Wednesday, 11 October 2017

जगद्गुरू तुकाराम महाराजांचे समाज प्रबोधन



  जगद्गुरू  तुकाराम  महाराजांचे  समाज  प्रबोधन
 संतकृपा  झाली    इमारत  फळा  आली  ।।
 तुका  झालासे  कळस    भजन  करा  सावकाश  ।।
भागवत  धर्माच्या  मंदिराचा  कळस  म्हणून  ज्यांची  ख्याती  आहे,  त्या  तुकाराम  महाराजांचे  चरणी  साष्टांग  वंदन  करून  त्यांनी  विठ्ठलभक्ती  बरोबरच  समाज  प्रबोधन  केले  त्याचा  हा  आढावा.
तुकाराम  महाराजांचा  या  देहातील  कालखंड  इसवी  सन  १६०८  पासून  १६५०  पर्यंत  होता.  म्हणजेच  सूमारे  चारशे  वर्षां-पुर्वीचा  हा  कालखंड  आहे.  तुकाराम  महाराजांनी  प्रपंचातील  अतोनात  दुःखांना  कंटाळून   विठ्ठल  उपासनेला  प्रारंभ  केला.  कठोर  तपसाधना  करून  आत्मज्ञान  प्राप्त  केले.  याच  कालखंडामध्ये  परकीय  आक्रमणामुळे  संपुर्ण  समाज  मनाने  तसेच  व्यावहारीक  दृष्ट्या  अस्वस्थ  झाला  होता.  कर्मठ  कर्मकांड,  कमालीचा  नास्तिकपणा,  वाह्यात  तर्कटीपणा    बुवाबाजी  असा  हा  आचारभ्रष्ट    विचारभ्रष्ट  समाज  आत्मघातकी  झाला  होता.  समाजाची  अशी  दीन  अवस्था  पाहून  तुकाराम  महाराजांनी  आपल्या  अभंगवाणीतून  समाजाला  एक  नवी,  समृध्द    आत्मोन्नत  करणारी  दिशा  दाखविली.  ब्रह्मज्ञानाचे  तत्त्वज्ञान  सोप्या,  सरळ    प्रांजल  शब्दातून  समाजापूढे  ठेवले.  ते  तत्त्वज्ञान  स्वतः  प्रत्यक्ष  आचरणात  आणून  ती  विचारधारा  पुढे  वारकयांमध्ये  आत्मसात  करवून  मोठा  वारकरी-संप्रदाय  निर्माण  केला.  तुकाराम  महाराजांच्या  परखड  आणि  प्रासादिक  अभंग  वाणीने  महाराष्ट्रातील  प्रत्येकाच्या  हृदयात  आपूलकीचे  आणि  जिव्हाळ्याचे  स्थान  प्राप्त  झालेले  आहे  कारण  त्याची  वाणी  हृदयस्पर्शी  आहे.  जगातील  व्यवराहाचे  सूक्ष्म  ज्ञान  तसेच  पारमार्थिक  सत्याचे  रहस्य  त्यांच्या  वाणीतून  दिसून  येते.  त्यामुळे  त्यंाचे  समाज  प्रबोधन  सर्व  सामान्यांना  आपलेसे  वाटते.  त्या  काळातील  समाजामध्ये  मोक्षमार्गाच्या  नावाखाली  होत  असलेल्या  भोदूगिरीचा,  कर्मठ  कर्मकांडाचा  तुकाराम  महाराजांनी  अतिशय  तीव्र  शब्दांनी  समाचार  घेतलेला  त्यांच्या  अभंगवाणीतून  दिसून  येतो.  देवपुजा,  कीर्तन,  प्रवचन,  धार्मिक  अनुष्ठान,  इत्यादी  साधनांचा  केवळ  पोटासाठी  उपयोग  करणाया  पाखंडी  लोकांवर  तुकाराम  महाराजांनी  कडाडून  टीका  केलेली  आहे.  तुकाराम  महाराजांची  लेखनशैली  मर्मग्राही    धारदार  आहे,  म्हणून  त्यांच्या  अभंगातील  प्रत्येक  चरण  सर्वांच्या  अंतःकरणाचा  ठाव  घेतल्या  खेरीज  रहात  नाही.  त्यामूळेच  त्याच्या  अभंगातील  अनेक  म्हणीवजा  सुभाषिते  चारशे  वर्षांपासून  सामान्य  जनांच्या  तोंडी  खेळत  आहेत.  (१)जे  का  रंजले  गांजले    त्यासी  म्हणे  जो  आपुले  ।।  तोचि  साधु  ओळखावा    देव  तेथेचि  जाणावा।।  (२)लहानपण  देगा  देवा    मुंगी  साखरेचा  रवा  ।।  (३)जोडोनिया  धन  उत्तम  व्यवहारे    उदास  विचारे  वेच  करी  ।।  (४)सदा  माझे  डोळा  घडो  तुझे  मूर्ती  ।।  (५)आणीक  दुसरे  मज  नाही  आता  ।।  (६)  वृक्षवल्ली  आम्हा  सोयरी  वनचरे  ।।  (७)आनंदाचे  डोही  आनंदतरंग  ।।  (८)नाम  संकीर्तन  साधन  पै  सोपे    जळतील  पापे  जन्मांतरे  ।।  (९)मन  करा  रे  प्रसन्न    सर्व  सिध्दींचे  कारण  ।।  (१०)याजसाठी  केला  होता  अट्टाहास    शेवटचा  दिस  गोड  व्हावा  ।।  (११)हेचि  दान  देगा  देवा    तुझा  विसर    व्हावा  ।।  (१२)आम्ही  जातो  आमुच्या  गावा  ।।  (१३)पंढरीचे  वारकरी    ते  अधिकारी  मोक्षाचे  ।।  (१४)जगाच्या  कल्याणा  संताच्या  विभूती  ।।  (१५)बोले  तैसा  चाले    त्याची  वंदावी  पाऊले  ।।  (१६)बोलाचीच  कढी  बोलाचाचि  भात      (१७)तुका  म्हणे  येथे  पाहिजे  जातीचे  ।।  (१८)एकएका  साहाय्य  करू    अवघे  धरू  सुपंथ  ।।  (१९)आलिया  भोगासी  असावे  सादर  ।।  (२०)तुझे  आहे  तुजपाशी  ।।  इत्यादी...
 तुकाराम  महाराजांच्या  अभंग  वाणीतून  सामान्यजनांचे  प्रातिनीधीत्व  प्रकट  होते.  ते  सामान्यजनांप्रमाणेच  विकारवश,  भांडणारे,  रूसणारे  असून  सुध्दा  नराचे  नारायण  झाले,  यामध्ये  तुकाराम  महाराजांची  अलौकिकता  स्पष्ट  होते.  त्यामुळे  आपला  सुध्दा  आत्मविश्वास  जागा  होईल,  आपणही  आत्मज्ञानी  होऊ  असे  नाते  प्रत्येक  वारकयाच्या  मनामध्ये  निर्माण  करण्याचे  सामर्थ्य  तुकाराम  महाराजांच्या  अभंग  वाणीतून  प्रकट  होते.  त्याची  अभंग  वाणी  पराकाष्ठेची  आत्मपर    अंतर्मुख  असल्याने  त्या  अभंगवाणीमध्ये  त्यांच्या  पारमार्थीक  चरित्राचे  सम्यक  दर्शन  घडते.  एका  साध्या  संसारी  मनुष्याचा  आत्मसाक्षात्कारी  संत  कसा  घडला  याचे  सविस्तर  चित्र  त्या  अभंगवाणीमध्ये  पाहावयास  मिळते.  जिव्हाळा,  औचित्य,  आणि  ओज  यांनी  तुकाराम  महाराजांची  अभंगवाणी  प्रभावी  झालेली  आहे.  साध्यासुध्या  परिचीत  शब्दांच्या  मार्मिक    परिणामकारक  उपयोगांची  कला  तुकाराम  महाराजांना  चांगलीच  साधलेली  दिसून  येते.  तुकाराम  महाराजांचे  लक्ष  वाङमय  निर्मितीपेक्षा  सामाजिक  जीवन  स्वच्छ  करण्याकडेच  विशेषत्वाने  होते.  म्हणून  ते  म्हणतात,  उजळावया  आलो  वाटा.
 आपल्या  अभंग  वाणीबद्दल  तुकाराम  महाराज  म्हणतात,  ते  शब्द  माझे  पदरचे  नाही,  परमेश्वरी  प्रेरणेनेच  बोलत  आहे.  अंतरीचा  रंग  उमटे  बाहरी  ।।  देहू  जवळच्या  भंडारा  डोंगरावर  तुकाराम  महाराज  एकांतामध्ये  नामस्मरण  करीत    संध्याकाळी  गावामध्ये  मधयरात्री  पर्यंत  संकिर्तन  करीत  त्यावेळी  त्यांच्या  मुखातून  ही  अभंगवाणी  प्रकट  होत  असे.  त्याच्याच  शब्दामध्ये  --  करितो  कवित्व  म्हणतात  हे  कोणी    नव्हे  माझी  वाणी  पदरीची    माझिये  युक्तीचा  नव्हे  हा  प्रकार    मज  विश्वंभर  बोलवितो  ।।  तुकाराम  महाराज  कुणबी  असून  ब्रह्मज्ञान  बोलतात,  वेदांचा  अर्थ  सांगतात  म्हणून  समकालीन  वरिष्ठ  वर्गांकडून  त्यांना  विरोध  झाला.  मंबाजीबुवांनी  त्याचा  छळ  केला.  रामेस्वरभटांनी  त्यांचे  अभंग  इंद्रायणी  नदीमध्ये  फेकून  दिले.  तरी  सुध्दा  तुकाराम  महाराजांवर  विठ्ठालाचा  वरदहस्त  असल्याने  सर्वांनी  तुकाराम  महाराजांचे  द्रष्टेपण  मान्य  केले.  ते  आपल्या  जीवनकार्याचा  खुलासा  करताता,--
आम्ही  वैकुंठवासी    आलो  या  चि  कारणासी  ।।  बोलले  जे  ऋषी    साच  भावे  वर्तावया  ।।१।।  सांडू  संतांचे  मारग    आडराने  भरले  जग  ।।  उच्छिष्टांचा  भाग    शेष  उरले  ते  सेवूं  ।।२।।  अर्थे  लोपली  पुराणे    नास  केला  शब्दज्ञाने  ।।  विषयलोभी  मन    साथने  बुडविली  ।।३।।  पिटूं  भक्तीचा  डांगोरा    कळिकाळासी  दरारा  ।।  तुका  म्हणे  करा    जयजयकार  आनंदे  ।।४।।
 तुकाराम  महाराज  दुसया  अभंगामध्ये  म्हणतात,  जो  मनुष्य  उत्तम  व्यवहारातून  धन  मिळवितो  आणि  उदार  मनाने  ते  खर्च  करतो  त्याच  मनुष्यास  सद्गती  प्राप्त  होते.  जो  परोपकार  करतो,  जो  परस्त्री  आपल्या  आई-भिगीनी  प्रमाणे  मानतो,  जो  पशूंचे  पालन-पोषण  करतो,  जो  तहानलेल्यांना  पाणी  देतो,  जो  जेष्ठांचे  महत्त्व  वाढवितो,  त्यालाच  मोक्षप्राप्ती  होते.  या  अभंगामध्ये  सर्व  अध्यात्माचे  सार
 तुकाराम  महाराजांनी  समजाउन  दिले  आहे.  मनुष्याने  धन  कोणत्या  प्रकारे  मिळवावे,  त्याचा  विनियोग  कशा  प्रकारे  करावा,  समाजातील  स्त्रीयांशी  कसा  व्यवहार  करावा,  पशु-पक्ष्यांवर  कशी  दया  करावी,  समाजातील  थोरांचा  कसा  आदर-सत्कार  करावा  यांचे  सोप्या  शब्दांमध्ये  प्रबोधन  केलेले  दिसून  येते.
 ढाल  तलवारे  गुंतले  हे  कर    या  अभंगामध्ये  तुकाराम  महाराजांनी  युध्दामध्ये  सैनिकाने  कसे  वागले  याचे  उत्तम  रितीने  प्रबोधन  केले  आहे.  कानडीने  केला  महाटा  भ्रतार    या  अभंगामध्ये  तुकाराम  महाराजांनी  विवाह  करताना  कोणती  काळजी  घ्यावी  याचे प्रबोधन  केले  आहे.    थिग  जीणे  तो  बाईले  आधीन    या  अभंगामध्ये  तुकाराम  महाराज  सांगतात,  जो  बायकोच्या  आहारी  गेला,  त्याला  कुठेच  मान  मिळत  नाही.  लोभी  मनुष्याच्या  हातून  आतिथ्य  घडत  नाही.  अत्यंत  आळशी,  विवेक-वैराग्यहीन  मनुष्याचा  धिक्कार  असो.  त्याला  नरकगतीच  प्राप्त  होते.  साता  दिवसांचा  जरी  झाला  उपवासी    या  अभंगामध्ये  तुकाराम  महाराजांनी  हरी  भक्ती  कशी  करावी,  कोणताही  दुर्धर  प्रसंग  आला  तरी  नामस्मरण  सोडू  नये,  देहाचे  तुकडे  झाले  तरी  कीर्तन  सोडू  नये,  परमेश्वर  चरणी  असा  दृढ  विश्वास  ज्याच्या  जवळ  असतो  त्याच्या  जवळ  परमेश्वर  नेहमी  असतो  असे  भक्तांसाठी  प्रबोधन  केले  आहे.  मांडव्याच्या  दारा    पुढे  आणिला  म्हातारा  ।।  या  अभंगामध्ये  तुकाराम  महाराजांनी  ज्याला  कोणत्या  वेळी  काय  करावे  ते  कळत  नाही,  त्याचा  एखाद्या  मंगल  प्रसंगी  काही  उपयोग  नाही,  असा  बोध  करून  दिला  आहे.  अशा  प्रकारे  अनेक  विषयांवर  तुकाराम  महाराजांनी  समाज  प्रबोधन  केलेले  आहे.
 समाजातील  सर्व  घटकांसाठी  हे  तत्त्वज्ञान  अत्यंत  उपयुक्त  असून  कल्याणकारी  आहे.  आजचा  समाज  केवळ  स्तुतीप्रिय  असून  आज  पाश्चात्य  संस्कृतीच्या  प्रभावाने  भौतिक  वस्तूंचा  उपभोग  घेणे  यामध्येच  मनुष्याची  सार्थकता  आहे  अशी  ठाम  विचारधारणा  झालेली  दिसते.  आज  सर्व  ठिकाणी  उपभोगाच्या  विषयीचेच  वातावरण  दिसते.  मंदीरांमध्ये   सुध्दा  कर्मकांड,  भजन,  सप्ताह,  पारायणे,  जयंती    पुण्यतिथी  महोत्सव  असे  उत्सवाचेच  वातावरण  दिसते.  तसेच  आध्यात्मिक  प्रवचने,  किर्तने,  व्याख्याने  यामध्ये  सुध्दा  कथानकावरच  भर  दिलेला  असतो.  कथानके  ही  केवळ  विषय  समजून  घेण्यासाठी  असतात.  त्यातील  तत्त्वज्ञान  आचरणात  आणणे  हे  खूप  महत्वाचे  आहे.  नुसतीच  तुकाराम  गाथेची  पारायणे  करून  काहीही  साध्य  होणार  नाही.  तुकाराम  महाराजांच्या  अभंगातील  तत्त्वज्ञान  आचरणात  आणणे  ही  खरी  त्याच्या  बद्दलची  कृतज्ञता  आहे.
 तुकाराम  महाराजांच्या  या  तत्त्वज्ञान-आचरणामुळे  आजच्या  गंभीर  परिस्थितीवर  मात  करणे  शक्य  आहे.  या  मुळे  कर्मयोगाचे  आचरण  होऊ  शकेल.  केवळ  कर्माच्या  आसक्तीचा  त्याग  होऊन  सर्व  कर्मे  सुरळीत  पार  पडतील.  देहाची  आसक्ती  कमी  झाल्यामुळे  कशाचाही  मोह  होणार  नाही.  पैशाचा  मोह,  संपत्तीचा  मोह,  सत्तेचा  मोह,  नातलगांचा  मोह,  हितचिंतकांचा  मोह  हीच  आजच्या  बकाल  परिस्थितीची  मूळ  कारणे  आहेत.  आत्मज्ञानाची  ओळख  मनामध्ये  रूजल्यानंतर  देहाची  आसक्ती  कमी  होते.  उदा.  जेव्हा  युध्दभूमीमध्ये  द्रोणाचार्यांना  आपला  पुत्र  अश्वत्थामा  मारला  गेला  हे  युधिष्ठिरा  कडून  समजले  तेव्हा  द्रोणाचार्यांचा  जीवनाचा  दृष्टीकोन  पुर्णपणे  बदलला.  त्यांनी  शस्त्रत्याग  केला    ध्यानस्थ  झाले.  आपला  पुत्र  अश्वत्थामाच  आता  या  जगात  राहीला  नाही  तर  आता  माझ्या  जीवनाला  काही  अर्थ  नाही  अशी  त्यांची  स्थिती  झाली.  हे  पुत्राच्या  बाबतीत  होते  तर  आपला  देह  म्हणजे  आपण  नाही  हे  समजल्यानंतर  काय  स्थिती  होईल.  जशी  भगवान  रमण  महर्षींची  झाली  होती.  तात्पर्य़  हेच  की  जेव्हा  देहाचीच  आसक्ती  कमी  होते  तेव्हा  मान,  अ्‌पमान,  गर्व,  अहंकार,  क्रोध,  मोह,  मत्सर  सर्व  काही  देहाचे  गळून  पडते.  हेच  आजच्या  परिस्थितीचे  मुळ  कारण  आहे.  आज  आपण  सर्वत्र  पहातो  आहे.  चोरी,  दरोडे,  खून,  मारामारी,  जाळपोळ,  हत्याकांड,  सत्तेची  हाव,  भ्रष्टाचार,  स्त्रीयांवर  अत्याचार,  इत्यादी  सर्व  काही  देहाच्या  आसक्तीमुळेच  होते  आहे.  आजच्या  काळातील  उदाहरण  --  भारताचे  उपराष्ट्रपती  यांना  राष्ट्रपती  पद  मिळाले  नाही  तर  लगेच  त्यांना  मानसिक  धक्का  बसला    त्यात  त्यांचा  अंत  झाला.  राष्ट्रपती  पद  हेच  जीवनाचे  ध्येय  समजून  ते  मिळाले  तरच  जीवन   नाही  तर  जीवनाला  काही  अर्थ  नाही  अशी  त्यांची  समजूत  झाली.  आजच्या  समाजातील  देहाभिमान  संपून  आज  भेडसावणाया  सर्व  समस्या  संपुष्टात  येतील.  आजच्या  सर्व  समस्या  देहाशी  निगडीत  आहेत.  देहाभिमानाचा  विसर  झाल्यावर  एकात्मतेची  भावना  निर्माण  होइल.  मुख्य  म्हणजे  मृत्युचे  भय  रहाणार  नाही.  कारण  मृत्यु  हा  देहाचा  आहे.  आणि  आपले  खरे  स्वरूप  देह  नसून  आत्मा  आहे.  आत्मज्ञानामुळे  वैयक्तीक,  कौटुंबिक,  सामाजीक    राष्ट्रीय  या  सर्व  पातळ्यांवर  मानवाचा  उध्दार  होईल.  मनुष्याची  विनाशकारी  विचारधारणा  नाहीशी  होऊन  विवेकबुध्दि  जागृत  होईल.

No comments:

Post a Comment