Sunday, 26 November 2017

मनुस्मृतीचा आज उपयोग काय ?




मनुस्मृतीचा  आज  उपयोग  काही  आहे  का  हे  समजण्यासाठी  मनुस्मृती  काय  आहे  याचा  अभ्यास  आधी  केला  पाहिजे. मनुस्मृती  हा  मनुचा  ग्रंथ  प्रसिध्द  असून  त्याला  मानव  धर्मशास्त्र  असेही  म्हणतात.  तो  कृष्णयजुर्वेदांच्या  मैत्रायणी  शाखेच्या  मानव  धर्म  सुत्राच्या  आधारे  भृगुऋषींनी  रचिला  आहे.  मनुस्मृतीतील  प्रत्येक  अध्यायाच्या  शेवटी   “भृगुप्रोक्तायां  संहितायां”  या  उल्लेखावरून  हे  स्पष्ट  होते.  मनुस्मृतीचा  काळ  महाभारतपुर्व  असावा  कारण  मनुस्मृतीतील  अनेक  श्लोक  महाभारतात  आहेत,  तसेच  महाभारतात  मनुस्मृतीचा  उल्लेख  येतो  परंतू  मनुस्मृतीमध्ये  महाभारताचा  उल्लेख  येत  नाही.  याज्ञवल्क्य,  पाराशर,  देवल,  वसिष्ठ  अशा  स्मृती  अनेक  असल्यातरी  मनुस्मृती  ही  प्राचीनत्वाने    उपयुक्ततेने  जेष्ठ    श्रेष्ठ  मानली  आहे.  यामध्ये  एकंदर  १२  अध्याय  असून  २६८४  श्लोक  आहेत.  या  मनुस्मृतीवर  मेधातिथि,  सर्वज्ञ  नारायण,  कुल्लूकभट,  राघवानंद,  नंदनाचार्य,  गोविंदराज,  भोजदेव,  धरणीधर,  रामचंद्र  इत्यादी  संकृत  पंडितांनी  टीका  लिहील्या  आहेत.  यापैकी  सात  टीका  मुंबईच्या  एकोणीसाव्या  शतकातील  कायदेपंडित  विश्वनाथ  नारायण  मंडलिक  यांनी  छापून  प्रसिध्द  केल्या.  स्वातंत्र्यवीर  सावरकरांसारख्या  सुधारकाग्रणींनी  मनुस्मृती  दुष्टाव्याने  लिहीली  नाही  ही  गोष्ट  निःसंकोचपणे  मान्य  केली  आहे.  तसेच  नीत्शे  या  जर्मन  तत्त्ववेत्यावर  मनुस्मृतीचा  विलक्षण  परिणाम  प्रभाव  पडलेला  दिसतो.  तो  म्हणतो   बायबल  बंद  करा  आणि  मनुस्मृती  उघडा.  मनुस्मृती  या  ग्रंथामध्ये  मनुष्यजीवनाबद्दल  महान  आदर्श  दर्शविला  आहे.  प्रजोत्पादन,  स्त्रीविवाह,  इत्यादी  गोष्टीचा  विचार  ख्रिस्ती  धर्म  गावंढळपणे  दडपून  टाकतो.  याचे  येथे  गंभीरपणे  विवेचन  केले  आहे.  स्त्रीविषयी  प्रेमपूर्ण    दाक्षिणयुक्त  विपूल  वचने  आहेत.  मॉरीस  मेटरलिंक  हा  बेल्जिअन  पंडित  आपल्या  दि  ग्रेट  सीक्रेट  या  ग्रंथात  लिहीतो,  मनुस्मृतीतील  नीती  नियम  आध्यात्मिक  स्वरूपाचे  असून  या  नियमांच्या  पालनाने  बक्षिस  तर  उल्लंघनाने  शिक्षा  स्वतःच्या  अंतःकरणातच  मिळते.  ऑस्पेन्सकी  नावाचा  अलिकडच्या  काळातील  पाश्चात्य  पंडित  आपल्या    न्यू  मॉडेल  ऑफ  दि  युनिव्हर्स  या  ग्रंथात  लिहीतो,   मनुस्मृतीतील  स्त्रीविवाहा  विषयीचे  नियम  फार  महत्वाचे  आहेत.  ज्या  जातीचे  स्वभावधर्म  मूलतःच  भिन्न  आहे,  अशा  जातीच्या  मिश्र  विवाहाचे  दुष्परिणाम  विशेषतः  स्त्रीयांना    त्या  संततीला  भोगावे  लागतात  हे  मनुस्मृतीतील  वचन  आज  प्रत्यक्ष  दिसून  येत  आहे.  अशा  रितीने  मनुस्मृतीविषयी  पौरात्य  तसेच  पाश्चात्य  पंडितांनी    विचारवंतांनी  अनेक  ठिकाणी  गौरव  केला  आहे.  प्रख्यात  विचारवंत  श्री.  केवल  मोटवानी  यांनी  नूकताच  मनुधर्मशास्त्र  नावाचा  एक  मोठा  ग्रंथ  लिहीला  आहे.  या  ग्रंथात  ते  लिहीतात,  मनुस्मृतीमध्ये  मनुष्याच्या  नैतिक,  मानसिक    आध्यात्मिक  विकासाचे  मार्गदर्शन  केले  आहे  ते  प्रत्येक  राष्ट्राला  वारसाहक्काने  प्राप्त  झाले  आहे.  आपल्या  धर्मशास्त्राद्वारे  मनुने  प्रत्येक  राष्ट्राच्या  जीवनात  प्रवेश  केला  आहे.  मनु  हा  स्मृतीच्या  आड  गेलेल्या  मृत  भूतकाळाचा  कुणी  एक  पाईक  नसून  या  भूतलावर  श्वासोश्वास  करण्याऱ्या प्रत्येक  सुसंस्कृत  माणसाच्या  जीवनातील  मनु  ही  एक  प्रेरक  शक्ती  आहे."  मनुस्मृतीतील  धर्मशास्त्र  हे  आध्यात्मिक  तत्त्वज्ञानावर  आधारलेले  आहे.  मनुस्मृतीमध्ये  पुढील  प्रमाणे  तत्त्वज्ञान  विस्ताराने  सांगितले  आहे.  सर्व  सत्  आणि  असत्  विश्व  आत्म्यात  सामावलेले  आहे.  धर्म    अधर्म  यांच्यासंबंधी  रागद्वेषरहित  निर्विकार  मनस्थितीत  सर्व  मानवांना    सर्व  प्राण्यांना  हितकारक  विवेक  बुध्दिचा  निर्णय  मिळतो.  सगळे  शुभ    अशुभ  वर्तन  हे  विवेक  बुध्दि  विकार  वश  असणे    नसणे  यांच्यावर  अवलंबून  आहे.  आश्रम  व्यवस्था    चातुर्वर्ण्य  व्यवस्था  ही  सामाजिक  जीवनाची  मुख्य  रचना  अशा  निर्विकार  प्रज्ञेनेच  नीट  रीतीने  स्पष्ट  होते.  ज्ञानी,  रागद्वेषमुक्त  सज्जन  यांनी  मानलेला  धर्म  येथे  सांगितला  आहे.  आर्थिक  लाभ  आणि  बाह्येंद्रियांचे  सुख  यापासून  जे  अलिप्त  असतात,  त्यांना  धर्मज्ञान  प्राप्त  होते.  मनुष्यजीवनाच्या  धर्म,  अर्थ,  आणि  काम  ह्या  तीन  मुख्य  उद्दिष्टांच्या  समतोलाने  समाजधारणा  होते.  मनुस्मृतीवर  हल्लीच्या  काळात  अनेक  विचारवंतांनी  टीकेची  झोड  उठवली  आहे.  त्यातून  मनुस्मृतीच्या  पायाशुध्द  यथार्थ  अध्ययनाचा  अभावच  दिसतो.  ही  टीका  स्वार्थी  राजकीय  हेतूने,  द्वेषाने    संकुचित  अभिनिवेशातून  झालेली  दिसते.  गेल्या  चार  हजार  वर्षामध्ये  मनुष्याच्या  आर्थिक-सामाजिक-राजकीय  स्थितीत  निश्चितच  प्रचंड  बदल  झाला  आहे.  अनेक  तत्कालीन  संकल्पना  पूर्ण  लोप  पावल्या  आहेत    कित्येक  नवीन  उदयास  आल्या  आहेत.  पण  तरीही  मनुष्याच्या  जीवनाची  अशीही  काही  क्षेत्रे  आहेत  त्यात  इतक्या  काळानंतरही  मुळीच  बदल  झालेला  नाही.  ही  क्षेत्रे  मुख्यतः   मनुष्याच्या  आंतरीक  भावनाविश्वाशी  संबंधित  आहेत.  तेव्हा  जसा  सत्प्रवृत्तींचा    कुप्रवृत्तींचा  संघर्ष  मनुष्याच्या  आंत    बाहेर  समाजात  चालत  होता  तसाच  आज  चालत  आहे.  प्रेम,  द्वेष,  आश्चर्य,  भिती  इत्यादी  सर्व  भावनांचे  उगमस्थान  अशा  मानवी  अंतःकरणात  अनेक  युगे  लोटून  सुध्दा  काही  फरक  पडलेला  नाही.  आणि  म्हणून  या  सर्व  क्षेत्राच्या  विकासासाठी  आज  मनुस्मृतीचा  उपयोग  आहे  हे  वेगळे  सांगण्याची  गरज  नाही.  एका  वाक्यात  सांगायचे  झाल्यास  जोपर्यंत  मानवी  जीवन  आहे  तोपर्यंत  मनुस्मृतीला  पर्याय  नाही,  कारण  मानवी  जीवन  सर्वांगाने  उत्कर्षाला  कसे  जाईल  हेच  मनुस्मृती  सागते.  मनुस्मृतीचे  डोळस,  पूर्वग्रहरहित  दृष्टीने,  पाश्चात्य  समाजरचनेच्या  दृष्टिकोनातून  विचार    करता  आणि  आपल्या  शास्त्रांच्या  रचनेचे  नियम  ध्यानात  घेउन  जर  अध्ययन  केले  तर  स्पष्ट  होते  मनुष्यजीवनाच्या  आंतरीक क्षेत्रांशी  संबंधित  नियम  बनवताना  आश्चर्यकारक  सर्वसमावेशता,  अलौकीक  बुध्दिमत्ता,  विलक्षण  गुणग्राहकता    पराकोटीची  उदारता  येथे  प्रखरतेने  दिसून  येते.  वाईटातल्या  वाईट  मनुष्याला  देखील  क्रमशः  मनुष्याच्या  सर्वोच्च  ध्येयापर्यंत  नेण्याचा  उपदेश  येथे  केलेला  आहे.  सच्चिदानंद-प्राप्ती  हे  मनुष्यजीवनाचे  परमउद्दिष्ट  साध्य  करण्याच्या  दृष्टीनेच  प्रत्येक  व्यक्तीसाठी,  त्याच्या  मनोवृत्तींनुसार,  व्यवसायानूसार,  शारीरीक  क्षमतेनुसार    वयानुसार  असे  नियम  दिले  आहेत  की  ज्यांच्या  अवलंबनामूळे  मनुष्याला,  तो  जिथे  असेल  तेथून  या  परमध्येयाच्या  दिशेने  पुढे  जायला  मदत  होईल.  मनुस्मृतीवर  जे  आक्षेप  घेण्यात  येतात  ते  मुख्यतः   हे  उद्दिष्ट  लक्षात    घेतल्यामूळेच.  कुठल्याही  कार्याचे  मुल्यमापन  करताना  उद्देश  सर्वप्रथम  विचारात  घ्यावा  लागतो.  निव्वळ  ऐहिक  भोग  हेच  ध्येय  ठेवलेल्या  आणि  पुनर्जन्माच्या  सिध्दान्ताला    मानणाया  पाश्चात्य  पंडितांना    त्यांचीच  री  ओढणाऱ्या  आपल्या  तथाकथीत  पंडितांना  कित्येक  वेडगळ  नि  अन्यायकारक  नियम  या  मनुस्मृतीमध्ये  आढळावेत  यात  नवल  नाही.  पण  आपल्या  समाजाची  घडण  मोक्षप्रधान  आहे,  भोगप्रधान  नाही  हे  लक्षात  घेतले  आणि  तर्कशुध्द    अनुभवसिध्द  पुनर्जन्माचा  सिध्दान्त  समजून  घेतला  तर  सुसंगतपणा    हृदयस्पर्षी  सूक्ष्म  विवेचन या मनुस्मृतीमध्ये दिसून  येते.  मनुष्याच्या  दैनंदिन  कर्माची  सविस्तर  चर्चा,  मोक्षप्राप्ती  हेच  सर्व  कर्माचे  अंतिम  उद्दिष्ट  या दृष्टिकोनातून विषयाची मांडणी केलेली  आहे.  आपले  अगदी  लहान-सहान  सामान्य  कार्यसुध्दा  शास्त्रांच्या  आदेशानुरूप  व्हावे.  ही  आपली  संस्कृती  आहे.  भगवत्  गीतेमध्ये  श्रीकृष्ण  अर्जुनाला  हेच  सांगतात.  तेच  विनोबाजीं  गीताईमध्ये  म्हणतात,  जो  शास्त्र-मार्ग  सोडूनि  करितो  स्वैर  वर्तन      सिध्दि  लाभते  त्यास    वा  सुख    सद्-गति।।१६.२३।।  म्हणूनि  आदरीं  शास्त्र  कार्याकार्य  कळावया।  शास्त्राचे  वाक्य  जाणूनि  इथे  तूं  कर्म  आचरीं  "।।१६.२४।।  हे  लक्षात  घेऊन  दैनंदिन  जीवनातील  आहार-विहार,  झोपणे-उठणे,  कौटुंबिक    सामाजिक  कर्तव्ये,  समाजातील  प्रत्येकाची  विहीत  कार्ये  या  सर्व  बाबतीत  प्रत्येकाच्या  भिन्न  प्रवृत्ती  लक्षात  घेउन  त्यांच्या  पात्रतेतील  तारतम्य  ध्यानात  ठेउन  अतिशय  बारकाईने,  उत्कृष्ट  विवेचन  या  मनुस्मृतीमध्ये  केले  आहे. मनुस्मृतीमध्ये  समाजाची  ब्राह्मण,  क्षत्रिय,  वैश्य    शूद्र  या  चार  वर्णांत  गुण    कर्म  यांच्या  निकषावर  विभागणी  केली  आहे.  ती  प्रत्यक्षात  जन्मानुसार  झाली  याचे  कारण  व्यावहारीक  सोय  हेच  आहे.  जन्मल्याबरोबर  मुलाचे  गुण-कर्म  कसे  ओळखायचे  आणि  जर  ओळखता  आले  नाही  तर  त्याचे  संस्कार  कोणत्या  वर्णांनुसार  करायचे.  केवळ  याचमुळे  वर्णंव्यवस्था  जन्मानुसार  झाली.  परंतू  धर्मशास्त्रास  हे  मान्य  नाही.  व्यास-नारद-वसिष्ठ  इत्यादी  प्राचीन  उदाहरणे  दाखवितात  की  मनुष्याचा  वर्ण  त्याच्या  जन्मानुसार  नव्हे  तर  गुण-कर्मानुसार  ठरविला  जात  असे,  कारण  या  तिघांचाही  जन्म  ब्राह्मणवर्णांमध्ये  झाला  नव्हता,  तरीही  त्यांच्या  गुण-कर्मानुसार  त्यांची  गणना  सर्वश्रेष्ठ  ब्राह्मण  म्हणून  होते.  मनुष्याचा  वर्ण  त्याच्या  जन्मानुसार  ठरवून  त्याचे  संस्कार  त्या  वर्णांनुसार  करायचे  ही  प्रथा  रूढ  झाली  परंतू  पुढे  त्याच्या  विकसित  गुण-कर्मानुसार  वर्ण  बदलण्याची  प्रथा  रूढ  झाली  नाही.  त्याचमूळे  आज  वर्णंव्यवस्थेवर  टीका  होते.  चारी  वर्ण  हे  परमपुरूष  परमात्म्याचेच  अंगविशेष  आहेत.  प्रत्येक  अवयवांची  कार्यक्षेत्रे  स्वतंत्र  पण  इतर  अवयवांना  त्यांची  उद्दीष्टे  पूर्ण  करण्यास  सहाय्यक  असतात.  त्याच्यात  श्रेष्ठ    कनिष्ठ  असे  काही  असू  शकत  नाही.  त्याचप्रमाणे  वर्णांची  कार्यक्षेत्रे  स्वतंत्र  पण  इतर  वर्णांना  पूरक    पोषक  असतात,  त्याच्यातसुध्दा  श्रेष्ठ    कनिष्ठ  असे  काही  असू  शकत  नाही.  जसे  एका  अवयवाने  दुसया  अवयवाचे  कार्य  करणे  अशक्य  आहे  तसेच  वर्णांचे  आहे.  त्याचे  परिणाम  समाज  विघातक  आहेत.  मनुष्याच्या  प्रवृत्ती-गुण    कर्म  यांवरून  त्याचा  वर्ण  निश्चित  होतो.  सत्वगुणाचे  प्राबल्य  असलेल्या  व्यक्ती  स्वभावतःच  शांत,  ज्ञानाची  आवड  असणाया  असतात  म्हणून  त्यांना  ब्राह्मण  म्हणतात.  रजोगुणाचे  प्राबल्य  असलेल्या  व्यक्ती  स्वभावतःच  कार्यप्रवण  असून,  शौर्य,  साहस,  उदारता  यांची  आवड  असणाऱ्या  असतात  म्हणून  त्यांना  क्षत्रीय  म्हणतात.  तमोगुणाचे  प्राबल्य  असलेल्या  व्यक्ती  स्वभावतःच  कर्मशील  असून,  स्वाभाविक-व्यवहारी  ज्ञानाची,  शेती-वाणिज्याची  आवड  असणाऱ्या  असतात  म्हणून  त्यांना  वैश्य  म्हणतात.  तर  काही  तमोगुणाचे  प्राबल्य  असलेल्या  व्यक्ती  स्वभावतःच  आळशी,  विवेकशून्य,  अज्ञानी  असून,  स्वतः  हून  काम  करण्याची  आवड  नसणाऱ्या  असतात  म्हणून  त्यांना  शूद्र  म्हणतात.  वस्तुतः  कोणतेच  कर्म  श्रेष्ठ    कनिष्ठ  नसते.  ज्याला  ज्या  कर्माद्वारे  आपले  परमध्येयाकडे  वाटचाल  करता  येईल  ते  कर्म  त्याच्या  साठी  श्रेष्ठ  असते.  स्वामी  विवेकानंद  म्हणतात,   ब्राह्मणत्व  हा  भारतातील  मानवांचा  आदर्श  आहे.  आदर्श  पुरूष,  पूर्णत्वाप्रत  पोचलेला  पुरूष,  ब्रह्मज्ञ  पुरूष  अशा  या  ब्राह्मणाचे  समाजाला  प्रयोजन  आहेच.  म्हणूनच  भारतातील  अन्य  सर्व  जातींच्या  उध्दाराचा  प्रयत्न  करणे  हे  ब्राह्मणाचे  कर्तव्य  आहे.  ते  जोवर  हे  कर्तव्य  करीत  राहतील  तोवरच  त्यांचे  ब्राह्मणत्व;    ते  जर  अर्थसंचयाच्या  मागे  लागले  तर  त्यांचे  ब्राह्मणत्व  संपले.  ब्राह्मणेतर  जातींना  माझे  सांगणे  आहे.  ब्राह्मणांशी  कलह  करण्याची  संधी  शोधू  नका.  आध्यत्मिकता    संस्कृत  भाषेचे  शिक्षण  यांची  उपेक्षा  करण्यास  तुम्हाला  कुणी  सांगितले.  आपली  शक्ती  व्यर्थ  कलहात  वाया  घालविण्यापेक्षा  ब्राह्मणांजवळ  असलेली  संस्कृती  मिळविण्यात  कारणी  लावा  म्हणजे  तूमचा  कार्यभाग  होईल.  (स्वामी  विवेकानंद  ग्रंथावली  पृ.१६१-१६३)  आश्रम  व्यवस्थेचे  नियम  याप्रमाणे  सांगितले  आहेत.  ब्रह्मचर्याश्रमी  गुरूकुलामध्ये  राहून  छत्तीस  वर्षांपर्यंत  ब्राह्मणाने  ब्रह्मचर्य  व्रताने  वेदांचे  अध्ययन  करावे.  शरीर-मन-बुध्दि  यांच्या  शुध्दिसाठी  इंद्रियसंयमन  करून  तपाची  वृध्दि  करावी.  क्षत्रियाने  शस्त्रविद्येचे  शिक्षण  घ्यावे.  त्यानंतर  आपापल्या  वर्णाची  शुभलक्षणयुक्त  कन्येस  पत्नी  स्विकारून  गृहस्थाश्रमाची  कर्तव्ये  निष्कामतेने  करावी.  वेदांचे  अध्यापन  करावे,  पितरांचे  श्राध्द  करावे,  देवतांसाठी  हवन  करावे,  प्राणिमात्रांना  अन्नदान  करावे,  अतिथीचे  स्वागत  करावे,  गृहस्थाश्रम  इतर  तिन्ही  आश्रमवासींना  शरीरांस  आवश्यक  अन्न  पुरवून  सांभाळतो,  त्यामूळे  ते  ब्रह्मचारी,  संन्यासी,    वानप्रस्थी,  ज्ञानाची  उपासना  करू  शकतात.  नातवंडे  झाल्यावर,  त्वचेला  सुरकूत्या  पडल्यावर  वानप्रस्थ  आश्रम  स्विकारून  इंद्रिय-नियंत्रण  करून,  फलाहाराने,  अरण्यात  वृक्षछायेमध्ये  निवास  करावा,  आत्मज्ञानाचेच  ध्येय  ठेऊन  यथावकाश  देहत्याग  करावा,  मृत्युसमयी  परमात्म्याचे  चिंतनाने  मोक्ष  मिळतो.  धैर्य,  क्षमाशीलता,  विनयता,  परद्रव्याचा  निर्लोभ,  शुध्दता,  पवित्रता,  इंद्रियनिग्रह,  विवेक,  आत्मज्ञान,  सत्य,    अक्रोध  यांच्या  नित्य  आचरणाने   अंतःकरणी  शांत,  समाधानी  होउन,  सर्व  ऋणमुक्त  होउन,  संन्यास  घ्यावा.  संन्यासाश्रमी  मौनव्रताने  आत्मानंदाचा  अनुभव  घेत  रहावा.  निस्पृहतेने  नित्यकर्मे  करून  यथावकाश  देहत्याग  करावा.  असे  अनेक  बारीक  सारीक  विषय  मनुस्मृतीमध्ये  सविस्तरपणे  सांगितले  आहेत.  राजकार्य  करणाऱ्या  व्यक्तीच्या  आचरणाचा  एकंदर  समाजावर  फार  मोठा  प्रभाव  पडत  असल्याने  त्याबाबतीत  सविस्तर  नियम  सांगितले  आहेत.  आजच्या  स्थितीतही  त्यातील  कित्येक  अतिशय  आवश्यक  वाटतात.  ज्या  क्षत्रियाचे  मौजीबंधन  झाले  तो  राजा  असावा.  तो  प्रजेला  दिपवून  टाकणारा  असावा.  परंतू  त्याने  प्रजेशी  पित्याप्रमाणे  वागावे.  तो  सत्याचा  पक्षपाती  सारासार  विचार  करणारा,  बुध्दिमान,  धर्म-अर्थ-काम  यांचे  स्वरूप    मर्यादा  जाणणारा  असावा.  त्याने  प्रजेचे  रक्षण    पालन  धर्मशास्त्राप्रमाणे  करावे;  तर  त्याला  प्रजेने  केलेल्या  धर्माचा  सहावा  भाग  पुण्यरूपाने  मिळतो,  अन्यथा  अधर्माचा  सहावा  भाग  पापरूपाने  मिळतो,  राजा  म्हणजेच  शासनकर्त्याचा  सन्मान  सांगून  प्रचंड  जबाबदारी  सांगितली  आहे.  हा  राजा  साक्षात  दण्डपुरूष  आहे.  तो  समाजाला  योग्य  मार्गाने  नेणारा  त्यांचे  शासन  करणारा  आहे.  सर्व  वर्णाश्रमांचे  धर्म  याच्याच  आश्रयाने  चालत  असल्याने  तो  त्या  सर्वांचा  आधारस्तंभ  आहे.  त्या  राजदण्डाचा  उपयोग  विवेकाने  केल्यास  प्रजा  संतुष्ट  होऊन  राजाची  भरभराट  होते,  परंतू  त्याचा  उपयोग  अविवेकाने  केल्यास  प्रजा  असंतुष्ट  होऊन  राजाचा  विनाश  होतो.  परकीय  शत्रूंपासून  संरक्षण,  व्यवस्थापन,  त्यासाठी  आधिकारी-निवड,  कर  योजना,  न्यायव्यवस्था,  सैन्यामध्ये  धैर्यता,  कर्जवसूली,  साक्ष,  सीमावाद  निर्णय,  इत्यादी  अनेक  बारीक-सारीक  गोष्टी  चे  नियमांसाठी  मनुस्मृतीमध्ये  सातवा    आठवा  असे  दोन  अध्याय  केलेले  आहेत.  छत्रपती  शिवाजी  महाराजांनी  आपल्या  राज्यकारभारामध्ये  मनुस्मृतीतील  तत्त्वज्ञान  प्रत्यक्ष  आचरणात  आणलेले  दिसून  येते.  मनुस्मृतीमध्ये  स्त्रियांवर  अन्याय  केला,  त्यांना  पुरूषाच्या  दासत्वात  ठेवले,  त्यांना  शिक्षणापासून  वंचित  ठेवले,  इत्यादी  टीका  केली  जाते.  तथापि  नीट  साकल्याने  अध्ययन  केल्यास  हा  गैरसमज  तर  दूर  होईलच;  शिवाय  स्त्रि    पुरूष  या  समाजाच्या  दोन्ही  बाजू  परस्पर-सहकार्याने,  परस्परांच्या  उणीवा  भरून  काढून,  दोघांचीही  उन्नती  कशी  होईल  याचे  नियम  थकीत  करण्यासारखे  आहेत  असे  नक्कीच  लक्षात  येते.  स्त्रि    पुरूष  या  दोघांचेही  अंतिम  उद्दिष्ट  एकच  मुक्तिलाभ  असले  तरी  याचा  अर्थ  स्त्रिने  सर्व  बाबतीत  पुरूषांचे  अनुकरण  केले  पाहिजे  असा  नाही.  स्त्रि    पुरूष  यांच्यात  शारिरीक  दृष्टीने    मानसिक  दृष्टीने  पार्थक्य  आहे;  दोघांची  शक्ती  एकमेकाहून  अगदी  भिन्न  प्रकारची  आहे,  त्याच्या  उणीवाही  भिन्न  आहेत.  योग्य  प्रकारे  दोघांची  शक्ती  एकत्र  आणली  तर  एकजण  दूसऱ्याची  उणीव  भरून  काढू  शकतो.  स्त्रीचा  मेंदू  पुरूषाच्या  मेंदू  पेक्षा  आकाराने  लहान  असतो.  स्त्रीची  श्वसनक्रिया  छातीच्या  हालचालीने  आधिक  होते.  तर  पुरूषाची  श्वसनक्रिया  पोटाच्या  हालचालीने  आधिक  होते.  तसेच  स्त्रीयांचे  स्नायू    पुरूषापेक्षा  कमजोर  असतात.  अशा  प्रकारे  स्त्रि    पुरूष  यांच्यात  शारिरीक  दृष्टीने  फरक  आहे  हे  आजच्या  विज्ञानाने  सिध्द  झाले  आहे.  स्त्रीयांच्या  कल्याणाचे  नियम  सांगितले  आहेत.  स्त्रीयांचे  नाव  उच्चारण्यास  सुखावह,  मंगलमय    दीर्घवर्णान्तकी  असावे.  स्त्रियांना  कोणत्याही  विषयांची  ओढ  स्वभावतःच  आधिक  असते  म्हणून  त्यांचे  संयमन  करण्यासाठी  त्यांना  धनाची  आय-व्यय  व्यवस्था  पहाणे,  गृहीणीधर्माचे  पालन  करणे,  यामध्ये  गुंतवून  ठेवावे.  येथे  मुळ  स्वभावाचा  कीती  खोलवर  विचार  केला  आहे  हेच  दिसून  येते.  घरातील  दोन  व्यक्तींपैकी  एक  व्यक्ती,  म्हणजे  पुरूष  घराबाहेरील  कामे  करीत  असेल  तर  दुसऱ्या  व्यक्तीने,  म्हणजे  स्त्रीने  घर  सांभाळण्यासाठी  पुढे  आलेच  पाहिजे.  यात  चूक  काहीच  नाही.  चूक  आहे  दृष्टिकोनामध्ये.  तो  केवळ  पाश्चात्य  संस्कृतीचा  प्रभाव  आहे.  आपले  कल्याण  व्हावे  असे  वाटणाऱ्या  पित्यांनी,  भावांनी,  पतींनी,    पुत्रांनी  स्त्रियांना  पूजनीय  मानावे.  जेथे  स्त्रियांची  पूजा  होते  तेथे  सुख-शांती   समृध्दि  असते;  तर  जेथे  स्त्रियांची  पूजा  होत  नाही  तेथे  कष्ट-दारिद्र्य    संताप  असतो.  कौमारवयात  पिता,  यौवनात  पति,    वृध्दावस्थेत  पुत्र  हे  स्त्रिचे  रक्षक  असतात.  त्यांनीच  ही  जबाबदारी  आपल्यावर  घेतली  पाहिजे  कारण  स्त्री  ही  स्वतःचे  रक्षण  करण्यास  योग्य  वा  समर्थ  नसते  म्हणूनच  तारूण्यात  कन्यादान    करणारा  पिता,  यौवनात  रंजन    करणारा  पती,    वार्धक्यात  काळजी    घेणारा  पुत्र  हे  निंदनीय  आहेत.  उपाध्यायापेक्षा  दहापट  आचार्य,  आचार्यापेक्षा  शंभरपट  पिता,  आणि  पित्यापेक्षा  सहस्त्रपट  माता  गौरवास्पद  आहे.  अशा  रितीने  मनुस्मृतीमध्ये  नवव्या  अध्यायात  स्त्रियांचा  गौरव  केला  आहे.
अशा  रितीने  मनुस्मृतीचा  आज  काही  उपयोग  आहे  हे  मान्य  करावेच  लागेल.  आज  देखील  हिंदू  कायद्यामध्ये  मनुस्मृतीतील  नियम  आधारभूत  धरलेले  दिसतात.  मनुस्मृती  हा  ग्रंथ  धर्म  नीती  राज्यशास्त्र    न्यायसंस्था  या  वेगवेगळ्या  विषयांवरील  एक  विश्वकोषच  आहे.  म्हणून  मनुस्मृतीतील  तत्त्वज्ञानाचा  आजच्या  काळामध्ये  जो  काही  उपयोग  करून  घेता  येईल  तेव्हढा  करून  घ्यावा  यात  कमीपणा  मानायचे  कारण  नाही.  ज्या  तत्त्वज्ञानाच्या  आधाराने  आपला  उध्दार  होत  असेल  तर  ते  जाणून  आपले  कल्याण  जरूर  साधावे.

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