Sunday, 26 November 2017

मध्यमवर्गीयांची पराधीनता




आज  आपल्या  देशामधील  समाज  साधारणपणे  तीन  वर्गांमध्ये  विभागलेला  आहे.  सुमारे  ३०%   समाज  हा  गरीब  आहे.  त्यांना  उत्पन्न  मिळविण्याची  संघी  मिळालेली  नाही.  भटके,  आदिवासी  या  वर्गामध्ये  येतात.  त्यांना  जीवनाच्या  अन्न,  वस्त्र,  निवारा  या  अत्यावश्यक  गरजा  सुध्दा  भागविता  येत   नाहीत.  त्यानंतर  सुमारे  ६०%  समाज  हा  मध्यमवर्गातला  आहे.  या  वर्गातील  समाजास   जीवनाच्या  आवश्यक  गरजा  भागविता  येतात.  साधारणपणे  नोकरदार  या  वर्गामध्ये  येतात.  तर  सुमारे  १०%  समाज  हा  श्रीमंत  आहे.  साधारणपणे  मालक,  उद्योगपती,  कारखानदार,  राजकीय  पुढारी  या  वर्गामध्ये  येतात.  या  वर्गातील  समाजामध्ये  अमाप  धनसंपत्ती  आहे.  अशा  प्रकारे  मध्यमवर्गा  तील  समाज  आपल्या  देशामध्ये  सर्वाधिक  प्रमाणामध्ये   आहे.  म्हणून  त्या  वर्गानेच  भारतिय  अर्थव्यवस्थेचे  नेतृत्व  करणे  आवश्यक  आहे.
परंतू  आज  चित्र  विपरीत  दिसते  आहे.  आज  मध्यमवर्गीयांवर  गरीब    श्रीमंत  माणसे  राज्य  करीत  आहेत.  राजकीय  पुढारी  कळसूत्रीच्या  बाहुल्यां  प्रमाणे  या  गरीब    श्रीमंतांच्या  तालावर  नाचत  असतात.  तर  एकूण  कारभाराचा  बोजा  मध्यमवर्गीयांच्या  माने  वर  लादला  गेलेला  दिसून  येतो.  गरीब  माणसांसाठी  सर्व  सुविधा  सरकारकडून  मोफत  पुरविल्या  जातात  तर  श्रीमंतांच्या  इशाऱ्या  प्रमाणे  सर्व  राजकीय  धोरणे  बनविली  जातात.  त्यांची  अंमलबजावणी  मात्र  निमुटपणे  मध्यमवर्गीय  माणसे  करीत  असतात.
ही  परिस्थिती  बदलण्यासाठी  मध्यमवर्गीयांनी  सखोल  चिंतन  केले  पाहिजे.  त्यांनी  संघटीत  झाले  पाहिजे.  महागाई, प्राप्तीकर,  दंगलीमुळे  नुकसान,  बेकारी  इत्यादी  अनेक  विषयांवर  मध्यमवर्गातील  मनुष्य  नाहक  झोडपला  जातो.
श्रीमंतांना  महागाईची  झळ  पोहोचत  नाही  कारण  त्यांच्याकडे  उदंड  पैसा  असतो.  जसे  विहीरीतून  कळशीभर  पाणी  काढले  तरी  विहीरीतल्या  पाण्याची  पातळी  खाली  येत  नाही.  तर  गरीबांना  सरकार  वस्तु  मोफत  पुरवित  असते.  त्यामुळे  महागाईची  झळ  गरीबांना  नाही.  परंतू  ठराविक  उत्पन्नामध्ये  मध्यमवर्गीयांना  गरजेच्या  वस्तुं  साठी  दिवस  रात्र  कष्ट  करावे  लागतात.
प्राप्तीकराचा  ही  बोजा  मध्यमवर्गीयांनाच  प्रामुख्याने  उचलावा  लागतो.  कारण  प्राप्तीकर  कायद्यातील  पळवाटा  शोधून  श्रीमंत  मनुष्य  निवांपणे  चूकवित  असतो.  हे  प्राप्तीकराचे  कायदे  श्रीमंतांच्या  फायद्याचे  करवून  घेतात.  हे  विचार  केल्यावर  समजते.  परंतू  मध्यमवर्गीयांना  विचार  करायला  वेळ  नाही.  त्याला  पैसा  कसा  मिळवायचा  याचीच  चिंता  दिवस  रात्र  छळत  असते.  आणि  नोकरीतून  काही  उत्पन्न  आले  तर  ते  प्राप्तीकर  कापूनच  मिळते.  तर  गरीबांना  प्राप्तीकराचा  प्रश्नच  नाही  कारण  त्यांचे  उत्पन्नच  नाही.
नैसर्गिक  आपत्ती,  आणि  आंदोलने,  कोट्यावधींचा  भ्रष्टाचार,  आतंगवादातील  नुकसान    दंगलीमुळे  नुकसान  याचा  फटका  मध्यमवर्गीयांनाच  जोराचा  बसतो.  या  सर्व  प्रकारामध्ये  राष्ट्रीय  संपत्तीचे  मोठ्या  प्रमाणावर  नकसान  होते.  त्यामुळे  साहजिकच  महागाई  वाढते.  महागाईची  झळ  मध्यमवर्गीयांनाच  पचवावी  लागते.  कोट्यावधींच्या  भ्रष्टाचारामध्ये  एखाद्या  मध्यमवर्गातील  निर्दो  मनुष्याच  बळीचा  बकरा  बनविण्यात  येतो.  आज  पैसा  देऊन  सर्वोच्च  न्यायालयातील  निर्णय  बदलविण्यचे  प्रकार  चाललेले  वर्तमान  पत्रांमधून  प्रसिध्द  होत  आहेच.
एकंदरीत  विचार  करताना  असे  लक्षात  येते  की  आज  आपल्या  देशामध्ये  मध्यमवर्गीयांचेच  मनुष्यबळ    वेळ  वापरून  श्रीमंत  आधीक  श्रीमंत  होत  चालले  आहेत.

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