव ।२३।
जो  गुरू  शिष्यांचे  सर्व  शंका,  संशय  यथार्थ  निरूपण  करून  प्रश्न  नष्ट  करतात  तोच  सद्गुरू  होय.  तेच  ज्ञान  अखंडित  असतो.  त्यालाच  शुध्द  शास्त्रार्थ  म्हणतात.  म्हणजेच  शास्त्राचा  आधार  देऊन  निरूपण  करणे.  आपल्या  मनाचे  तत्वज्ञान  नव्हे.
शुध्द  शास्त्रार्थ  प्रतिपादिती ।  तेचि  सद्गुरू  उपदेशिती ।  ज्या  शिष्यासी  होय  प्रतीती ।  त्या  गुरूत्वाची  ख्याती  हरिहरा  वंद्य ।२४।
ते  शास्त्रयुक्त  निरूपण  केवळ  सद्गुरूच  करू  शकतात.  त्या  उपदेशाच्या  आचरणाने  शिष्यास  आत्मसाक्षात्कार  होतो.  त्याच  सद्गुरूंची  ख्याती  होत  असते.  असेच  सद्गुरू  विष्णु    महादेवांना  वंदनीय  असतात.
हे  विश्वामित्रांचे  वचन ।  ऐकोनिया  अति  गहन ।  सिध्द  साधक  ऋषिजन ।  करिती  स्तवन  धन्य  धन्य ।३१।
एकनाथ  महाराज  म्हणतात-विश्वामित्रांनी  श्रीवसिष्ठांची  अशी  गहन  स्तुती  केल्या  नंतर  सर्वांना  आनंद  झाला.  सिध्द  साधक  ऋषिमुनी  मुमुक्षू  सर्वजण  स्वतःला  धन्य  मानू  लागले.  साक्षार  भगवान  श्रीराम,  तसेच  विश्वामित्र    श्रीवसिष्ठ  यांचा  संवाद  उपदेश  ऐकण्याचे  भाग्य  आम्हास  लाभले  यांचे  त्यांना  कौतुक  वाटू  लागले.
जो  ब्रह्मज्ञानाचा  महामेरू ।  जो  स्वानंदाचा  सुखसागरू ।  तो  बोले  वसिष्ठ  ऋषीश्वरू ।  चित्तचमत्कारू  वचन  ज्याचे ।३३।
ब्रह्मज्ञान  प्राप्त  होणे  अत्यंत  कठिण.  बोटावर  मोजता  येईल  इतक्यांनाच  ते  प्राप्त.  त्यांच्यामध्ये  श्रीवसिष्ठ  हे  सर्वश्रेष्ठ  आहेत.  ते  परमानंदामध्ये  तृप्त  आहेत.  त्या  सुखसागरामध्ये  एकरूप  आहेत.  ते  श्रीवसिष्ठ  ऋषींचे  ही  ईश्वर  आहेत.  त्यांचा  गहन  उपदेश  ऐकायला  मिळणे  हे  आपले  अहोभाग्य  आहे.  असे  एकनाथ  महाराज  म्हणतात
ब्रह्मयापासोनी  ब्रह्मप्राप्ती ।  परी  ब्रह्मयासमान  ज्ञानशक्ती ।  वचनमात्रे  ब्रह्मप्राप्ती ।  सच्छिष्य  पावती  स्वानंदे ।३४।
एकनाथ  महाराज  म्हणतात-श्रीवसिष्ठांना  परब्रह्मा  पासून  ब्रह्मज्ञानाची  प्राप्ती  झालेली  आहे.  परब्रह्मासमान  त्यांची  ज्ञानशक्ती  आहे.  तसेच  त्यांचा  उपदेश  ऐकणायास  ब्रह्मज्ञानाची  प्राप्ती  होते.  म्हणून  त्यांचे  सत्-शिष्य  आत्मानंदामध्ये  मग्न  असतात. 
वसिष्ठे  करिता  उपदेश ।  शिष्य  तत्काळ  होय  निरास ।  त्या  निरासतेची  कास ।  जेणे  सावकाश  धरिली  असे ।३७।
श्रीवसिष्ठांनी  उपदेश  केल्यानंतर  तात्काळ  सत्-शिष्य  ब्रह्मज्ञानी  होतो.  त्याच्या  देहाचा  अहंकार  नष्ट  होतो.  जसे  परिसास  लोखंडाचा  स्पर्श  होताच  त्याचे  सोने  होते.  त्या  ब्रह्मज्ञानाची  जिज्ञासा  तेथे  जमलेल्या  सर्वांनी  धरलेली  आहे.
यालागी  शिष्ये    पुसता  जाण ।  आपण  सांगो  नये  ब्रह्मज्ञान ।  जरी  राम  अधिकारिरत्न ।  तरी  अप्रश्नी  ज्ञान  सांगो  नये ।४२।
आपल्या  धर्मशास्त्रामध्ये  सांगितलेले  आहे,  विचारल्या  शिवाय  कोणतेही  ज्ञान  सांगू  नये  विचारणारा  जरी  भगवंताचा  अवतार  असला  तरी.  जर  विचारल्या  शिवाय  ज्ञान  सांगितले  तर  सांगणारा  मूर्ख  असेच  वर्णन  केलेले  आहे.  उदा.  गीता.
घेवोनि  अज्ञानत्वाची  बुंथी ।  केवळ  अज्ञानप्रश्नोक्ती ।  स्वये  पुसताहे  रघुपती ।  ते  ही  उपपत्ती  अवधारा ।६१।
म्हणून  श्रीरामाने  अज्ञानाचे  पांघरूण  घेऊन  श्रीवसिष्ठांना  स्वतः  ब्रह्मज्ञान  सांगण्याची  विनंती  केली.  वस्तुतः  श्रीराम  सर्वज्ञ  आहेत,  तरी  सुध्दा  श्रीवसिष्ठांना  सन्मान देण्यासाठी प्रश्न  विचारले.
मज  नसेल  अधिकार ।  तरी  तूम्ही  संत  सर्वाधार ।  सत्संगती  दीनोध्दार ।  हे  ब्रीद  साचार  संतांचे ।९४।
माझा  जरी  अधिकार  नसेल  तरी  सांगा.  कारण  तूमचा  अधिकार  मोठा  आहे.  तूमच्या  संगतीनेच  दीनांचा  पतीतांचा  उध्दार  होतो  हे  संतांचे  वचन  आहे.  त्या  वचनाला  जागून  मला  ब्रह्मप्राप्तीचा  मला  उपाय  सांगा.  संतांना  काहीच  अशक्य  नाही.
श्रीरामवैराग्य  समेळी ।  ऋषीवर  दाटले  भूतळी ।  सिध्द  दाटले  नभोमंडळी ।  मुमुक्षू  ते  काळी  चातक  जाले ।९७।

मनुष्यदेही  ब्रह्मप्राप्ती ।  तो  देहभाव  नसावा  चित्ती ।  विदेहत्वे परमार्थगती ।  विवेकसद्युक्ती  निजपुरूषार्थ ।६५।
आता  श्रीवसिष्ठ  श्रीरामास  ब्रह्मज्ञानाचा  उपदेश  करीत  आहेत--केवळ  मनुष्यदेहामध्येच  ब्रह्मज्ञान  प्राप्ती  होऊ  शकते.  त्यासाठी  देहाचा  अहंकार  पूर्णपणे  नष्ट  झाला  पाहिजे.  तीच  विदेह  स्थिती  आहे.  त्यामुळेच  परमार्थाचे  ज्ञान  होते.  त्यासाठी  विवेक  वैराग्य  अत्यंत  आवश्यक  आहे.  तसेच  अढळ  प्रयत्न  सुध्दा  महत्वाचा  आहे.
ऐके  बापा  रघुनाथा ।  या  युक्तीच्या  पुरूषार्था ।  साधूनिया  पावावे  परमार्था ।  उपाव  अन्यथा  असेना ।६९।
श्रीवसिष्ठ  श्रीरामास  सांगतात-  श्रीरामा  लक्ष  देऊन  ऐक  या  पध्दतीनेच  अविरत  साधना  केली  पाहिजे.  वर्षानुवर्षे  साधना  केल्यानंतर  हळुहळु  देहाची  आसक्ती  नष्ट  होते.  विदेह  स्थिती  प्राप्त  होते.  ब्रह्मज्ञान  प्राप्त  होते.  या  शिवाय  दूसरा  कोणताही  मार्ग  नाही.  हे  जाणून  घेतले  पाहिजे.  इतर  सर्व  मार्ग  पाखंडी  आहेत.
मनोरथ  नानावृत्ती ।  या  नाव  वासनासरिता  म्हणती ।  इयेमाजी  बुडाले  नेणो  किती ।  बळी  ते  तरती  निजपुरूषाथेर ।७०।
मनोमार्गे  गेला  तो  येथे  मुकला।  हरिपाठी  स्थिरावला  तोचि  धन्य।  हरिपाठ  मनाच्या  अनेक  वृत्ती  असतात.  मन  हे  संकल्प-विकल्पात्मक  आहे.  म्हण-मन  चिंती  ते  वैरी    चिंती.  मन  नेहमी  विकल्पाचाच  विचार  जास्त  करते.  मन  चंचल  आहे.  हे  पाहिजे  ते  पाहिजे.  असा  मनाचा  सारखा  विचार  असतो.  वासना  म्हणजे  इच्छा.  ती  वासना  नष्ट  करण्यासाठी  सर्व  उपासना,  साधना  आहे.  या  वासनेच्या  आहारी  कितीजण  वाया  गेले  याची  गणना  नाही.  ती  वासना  संपूर्णपणे  नष्ट  करण्यासाठी  पराकाष्ठा  करावी  लागते.  या  भवसागरातून  जे  तरून  पुढे  गेले  तो  त्यांचा  पुरूषार्थ  होय.
त्या  पुरूषार्थाचे  लक्षण ।  अशुभ  वासना  त्यागून ।  परमार्थी  दृढ  राखावे  मन ।  हे  मुख्य  लक्षण  पुरूषार्थाचे ।७२।
पुरूषार्थ  म्हणजे  स्वतः  शिष्याने  गुरूच्या  उपदेशाचे  श्रध्देने  आचरण  करणे.  सदगुरू  केवळ  मार्ग  दाखवितो  आणि  शिष्याचा  मार्ग  चूकत  नाही  ना  याकडे  लक्ष  ठेवतो.  या  परमार्थमार्गामध्ये  दृढता,  चिकाटी  अत्यंत  महत्वाची  असते.  एका  रात्रीतून  कोणालाच  ब्रह्मज्ञान  प्राप्त  होत  नसते.  सुरवातीला  वाईट  वासनांचा  क्रमाक्रमाने  त्याग  करावा.  त्याची  सवय  झाल्यावर  तसाच  स्वभाव  बनतो.  त्यानंतर  हळुहळु  सर्व  वासनेचा  त्याग  करावा.
ज्ञान  सुलभत्वे  सुखप्राप्ती ।  तरी  का  साधक  सदा  शिणती ।  त्यांसी  अनुताप  नाही  चित्ती ।  अवैराग्ये  प्राप्ती  ज्ञानाची  नव्हे ।८३।
धर्माचरणाने  ज्ञान  सहज  प्राप्त  होते.  जे  साधक  धर्माचरण  सोडून  इतर  मार्गाचा  अवलंब  करतात,  ते  कष्टी  होतात.  वैराग्य  म्हणजे  जे  अकल्याणकारी  आहे  त्याचा  त्याग  करणे.  विवेक  म्हणजे  काय  कल्याणकारी    काय  अकल्याणकारी  हा  भेद  जाणणे.  संसारामध्ये  लक्ष  हे  अकल्याणकारी  तर  भगवंतामध्ये  तल्लीनता  हे  कल्याणकारी  हेच  धर्मशास्त्राच्या  अभ्यासाने  समजते.  म्हणून  धर्मशास्त्राचा  अभ्यास  जरूर  करावा.  ज्ञानाची  जिज्ञासा    अज्ञानाचा  त्याग  अपेक्षित  आहे.
गुरूपासी  नाही  ज्ञानाचा  गोळा ।  जो  गिळवी  शिष्यासी  तत्काळा ।  गुरूरूपे  नाही  ज्ञानधनमोटळा ।  जे  शिष्याजवळा  स्वये  दे ।९२।
अत्यंत  महत्वाचे  तत्त्वज्ञान  सांगत  आहेत.  लक्ष  देऊन  ऐकावे.  वर्षानुवर्षे  धर्मशास्त्राच्या  अभ्यासाने  समजू  शकेल.  ब्रह्मज्ञान  ही  काही  वस्तु  नाही  की  खाण्याचा  पदार्थ  नाही.  सद्गुरूकडे  ज्ञानाचा  गोळा  नसतो  कि  जो  शिष्याला  खायला  दिला  आणि  शिष्याला  ब्रह्मज्ञान  झाले.
उपदेशक्रम  रघुनाथा ।  गुरू    सांगोनि  सांगता ।  शिष्य  कानेवीण  ऐकता ।  प्राप्ति  परमार्था  तै  लाभे ।९४।
श्रीवसिष्ठ  श्रीरामास  सांगतात-  श्रीरामा,  हे  जाणून  घे,  सद्गुरू  शिष्यास  बोलून  काहीच  सांगत  नाही.    शिष्य  सुध्दा  कानांनी  काहीच  ऐकत  नाही.  सद्गुरूंच्या  कृतीतूनच,  आचरणातूनच  शिष्य  घडत  असतो,  ब्रह्मज्ञान  प्राप्त  करीत  असतो.  असा  हा  भारतिय  तत्त्वज्ञानाचा  महिमा  अलौकिक  आहे.
साधुत्वे  पाहता  साधुसी ।  मुख्य  साधुत्व  सद्गुरूसी ।  तो  जे  स्वात्मत्व  उपदेशी ।  सच्छास्त्र  त्यासी  बोलवी  ज्ञाते ।१०९।
साधु  म्हणजे  महापुरूष.  महापुरूषाची  लक्षणे  तो  आत्मज्ञानी.  ब्रह्मज्ञानी.  यामध्ये  सर्व  आले.  अनेक  महापूरूषांमध्ये  आपले  सद्गुरू   हे  आपल्यासाठी  सर्वश्रेष्ठ.  ते  सद्गुरू   जेव्हा  त्यांचा  आत्मसाक्षात्कार  सांगतात.  तेच  शिष्यासाठी  सत्‌-शास्त्र  आहे.  धर्मशास्त्र  आहे.  असे  ज्ञानीजन  सांगतात.
सत्संगे  ज्या  अकिंचनता ।  तो  ब्रह्मादिका  वंद्य  सर्वथा ।  त्रैलोक्यवैभवा  हाणोनि  लाथा ।  ऐसी  प्रसन्नता  सत्संग ।११६।
भौतिकतेने  जरी  दरिद्री  असला  तरी  सत्संगाने  तो  दरिद्री  ब्रह्मदेवास(इतर  सर्व  देवांना)  सुध्दा  वंदनीय  आहे.  त्या  सत्संगापुढे  त्रैलोक्याचे  वैभव  सुध्दा  फीके  आहे.  जेथे  दया  मैत्री  प्रश्रयो  पूर्ण    मुख्यत्वे  हे  त्रिविध  लक्षण    अवश्य  करावे  आपण    सत्संग  प्रमाण  स्वहितासी  ।।३.३५४एकनाथी  भागवत।।  ज्या  महापुरूषामध्ये   दया,  मित्रभाव,    विनयता  यांचा  त्रिवेणी  संगम  पुर्णत्वाने  आहे,  त्या  महापुरूषांच्या  सहवासास  सत्संग  म्हणता  येते.
दृश्य  द्रष्टा  दोहिते ।  दर्शन  प्रकाशे  निश्चिते ।  ते  दर्शन  आकळे  जयाते ।  ब्रह्मस्थिती  त्याते  अभंग ।११९।
दृश्य  म्हणजे  प्रसंग,घटना.  द्रष्टा  म्हणजे  ते  दृश्य  पहाणारा.  जेव्हा  प्रसंग,घटना  आणि  ते  प्रसंग,घटना  पहाणारा  एकत्र  येतात  तेव्हा  ते  सर्व  मिळून  दर्शन  घडते.  ते  दर्शन  ज्याला  समजते,  उमजते,  त्याचे  ते  दर्शन  कायमचे  होते.  ते  कधीच  अविस्मरणीय  होते.  ही  संपूर्ण  सृष्टी  ज्याला  परमात्मास्वरूप  दिसते.  जाणवते,  त्याचे  ते  परमात्मास्वरूप  अविस्मरणीय  होते.ते  कधीच  भंग  पावत  नाही.
ऐके  बापा  रघुवीरा ।  सांगेन  ज्ञानाच्या  सर्व  सारा ।  जो  श्रवणार्थी  चातक  खरा ।  तो  वाक्यसुखसारा  झेलोनि  घे ।१३१।
हे  श्रीरामा  सावधतेने  ऐक  मी  तूला  ब्रह्मज्ञान  संपूर्णपणे  सांगतो.  परंतू  तू  ते  चातकाप्रमाणे  प्राप्त  केले  पाहिजे.  चातक  जमिनीवर  खाली  पडलेलेपाणी  पीत  नसतो.  तो  फक्त  आकाशातून  पावसाच्या  धारा  आकाशामध्येच  झेलून  पितो.  तसे  तू  हे  ब्रह्मज्ञानमाझ्या  कडून  तात्काळ  ग्रहण  कर.  मी  सांगायचा  अवकाश  ते  तूझ्या  हृदयी  गेले  पाहिजेय  माऊली  म्हणते  ये  हृदयीचे  ते  हृदयी  तोच  हा  प्रकार  आहे.
योगी  जागृती  सावधान ।  चित्सावधानेत्वे  देखती  स्वप्न ।  सुषुप्तिसुखे  समाधान ।  चिद्रूप  पूर्ण  भोगिति  सदा ।१४९।
प्रामुख्याने  चित्ताच्या  तीन  अवस्था  आहेत.  .जागृत  अवस्था-इंद्रिये  बहिर्मुख  होऊन  कार्य  करतात.  .स्वप्न  अवस्था-इंद्रिये  अंतर्मुख  कोणतेही  कार्य  करीत  नाही  परंतू  मन  चिंतन  करू  शकते.  .सुषुप्ति  अवस्था-इंद्रिये  आणि  मन  दोन्ही  शांत  असतात.  योगीजन  जागृत  अवस्थेमध्ये  सावधपणे  इंद्रियांची  कार्ये  करतात.  स्वप्न  अवस्थेमध्ये  मन  स्थिर  करून  स्वप्न  पहातात.  आणि  सुषुप्ति  अवस्थेमध्ये  भगवंतामध्ये  एकरूपतेचा  साक्षात्कार  अनुभवतात.
ऐसा  अवस्थात्रयी  सावधान ।  हेचि  भगवंताचे  भजन ।  हेचि  परमात्मयाचे  भजन ।  हेचि  समाधान  जीवशिवाचे ।१५०।
असे  तिन्ही  अवस्थेमध्ये  सावध  रहाणे.  केवळ  दृष्ट्याची  भूमिका  घेणे.  हेच  भगवंताचे  भजन  आहे.  हीच  परमात्म्याची  उपासना,साधना,  आहे.  आणि  त्यालाच  एकरूपतेचे  समाधान  प्राप्त  होते.  तेच  जीवाचे  शिवामध्ये  समर्पण  होय. 




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