Friday, 9 February 2018

कृपालुजी महाराज




कृपालुजीका जन्म सन १९२२ मे उत्तरप्रदेशमे ब्राह्मण कुलमे हुआ । इनकी प्रारंभिक शिक्षा संपन्न होनेके पश्चात इन्होने इंदौर्, चित्रकूट, वाराणसीमे व्याकरण, साहित्य तथा आयुर्वेदका अध्ययन किया । सोलह वर्षकी आयुमे चित्रकूटमे तथा वृंदावनके निकट जंगलोंमे साधना की । वहा वे श्रीकृष्ण प्रेममे विभोर भाव-अवस्थामे घंटो घंटो मूर्च्छित रहते थे । प्रेमकी ऎसी विचित्र अवस्था थी कि शरीरकी कोई सुधि बुधि नही थी । कभी उन्मुक्त अट्टाहास करते तो कभी भयंकर रुदन । खाना पीना भी भूल ही गये थे । नेत्रोसे अविरल अश्रु धारा प्रवाहित होती रहती थी, कभी किसी कटीली झाडीमे वस्त्र उलझ जाते, तो कभी किसी पत्थरसे टकरा कर गिर पडते थे । धीरे धीरे अपने इस दिव्य प्रेमको गोपन करके श्रीकृष्ण भक्तीका प्रचार करने लगे । अब उनके प्रवचनोमे प्रेमके साथ साथ ज्ञानका प्रगटीकरण भी होने लगा ।
कृपालु महाराजने सन १९५५ मे एक विराट दार्शनिक संमेलन का आयोजन किया, जिसमे काशी आदि स्थानोंके अनेक विद्वान संमिलीत हुए । इन्होने सन १९५६ मे ऎसा ही एक विराट संत संमेलन का आयोजन कानपूरमे किया । उसमे हिंदुस्तानभरसे  अनेक विद्वान संमिलीत हुए थे । इसी संत संमेलनमे कृपालुजी महाराजका प्रवचन जिसमे वेद शास्त्रोंका अद्वितिय ज्ञान सुनकर उपस्थित प्रख्यात पंडित आश्चर्यचकित हो गये  । इसके पश्चात कृपालु महाराजको काशी विद्वत परिषतने काशी आनेका निमंत्रण दिया । काशीमे कृपालु महाराजके कठिन संस्कृतमे दिये गये विलक्षण प्रवचनको सुनकर एवं भक्तीरससे ओतप्रोत अलौकिक व्यक्तित्वको देखकर सभी विद्वान मंत्रमुग्ध हो गये । उन्होने स्वीकार किया कि कृपालु महाराज केवल वेद, शास्त्र, पुराणोंके मर्मज्ञ ही नही है अपितु प्रेमके साकार स्वरुप भी है । तब काशी विद्वत परिषतने कृपालु महाराजको जगत-गुरुत्तम की उपाधि से विभूषित किया । और भी १.श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावरीण, २.वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य, ३.निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य,  ४.सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्संप्रदायपरमाचार्य, ५. भक्तीयोगरसावतार भगवदनन्त श्रीविभूषित जगद् गुरु १००८ श्री स्वामी कृपालु जी महाराज, आदि उपाधि से भी विभूषित किया ।
निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य,  जगद् गुरु  श्री स्वामी कृपालु जी महाराजने आजके समस्त धार्मिक विरोधाभासोंको दूर करके सभी धर्मोंक सम्मान करते हुए ऎसा मार्ग बताया जो सार्वभौमिक है । सभी जाति सभी संप्रदायोंके लोगोंक एकीकरण करके श्यामा-श्यामके दिव्य प्रेमका संदेश जन-जन तक पहुचानेके लिये ही कृपालु महाराजजीने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया । तापत्रयसे पीडित कलिमल ग्रासित अधम जीवोंके लिये शाश्वत दिव्य प्रेमानंद प्राप्तिका सर्वसुगम मार्ग प्रशस्त करने हेतु वे आदर्श कर्मयोगीकी तरह निशिवासर प्रयत्नशील रहे ।
वर्तमान कालमे जगद् गुरु  श्री स्वामी कृपालु महाराज विश्वके इतिहासमे पंचम जगद् गुरु  हुए । ये समन्वयवादी जगद् गुरु थे; जिन्होने पूर्ववर्ती समस्त आचार्यो जगद् गुरु श्री शंकराचार्य, जगद् गुरु श्री निंबकाचार्य, जगद् गुरु श्री रामानुजाचार्य, जगद् गुरु श्री माध्वाचार्य, एवं श्री चैतन्य महाप्रभु आदि के दार्शनिक सिध्दांतोंको सही सिध्द करते हुए अपना समन्वयवादी दार्शनिक सिध्दांत प्रस्तुत किया । इनके मतानुसार यद्यपि ईश्वर प्राप्तिके अनेक मार्ग है, तथापि भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ तथा सर्वसुलभ मार्ग है ।


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