Friday, 6 October 2017

युधिष्ठिराचा राजसूय यज्ञ



युधिष्ठिराचा  राजसूय  यज्ञ
एकदा देवर्षि नारद स्वर्गातून युधिष्ठिराच्या राजमहालामध्ये आले. तेव्हा त्यांनी युधिष्ठिरास पांडुमहाराजांचा  संदेश  सांगितला कि,  युधिष्ठिरा, तू  समस्त  पृथ्वीचे  राज्य  करण्यास  समर्थ  आहेस.  तू  राजसूय  यज्ञ  कर. नारदमुनींनी सुध्दा युधिष्ठिरास आशीर्वाद  दिला.  राजन,  तूझा  अभ्युदय  होवो.  तूझ्या  पित्याचा  संकल्प  पुर्ण  कर. तू  आनंदीत  राहो.  धनदान  करून  ब्राह्मणास  तृप्त  कर.  त्यानंतर  युधिष्ठिराने  आपल्या  भावंडांसमवेत  राजसूय  यज्ञाविषयी  विचार  केला.
युधिष्ठिर  सर्व  धर्मात्मांमध्ये  श्रेष्ठ  होते.  ते  सर्व  प्रेजेचे  पित्यासमान  पोषण  करत  असत.  ते  अजातशत्रु  म्हणून  प्रसिध्द  होते.  युधिष्ठिर  सर्वांशी  आपूलकीने  वागत  असत.  भीम  सर्वांचे  रक्षण  करीत  असत.  अर्जुन  शत्रुचा  संहार  करीत  असत.  सहदेव  सर्वास  धर्माचरणाचा  उपदेश  करीत  असत.  नकुल  सर्वांची  विनम्रतेने  सेवा  करीत  असत.  राजा  युधिष्ठिराची  ख्याति  सर्वत्र  पसरलेली होती.  युधिष्ठिराने  आपल्या  मंत्र्यांना  राजसूय  यज्ञाची  संमती  मागितली.  तेव्हा  सर्व  मंत्रीगणांनी एकमुखाने संमती देत स्तुति केली--महाराज,  राजसूय  यज्ञाच्या  अभिषेकाने  राजास  वरूणलोक  प्राप्त  होतो.  म्हणून  सम्राट  राजसूय  यज्ञाचे  आयोजन  करतो.  आपण  सम्राटासमान  सद्गुणी  असून  पराक्रमी    प्रजावत्सल  आहात.  म्हणून  आम्ही  सर्वजण  आपले  हितचिंतक  आपल्या  राजसूय  यज्ञाच्या  अनुष्ठानाचे  स्वागत  करीत  आहोत.  आपण राजसूय  यज्ञाच्या  अनुष्ठानासाठी  समर्थ  आहात.  ऋषी-मुनींनी सुध्दा युधिष्ठिरास आशीर्वाद  दिले.--धर्मज्ञ,  आपण  राजसूय  यज्ञ  करण्यासाठी  सर्वथा  योग्य  आहात.  त्यानंतर  युधिष्ठिर  भगवान  श्रीकृष्णास  शरण  जाऊन  राजसूय  यज्ञाच्या  अनुष्ठानासाठी  अनुमती  मागितली--श्रीकृष्ण,  मी  राजसूय  यज्ञ  करण्याचा  विचार  करीत  आहे.  परंतू  माझ्या  एकट्याच्या  विचाराने  तो  पूर्ण  होऊ  शकत  नाही.  तो  कोणत्या  उपायाने  होऊ  शकतो  हे  आपणास  माहित  आहे.  माझे  सर्व  हितचिंतक  राजसूय  यज्ञ  करावा  असे  म्हणत  आहेत,  परंतू  या  महान  कार्यासाठी  अंतिम  निश्चय  तर  आपल्याच  संमतीनेच  होणार  आहे.  मला  काय  कल्याणकारी  आहे  ते  सांगावे. तेव्हा श्रीकृष्ण म्हणाले--महाराज,  आपण  धर्माचरण  करीत  असल्याने  आपण  राजसूय  यज्ञ  करण्यासाठी  सर्वथा  योग्य  आहात.  समस्त राजे-महाराजे आपले हितचिंतक आहेत. महाराज,  साम्राज्य  प्राप्ती  साठी  जे  पाच  गुण  आवश्यक  आहेत(शत्रुविजय,  प्रापालन,  तपःशक्ति,  धन-समृध्दी,  उत्तमनीति)ते  सर्व  गुण  आपल्यामध्ये  विद्यमान  आहेत.  तेव्हा महाराज युधिष्ठिर म्हणतात-- श्रीकृष्णा,  आपण  तर  आमचे  स्वामी  आहात.  रक्षक  आहात.  आम्ही  आपणास  शरण  आहोत.  आपण  जसे  ठरविले  आहे  तसे  करावे.  आपल्या  निर्णयाने  माझा  आत्मविश्वास  वाढलेला  आहे.  या  महान  कार्यासाठी  आपला  आश्रय  आम्हास  अत्यंत  आवश्यक  आहे.  अर्जुन  तूझे  अनुकरण  करील  आणि  भीम  अर्जुनाचे  अनुकरण  करील.  नीति,    बल,  यामुळे  पराक्रम  केल्याने    विजय  प्राप्त  होईल.
यानंतर  एकदा तेथे  भगवान  व्यास  आले--कुंतीनंदन,  मी  तुम्हास  वारंवार  आशीर्वाद  देत  आहे.  युधिष्ठिरास  सर्व  काही  प्राप्त  होईल,  तो  सार्वभौम  सम्राटाच्या  पदावर  प्रतिष्ठित  होईल.  राजसूय  यज्ञ  पुर्ण  करील.  अर्जुना  तू  उत्तर  दिशेकडे  देवतांना  जिंकून  ये.  भीमा,  पूर्वदिशेला  तू  दिग्विजय  करून  ये.  सहदेवा,  तू  दक्षिणेला  दिग्विजय  करून  ये.  तर  नकुला  तू  पश्चिमेला दिग्विजय  करून  ये.  पांडवांनी  व्यासांच्या  आज्ञेचे  पालन  केले.
अशा  रितीने  चारी  दिशांना  दिग्विजय  प्राप्त  करून  अर्जुन,  भीम,  नकुल,    सहदेव  यांनी  अमाप  संपत्ती  राजसूय  यज्ञासाठी  युधिष्ठिरास  समर्पित  केली.  राजा  प्रजेचे  पालन  पित्याप्रमाणे  करून  सगळीकडे  युधिष्ठिराचे  कौतुक,  अभिनंदन    ख्याती  पसरली  होती.  राजा  कोणाचाही  द्वेष  करीत  नसे.  म्हणून  त्यास  अजातशत्रु  म्हणत.  धर्माचरणाने  राज्यशासन  करीत.  धर्मपुर्वक  मार्गाने  आलेल्या  संपत्तीने  राजकोष  (अमाप)इतका  वाढला  कि,  शेकडो  वर्षांपर्यंत  मुक्त  हस्ताने  दानधर्म  केला  तरी  तो  राजकोष  संपणारा  नव्हता.  असा  अमाप  राजकोष  पाहून  युधिष्ठिराने  राजसूय  यज्ञा  निश्चय  केला.  तेव्हा  भगवान  श्रीकृष्ण  तेथे  आले.  सर्व  प्रजेला  आनंद  जाला.  युधिष्ठिर--श्रीकृष्णा,  आपल्या  कृपेने  आपल्या  सेवे  साठी  संपूर्ण  पृथ्वी  मला  अधीन  झालेली  आहे.  धन-संपत्ती  अमाप  प्राप्त  झालेली  आहे  ती  मी  विधीपुर्वक  श्रेष्ठ  ब्राह्मणांना  तसेच  यज्ञासाठी  सत्कारणी  लावेन.  आता  मी  आपल्या  सहित  भावंडाबरोबर  राजसूय  करण्याचा  विचार  करीत  आहे.  आपण  मला  आज्ञा  करावी.  हे  गोविंदा,  आपण  स्वतः  यज्ञाची  दीक्षा  ग्रहण  करावी  आपल्या  आशीर्वादाने  मी  पापमुक्त  होईन.  श्रीकृष्ण--महाराज,  आपणच  सम्राट  होण्यास  सर्वसमर्थ  आहात. आपणच  या  महान  राजसूय  यज्ञाची  दीक्षा  ग्रहण  करावी.  त्यामुळे  आम्ही  कृतकत्य  होऊ.  आपण  या  यज्ञाचा  प्रारंभ  करावा.  मला  आपली  सेवा  करण्याची  संधी  द्यावी.  युधिष्ठिर--श्रीकृष्णा,  आपल्या  कृपेने  आज  माझा  संकल्प  पूर्ण  होत  आहे.  भगवान  व्यास,  याज्ञवल्क्य, धौम्य,  इत्यादी  अनेक  ऋषी  आले.  धर्मराज  युधिष्ठिराने  एक  लाख  गाईंचे  दान  केले.  तसेच  एक  लाख  सुवर्णमुद्रांचे  दान  केले.  धर्मराज  युधिष्ठिराने  हस्तिनापूरवासी  भीष्म,  द्रोणाचार्य,  धृतराष्ट्र,  विदुर,  कृपाचार्य,  दुर्योधन,  कौरव  इत्यांदींना  आमंत्रित  केले.
भीष्माचार्य,  धृतराष्ट्र,  विदुर,  द्रोणाचार्य,  कृपाचार्य  इत्यादींचे आगमन झाल्यावर त्यांना  युधिष्ठिराने  वाकून  नमस्कार  केला--या  यज्ञासाठी  माझ्यावर  अनुग्रह  करावा. सर्वांनी आशिर्वाद दिले.
महान  राजसूय  यज्ञाच्या व्यवस्थेची  यथायोग्य  विभागणी  केली.  भोजन  सामुग्री  चे  काम  दुःशासनाकडे,  ब्राह्मणांचा  आदर-सत्कार  अश्वत्थामाकडे,  राजांची  सेवा  संजयकडे,  कोणते  काम  कधी  करायचे  याचे  नियोजन  भीष्माचार्याकडे,  ब्राह्मणांच्या  दक्षिणेचे  काम  कृपाचार्य,  धनाच्या  खर्चाचा  व्यवहार  विदुर,  राजांकडून  आलेल्या  भेटी  स्विकारण्याचे  काम  दुर्योधन,  ब्राह्मणांच्या  पाद्यपूजेचे  कार्य  श्रीकृष्णाकडे  इत्यादी.
युधिष्ठिराच्या  यज्ञभवनामध्ये  अनेक राजर्षी,  ब्रह्मर्षी  तसेच  देवर्षी  नारद  आले.  नारद--सर्वव्यापक  साक्षात  भगवान  नारायणानेच  आपली  प्रतिज्ञा  पुर्ण  करण्यासाठी  क्षत्रियकुळातील  यदुवंशामध्ये  अवतार  घेतलेला  आहे.  तेच  श्रीहरि  मनुष्यरूपामध्ये  येथे  श्रीकृष्णाच्या  रूपामध्ये  बसलेले  आहेत.  युधिष्ठिराने  भीष्माचार्यांना  विचारले  अग्रपूजा  कोणाची  करू.  भीष्माचार्य--कुंतीनंदन,  सर्व  राजांच्यामध्ये   हे  भगवान  श्रीकृष्ण  आपल्या  तेज,  बल,  पराक्रमाने  तेजस्वी  झालेले  आहेत,  जसे  नक्षत्रांमध्ये  सूर्य  दिसतो.  भगवान  श्रीकृष्णामुळे  ही  सभा  आल्हादित    प्रकाशमान  झालेली  आहे.  म्हणून  भगवान  श्रीकृष्णाची  अग्रपूजा  करावी.  तेव्हा  शिशुपालास  ते  पटले  नाही.
भीष्माचार्य--राजन,  भगवान  श्रीकृष्ण  संपूर्ण  सृष्टीचे  स्वामी  आहेत.  परम  पूजनीय  आहेत.  ज्यांना  त्यांची  अग्रपूजा  स्विकारायची  नसेल  त्यांची  पर्वा  करण्याचे  कारण  नाही.  त्यांना  समजाऊन  सांगणे  सुध्दा  उचित  नाही.  जो  श्रेष्ठ  क्षत्रिय  युध्दामध्ये  जिंकून  शरण  आलेल्यास  जीवनदान  देतो,  त्या  पराजितास  तो  जो  श्रेष्ठ  क्षत्रिय  गुरुसमान  पूजनीय  आहे.  या  सभेमध्ये  सर्व  राजांना  भगवान  श्रीकृष्णाने  कधी  ना  कधी  तरी  परास्त  केलेले  आहे.  भगवान  श्रीकृष्ण  फक्त  आम्हास  नव्हे  तर  तीन्ही  लोकांमध्ये  पूजनीय  आहेत.  मी  ज्ञानवृध्द  महात्म्यांचा  सत्संग  केलेला  आहे,  प्रत्येकाने  भगवान  श्रीकृष्णाचे  संकिर्तन  केलेले  आहे.  आम्ही  कोणत्याही  स्वार्थ  बुध्दीने  भगवान  श्रीकृष्णाची  पुजा  करीत  नाही,  तर  मोठमोठ्या  राजर्षी,  ब्रह्मर्षींनी  भगवान  श्रीकृष्णाची  पुजा  केलेली  आहे.  आम्ही  भगवान  श्रीकृष्णाचे  यश,  शौर्य,  विजय   हे  प्रत्यक्ष  जाणतो  म्हणून  भगवान  श्रीकृष्णाची  पुजा  केलेली  आहे.  दान,  दक्षता,  शास्त्रज्ञान,  शौर्य,  लाज,  कीर्ती,  विवेकबुध्दी,  विनम्रता,  श्री,  धृति,  तुष्टि,    पुष्टि  हे  सर्व  गुण  भगवान  श्रीकृष्णामध्ये  नित्य  विद्यमान  आहेत.  जो  सर्वगुणसंपन्न  आहे,  त्यांची  आम्ही  पुजा  केलेली  आहे.  आम्हास  सर्व  राजांनी  क्षमा  करावी.  श्रीकृष्ण  आमचे  ऋत्विक,  गुरु,  आचार्य,  राज,  प्रिय  मित्र,  तसेच  सर्व  काही  आहेत  म्हणून  त्यांची  आम्ही  पुजा  केलेली  आहे.  भगवान  श्रीकृष्ण  या  सृष्टीचे  निर्माणकर्ता,  पालक    संहारकर्ता  आहेत. 
त्या नंतर  भीष्माचार्यांनी   शिशूपालाच्या  जन्माची  कथा  सांगितली.  दमघोषाच्या  कुळामध्ये  जेव्हा  हा  जन्मला  तेव्हा  त्याला  तीन  डोळे    चार  हात  होते.  जन्मतःच  हा  गाढवासमान  ओरडू  लागला.  तेव्हा  याचे  माता  पिता    सर्वजण  घाबरून  गेले.  हे  भयंकर  रूप  पाहून  त्याचा  त्याग  करण्याचा  विचार  करू  लागले.  तेव्हा  अदृश्य  भूत  वाणी--आत्ता  याचा  त्याग  करू  नका.  याचा  वध  अवश्य  होईल,  ज्याच्या  माडीवर  बसल्यानंतर  याचे  चार  पैकी  दोन  हात  गळून  पडतील    तिसरा  डोळा  कपाळामध्ये  गुप्त  होईल(तोच  याचा  वध  करील)  त्याला  पहाण्यासाठी  तेव्हा  अनेकजण  आले.  प्रत्येकाच्या  मांडीवर  त्याला  दिले.  परंतू  मृत्युसूचक  लक्षण  कोणाच्या  ही  ठिकाणी  दिसले  नाही.  द्वारकेतून  श्रीकृष्ण    बलराम  आपल्या  आत्येला(श्रुतश्रवा) म्हणजेच याच्या आईला भेटावयास  आले.  दमघोष  राजा    श्रुतश्रवाने  प्रेमाने  दोघांचे  स्वागत  केले.  श्रुतश्रवाने  स्वतःच  आपल्या  बालकास(शिशूपालास)  श्रीकृष्ण  मांडीवर  ठेवले.  तात्काळ  याचे(शिशूपालाचे)  चार  पैकी  दोन  हात  गळून  पडले    तिसरा  डोळा  कपाळामध्ये  गुप्त  झाला.  तेव्हा  माता  घाबरली    शिशूपालाच्या  जीवनदानासाठी  श्रीकृष्णाकडे  वर  याचना  करू  लागली.  तेव्हा  श्रीकृष्णाने  मातेला  धीर  दिला.  श्रीकृष्णाने  वर  दिला--हे  देवी,  तूझ्या  पुत्राचे  शंभर  अपराध  मी  सहन  करेन.  तू  शोक  करू  नकोस. 
श्रीकृष्णाने  दिलेल्या  वरदानाने  उन्मत्त झालेला आहे. या  शिशूपालाची  बुध्दी  काळानेच  भ्रमित  केलेली  आहे,  कारण  श्रीकृष्णाविषयी,  माझ्याविषयी    तूझ्याविषयी  अभद्र  बोलायची  ताकद  या  पृथ्वीतलावर  कोणाचीही  नाही.
तेव्हा  भगवान  श्रीकृष्ण  मधुर  वाणीने--हे  राजांनो,  हा  यदुकुलातील  कन्येचा  पुत्र  आहे.  परंतू  आमचा  द्वेष  करतो.  यादवांनी  याचा  कोणताच  अपराध  केलेला  नाही  तरी  ही  यांदवांचा  तिरस्कार  करतो.  मी  प्राग्ज्योतिषपूरामध्ये  गेलो  होतो,  तेव्हा  याने  द्वारकेला  आग  लावली.  एकदा  उग्रसेन  राजा  रैवतक  पर्वतावर  सेवकांसह  गेले  असताना  सेवकांना  याने  विनाकारण  मारले.  माझ्या  पिताच्या  अश्वमेध  यज्ञामध्ये  विघ्न  करण्यासाठी  घोडा  पळविला.  याने  तपस्वी  बभ्रुच्या  पत्नीचे  जबरदस्तीने  अपहरण  केले.  याने  तपस्वी  भद्रा  राजकन्येचे  जबरदस्तीने  वेषांतर  करून  अपहरण  केले.  मी  आपल्या  आत्येसाठी  याचे  अनेक  मोठे  अपराध  सहन  करीत  आहे. आज  अहंकाराने  तूम्हा  राजांसमोर  माझा  जो  अपमान  केलेला  आहे  तो  मी  कधीच  सहन  करणार  नाही.  आता  हा  मृत्युलाच  बोलावत  आहे.  या  मूर्खाने  रूक्मिणीसाठी  रूक्मीकडे  याचना  केली  होती,  परंतू  जसे  शूद्रांना  वेद  श्रवणाचा  अधिकार  नाही  तसे  या  अज्ञानी  पामरास  ती  प्राप्त  झाली  नाही.  (श्रीकृष्णाने  सुदर्शन  चक्राचे  आवाहन  केले)  येथे  बसलेल्या  सर्वा  राजांनो  ऐका,  याचे  मी  आत्तापर्यंतचे  सर्व  अपराध  सहन  केले  याचे  कारण  मी  याच्या  मातेला  वर  दिला  होता.  तूझ्या  पुत्राचे  शंभर  अपराध  मी  सहन  करेन.  याचे  शंभर  अपराध  पूर्ण  झालेले  असल्याने  आता  मी  आपणां  समक्ष  वध  करीत  आहे.  श्रीकृष्णाने  आपल्या  सुदर्शन  चक्राने  शिशूपालाचे  मस्तक  कापले.  शिशूपालाचा  मृत्यु  झाल्यानंतर  त्याच्या  शरीरातून  एक  दिव्य  तेज  बाहेर  येऊन  श्रीकृष्णास  वंदन  केले    श्रीकृष्णामध्ये  समाविष्ट  झाले.  सर्व  राजांनी  श्रीकृष्णाची  स्तुती  केली.  युधिष्ठिरच्या  राजसूय  यज्ञातील  एक  विघ्न  संपले. 
यज्ञास  प्रारंभ  झाला.  ब्राह्मण,  अतिथी  राजे  महाराजे,  ऋषी-मुनी  ब्रह्मर्षी,  राजर्षी  इत्यादी  सर्वांसाठी  भोजन,  निवास,  विश्रांती  कक्ष  इत्यादींची  सुंदर  व्यवस्था  करण्यात  आलेली  होती.  भोजन  करणाऱ्या  ब्राह्मणांची  संख्या  एक  लाख  झाली  कि  शंखध्वनी  होत  असे.  असे  शंखध्वनी  दिवसामध्ये  अनेक  वेळा  होत  असत.  तो  शंखनाद  ऐकल्यानंतर  लोकांना  आश्चर्य  वाटत  असे.  ते  सर्व  ब्राह्मण  भोजनानंतर  आनंद,  तृप्ती    प्रसन्नतेचा  अनुभव  करीत  असत.  व्यास,  धौम्य  आणि  इतर  सोळा  ऋत्विज  असून  शास्त्रीय  विधीनुसार  मंत्रजागर  करीत  होते.  तर  समस्त  याजक  यज्ञामध्ये  आहुति  देत  होते.  धर्मराज  युधिष्ठिर  यज्ञ  प्रसंगी  सुवर्ण    वस्त्रदान  करीत  होते.  धर्मराज  युधिष्ठिराने  व्यास,  धौम्य,  देवर्षी  नारद,  सुंन्तु,  जैमिनी,  पैल,  वैशंपायन,  याज्ञवल्क्य,  कलाप  इत्यादींचा  सत्कार    पूजन  केले. 
युधिष्ठिर--हे  महर्षिंनो,  तूमच्या  प्रभावाने  माझा  हा  राजसूय  यज्ञ  सांगोपांग  संपन्न  झाला.  भगवान  श्रीकृष्णाच्या  कृपेने  माझे  मनोरथ  पुर्ण  झाले.  यज्ञ  समाप्ती  नंतर  धर्मराज  युधिष्ठिराने  भगवान  श्रीकृष्ण,  बलराम,  भीष्म  यांचे  पूजन  केले.  भगवान  श्रीकृष्णाने  सुरवातीपासून  शेवट  पर्यंत  राजसूय  यज्ञाचे  रक्षण  केले.  यज्ञ  समाप्ती  नंतर  राजे  महाराजे--हे  धर्मराज  आपला  अभ्यदय  होत  आहे,  ही  मोठी  भाग्याची  गोष्ट  आहे.  आपण  सम्राट  पद  प्राप्त  केले.  आपण  या  यज्ञाद्वारे  क्षत्रियाच्या  यशाचा  विस्तार  केला,  आमची  येथे  अत्यंत  सुंदर  व्यवस्था  केली  होती.  आता  आम्हास  परत  जाण्याची  अनुमती  मिळावी.  तेव्हा  सर्व  राजांचा  धर्मराज  युधिष्ठिराने  यथायोग्य  सत्कार  केला.  त्या  नंतर  श्रीकष्ण  द्वरकेला  जाण्यास  निघाले.  धर्मराज  युधिष्ठिर,  कुंतीदेवी,  इतर  पांडव,  द्रौपदी,  सुभद्रा  या  सर्वांना  भेटून  गेले.  तेव्हा  श्रीकष्ण--हे  राजन,  आपण  नेहमी  सावध  राहून  प्रेजेचे  पालन  करावे.  जसे  सर्व  प्राणी  ढगांना,  पक्षी  वृक्षांना,  सर्व  देवता  इंद्रास  आपल्या  जीवनाचा  आधार  मानून  त्याचा  आश्रय  घेतात,  तसेच  तूझे  बांधव  जीवन  निर्वाहासाठी  तूझा  आश्रय  घेवोत.  दुर्योधन    शकुनि  हे  दोघे  त्या  सभाभवनामध्येच  राहिले.
भगवान  व्यासांनी  युधिष्ठिराचा  निरोप  घेताना--मोठी  भाग्याची  गोष्ट  आहे  तू  परम  दुर्लभ  सम्राटाचे  पद  प्राप्त  करून  राज्याची  समृध्दी  करीत  आहेस.  मी  आता  जाण्याची  अनुमती  साठी  आलो  आहे.  युधिष्ठिर--भगवन,  नारदमुनींनी  स्वर्ग,  अंतरिक्ष    पृथ्वीवरच्या  तीन  उत्पातांविषयी   सांगितले  होते.  शिशूपालाच्या  वधानंतर  ते  उत्पात  संपले  का.  व्यास--राजन,  हे  उत्पातांचा  कालावधी  तेरा  वर्षांपर्यत  असतो.  आता  जो  उत्पात  होईल,  त्यामध्ये  समस्त  क्षत्रियांचा  विनाश  होणार  आहे.  केवळ  तूला  निमित्त  करून  हा  उत्पात  होईल.  दुर्योधनाच्या  अपराधाने    भीम    अर्जुनाच्या  पराक्रमाने  क्षत्रियांचा  विनाश  होणार  आहे.  तूला  महादेवाचा  स्वप्नामध्ये  दृष्टांत  होईल,  तरी  तू  काळजी  करण्याचे  कारण  नाही.  तू  सावधानीने  प्रजेचे  पालन  कर.  नंतर  भगवान  व्यास  वेदमार्गाने  कैलास  पर्वतावर  गेले.  भगवान  व्यासांच्या  भविष्यवाणीने  युधिष्ठिर  चिंतातूर  झाले. 


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