Saturday, 14 October 2017

अष्टोत्तरशतनामक स्त्रोत्र



अष्टोत्तरशतनामक  स्त्रोत्र
युधिष्ठिरास दुर्योधनाच्या  कपट-कारस्थानामुळे  द्युतक्रिडेमध्ये हार पत्करावी लागली. नियमानुसार तेरा वर्षे वनवास व एक वर्ष अज्ञातवास पांडवांनी  द्रौपदीसह  सुरू केला.
पांडव दिवसभर प्रवास करून संध्याकाळी गंगा  किनारी  प्रमाणकोटि  स्थानावर  पोहोचले.  तेथेच  फक्त  पाणी  पिऊन  रात्रभर  निवास  केला.  काही  ब्राह्मण  अतिस्नेहामुळे  पांडवांबरोबर तेरा  वर्षे  वनयात्रा करण्यास निघाले होते.  त्यांनी  रात्रभर  वेदघोष  केला.
सकाळी  पांडव  पुढच्या  प्रवासाला  निघाले.  युधिष्ठिर--ब्राह्मणांनो,  आम्ही  राज्य  संपत्ती  सोडून  तेरा  वर्षे  वनयात्रा  करणार  आहोत.  फक्त  फळाहार  करून  आम्ही  रहाणार  आहोत.  वनामध्ये  हिंस्त्र  जनावरे  असतात.  आपणास  आमच्या  बरोबर  हा  त्रास,  कष्ट  सहन  करावे  लागणार.  ब्राह्मणास  दिलेल्या  त्रासाने  त्रास  देणाऱ्याचा  विनाश  होतो.  म्हणून  आपण  सर्वजण  परत  आपापल्या  घरी  जावे.  ब्राह्मण म्हणतात--महाराज,  आपल्यास  जे  कष्ट  होतील  ते  भोगण्याची  आमची  तयारी  आहे.   आम्ही  आपले  भक्त  आहोत.  आमचा  त्याग  करू  नका.  दया  करा.  युधिष्ठिर--ब्राह्मणांनो,  माझी  सुध्दा  ब्राह्मणांवर  भक्ती  आहे.  परंतू  वनातील  परिस्थितीने  माझे  मन  दुःखी  झाले  आहे.  माझे  भाऊ द्रौपदी-अपमान    वनवास  यांनी  दुःखी  झालेले  आहेत.  त्यांना  मी  आधिक  कष्ट  देण्याचे  टाळतो  आहे.  ब्राह्मण--महाराज,  आपण  आमच्या  भोजनाची  चिंता  करू  नका.  आम्ही  आमच्या  अन्नाची  व्यवस्था  सवतःच  करू.  आम्हास  फक्त  तूमच्या  बरोबर  चालायचे  आहे.  आपल्या  बरोबर  निवास  करून  आम्ही  आपल्या  कल्याणाची  प्रार्थना,  जपतप  करू.  तसेच  उपदेश-कथा  सांगून  आपले  मनोरंजन  करू.  युधिष्ठिर--ब्राह्मणांनो,  आपण  आमच्या  बरोबर  निवास  करताना  मला  आनंदच  होणार  आहे.  परंतू  वनवासामध्ये  मी  ब्राह्मणांस  अशा  प्रकारची  वागणूक  देणे  ही  माझ्यासाठी  अपकिर्तीच  आहे.  आपण  अन्नाची  व्यवस्था  स्वतःच  करणार  हे  सुध्दा  मी  पाहू  शकत  नाही.  तूम्ही  ब्राह्मण  केवळ  माझ्या  प्रेमासाठी  हे  सर्व  करीत  आहात.  ही  वेळ  आणणाऱ्या  दुर्योधन, दु:शासन  यांचा  धिक्कार  आहे.  असे  बोलून  युधिष्ठिर  शोकाकूल  झाला.  तेव्हा  ब्राह्मण--महाराज,  शोकाची  हजारो    भितीची  शेकडो  प्रकार  आहेत.  ते  मूर्ख  मनुष्यावर  आपला  प्रभाव  टाकतात.  परंतू  ज्ञानी  मनुष्यावर  ते  आपला  प्रभाव  टाकू  शकत  नाहीत.  अतिकठीण  परिस्थितीमध्ये  सुध्दा  आपल्या  सारखे  ज्ञानी  मनुष्य  फसू  शकत  नाहीत.  योगाच्या  आठ  अंगांनी  युक्त  (यम,  नियम,  आसन,  प्राणायाम,  प्रत्याहार,  धारणा,  ध्यान    समाधि)   आपली  बुध्दी  कोणत्याही  विपरीत  प्रसंगामध्ये सुध्दा विचलीत  होणार  नाही.  अर्थसंकट,  दुस्तर  दुःख,    स्वजनांवर  आलेली  आपत्ती  यामुळे  आपणांस  शारिरीक  दुःख    मानसिक  चिंता  होणार  नाही.  प्राचीनकाळामध्ये  जनकाने  अंतःकरण  स्थिर  करण्यासाठी  केलेला  उपदेश--सर्व  संसारीक  दुःख    मानसिक  चिंतेने  बेजार  आहे.  त्या  दोन्ही  तून  मुक्तीचा  मार्ग  ऐका.  शारिरीक  रोग,  अप्रिय  घटना,  आधिक  परिश्रम    प्रिय  वस्तुंचा  वियोग  या  चार  कारणांनी  मनुष्यास  शारिरीक  दुःख  प्राप्त  होते.  या  चार  ही  कारणांचे  विस्मरण  करणे  हाच  खरा  दुःख  निवारक  उपाय  आहे.  त्यानेच  आधि    व्याधि  नष्ट  होतात.  म्हणून  विद्वान  मनुष्य  प्रिय  वचनांनी  (गोड  बोलणे)    हितकर  भोग  भोगून  प्रथमतः  मानसिक  चिंता  नष्ट  करतात.  कारण  मनामध्ये  चिंता  असेल  तर  शरीर  सुध्दा  कष्टी-दुःखी  होते,  जसे  तापलेला  लोखंडाचा  गोळा  गार  पाण्यात  टाकल्यास  ते  पाणी  गरम  होते.  म्हणून  विवेक  बुध्दीने  मानसिक  चिंता  नष्ट  कराव्यात.  मानसिक  चिंता  नष्ट  झाल्यावर  शारिरीक  दुःख  हळूहळू  कमी  होते.  मानसिक  चिंतेचे  मूळ  कारण  संसाराची  आसक्ती  हेच  आहे.  या  आसक्तीमुळेच  दुःख  प्राप्त  होते.  आसक्तीमुळे  भिती  प्राप्त  होते.  शोक, आनंद दुःख  हे  सुध्दा  आसक्तीमुळेच  प्राप्त  होते.  आसक्तीमुळेच  इंद्रियांच्या  विषयांमध्ये  आवड    नावड  उत्पन्न  होते.  हेच  अमंगलकारी  आहे.  इंद्रियांच्या  विषयांमध्ये  आवड  हे  आधिक  अनर्थकारी  आहे.  जसे  झाडाच्या  खोडाला  लागलेली  आग  संपूर्ण  झाड  मुळासकट  जाळून  टाकते,  तसेच  इंद्रिय-विषयांची  आसक्ती  धर्म  आणि  अर्थ  दोघांचा  ही  नाश  करते.  इंद्रिय-विषय  मिळावे  नाही  म्हणून  त्याचा  त्याग  हा  खरा  त्याग  नाही.  तर  इंद्रिय-विषय  मिळत  असताना  सुध्दा  त्यातील  दोष  समजून  त्याचा  परित्याग  करणे  हाच  खरा  त्याग  आहे.  तेच  वैराग्य  आहे.  म्हणून  धन-संपत्ती    स्वजन  प्राप्त  झाल्यानंतर  त्याची  आसक्ती  करू  नये.  त्या  आसक्तीचा  विवेक  बुध्दीने  परित्याग  करावा.  म्हणून  विद्वान  मनुष्यावर  इंद्रिय-विषय-आसक्तीचा  प्रभाव  होत  नाही,  जसे  कमळाच्या  पानावर  पाणी  राहू  शकत  नाही.  या  आसक्तीच्या  मोहाचा  त्याग  करण्याने  मनुष्य  सुखी  होतो.  जसे  लाकडानेच  निर्माण  झालेली  आग  त्या  लाकडास  भस्मसात  करते,  तसेच  ज्याचे  मन  संयमित  नाही  त्याचे  शरीर  लोभाने  नष्ट  होते.  धनवान  मनुष्यास  राजा,  अग्नि,  चोर    स्वजनांपासून  सदैव  भिती  (धन  सुरक्षिततेची)  असते,  जसे  मनुष्यास  मृत्युची  भिती  असते.  जसे  मांसाचा  तुकडा  चोचीमध्ये   धरलेल्या  पक्ष्यास  इतर  पक्षी  सारखे  टोचत  असतात,  तसेच  धनवान  मनुष्यास  इतर जण  सारखे  पैसे  मागीत  असतात.  अनेक जणांस  अर्थ  हा  अनर्थाचे  कारण  बनतो.  कारण अर्थातून  जो  भोग  प्राप्त  होतो,  तो  कल्याणकारी  नसतो.  म्हणून  धन  प्राप्तीचे  सर्व  उपाय  मोह  वाढविणारे  आहेत.  कंजूसपणा, गर्व, भिती  हे  सर्व  धनापासून  होणारी  दुःखेच  आहेत.  धन  मिळविणे,  त्याचे  संरक्षण  करणे,  खर्च  करणे  यामध्ये  मनुष्यास  दुःख  सहन  करावे  लागते.  धनासाठी एकमेकास  मनुष्य  मारतो.  धनाचा त्याग  करण्यात  सुध्दा  दुःख  होते.  जर  त्याचा  साठा  केला  तर  तेच  धन  आपला  शत्रु  बनते.  धनाची प्राप्ती  सुध्दा  दुःखातूनच  होते.  म्हणून धनाचे  चिंतन  करू  नये.  कारण त्याने मनुष्याचा  नाश  होतो.  मूर्ख  मनुष्य  कितीही  धन  मिळाले  तरी  असंतुष्टच  असतो,  परंतू  विद्वान  मनुष्य  सर्वदा  संतुष्ट  असतो.  धनाची हाव कधीच संपत  नाही.  म्हणून संतोष हेच परम  सुख  आहे.  तारूण्य,  रूप,  जीवन,  रत्नांचे  ढीग,  ऐश्वर्य,  हे  सर्व  काही  अनित्य  आहे.  म्हणून विद्वान  मनुष्य त्याची  इच्छा  करीत  नाही.  म्हणून  धन-संग्रहाचा  त्याग  करावा  त्याच्या  मुळे  होणारे  दुःख  धैर्याने  सहन  करावे.  धर्मात्मा मनुष्य धर्मपूर्वक  मिळविलेल्या  धनाची  प्रशंसा  करतो.  जो  मनुष्य  धर्मासाठी  धन  मिळविण्याची  इच्छा  करतो  त्याने  धनाची  इच्छा    करणे  हेच  इष्ट  होय.  चिखल  अंगाला  लागल्यानंतर  धूण्यापेक्षा   चिखलास  स्पर्श    करणे  हेच  श्रेष्ठ  आहे.  म्हणून  महाराज,  आपण  कोणत्याही  वस्तुची    धनाची  अपेक्षा  करणे  योग्य  नाही.  युधिष्ठिर--ब्राह्मणांनो,  मी  धनाची  अपेक्षा  करतो  ते  भोग  भोगण्यासाठी  नाही.  केवळ  ब्राह्मणांच्या  पालन-पोषणासाठी  मी  धनाची  अपेक्षा  करतो.  मी  माझ्या  साथीदारांचे  पालन-पोषणसुध्दा  करू  नये  हे  अनुचित  आहे.  गृहस्थाच्या  भोजनामध्ये  देवता,  पितर,  मनुष्य,    प्राणी  यांचा  भाग  असतो.  आपल्या  हाताने  भोजन    करणाऱ्या संन्यासास  भोजन  द्यावे  हा  गृहस्थाचा  धर्म  आहे.  आसन,  बसण्यासाठी  जागा,  पाणी    मधुर  वाणी  या  चार  गोष्टी  सत्पुरूषाच्या  घरी  नेहमी  असतात.  रोगी  मनुष्यासाठी  अंथरूण,  थकलेल्यासाठी  आसन,  तहानलेल्यास  पाणी    भूकेलेल्यास  भोजन  दिलेच  पाहिजे.  आपल्या  घरी  येणाऱ्याचे  हसतमुखाने  स्वागत  करावे.  मनामध्ये  प्रेम  असावे.  त्याच्याशी  गोड  बोलावे.  आसनावर  बसवावे.  हा  गृहस्थाचा  सनातन  धर्म  आहे.  जर  अतिथीचा  आदर-सत्कार  केला  नाही  तर  तो  अतिथि  आपल्या  क्रोधाग्निने यजमानास भस्मसात  करू  शकतो.  फक्त आपल्यासाठी  अन्न  शिजवू  नये.  (देवता,  पितर,    अतिथि  यांच्यासाठी  सुध्दा  अन्न  शिजवावे)  पशूंची  हत्या  करू  नये.  विधीपुर्वक नैवेद्य  दाखवून  नंतर  प्राशन  करावे.  कुत्रा, कावळे  यांच्यासाठी  अन्न  द्यावे  हाच  वैश्वदेव-यज्ञ  आहे.  तो  प्रातःकाळी    संध्याकाळी  केला  जातो.  गृहस्थाने  विघस    अमृत  अन्नाचे  प्राशन  करावे.  घरातील  सर्वांचे  भोजन  झाल्यानंतर  जे  अन्न  उरते  त्यास  विघस  म्हणतात.  वैश्वदेव-यज्ञानंतर  जे  अन्न  उरते  त्यास  अमृत  म्हणतात.  अतिथिकडे  प्रेमाने  पहावे.  मनामध्ये  त्याच्या  कल्याणाचा  विचार  करावा.  त्याच्याशी  गोड  बोलावे.  त्याची  सेवा  करावी.  तो  घरातून  जाताना  काही  अंतरापर्यंत  त्याच्या  बरोबर  जाऊन  निरोप  द्यावा.  या  पाच  कृतीने  अतिथि-यज्ञ  पूर्ण  होतो.  जे  मनुष्य  थकलेल्या  पथिकाला(प्रवास  करणारा)  आनंदाने  भोजन  देतो,  त्यास  महान  पुण्य  प्राप्त  होते.  महाराज,  आज  या  संसारामध्ये  विपरीत  दृश्ये  पहायला  मिळतात.  सत्पुरूषांना  ज्या  कर्माचा  तिरस्कार  होतो,  तेच  कर्म  करताना  दुष्ट  मनुष्यास  आनंद  होतो.  अज्ञानी  मनुष्य  आपल्या  इंद्रियसुखासाठी  अनेक  वस्तुंचा  साठा  करतो.  जाणकार  मनुष्य  सुध्दा  आपल्या  इंद्रियसुखासाठी  मोहीत  होतो.  जसे  दुष्ट  घोडे  नियंत्रित  नसले  तर  सारथ्यास  खड्यामध्ये  घालतात,  तसेच  जितेंद्रियाची  सुध्दा  दशा  होऊ  शकते.  जेव्हा  मन  आणि  पाच  इंद्रिये  विषयांकडे  प्रवृत्त  होतात,  तेव्हा  मन  विचलीत  होते.  मन  ज्या  इंद्रियांद्वारा  विषयांची  इच्छा  करते,  त्या  विषयांमध्ये  मन  मग्न  होते.  (ज्ञानेंद्रिये-डोळे-रूप  सौदर्य  पहाणे,  कान-उपभोगी  विचार  ऐकणे,  त्वचा-मऊ  स्पर्शाचा  आनंद  उपभोगणे,  जिभ-चवीने  खाणे-पिणे,  नाक-सुगंधी  द्रव्यांचा  वास  घेणे)  स्वतःच्या  इच्छेनुसार  इंद्रियेसुख  भोगून  त्यामध्ये  मग्न  झाल्याने  आत्मज्ञानाचा  विसर  पडतो.  अज्ञानामुळे  जीव  अनेक  प्रकारच्या  योनिमध्ये  येतो.  (उद्भिज-वृक्ष-जमिनीतून-२०लक्ष,  स्वेदज-किडे-कृमी-मळातून-११लक्ष,अंडज-पक्षी-अंड्यातून-१९लक्ष,जरायुज-मृग-गाय-घोडा-गर्भातून-३४लक्ष,  एकूण८४लक्ष)  ही  अज्ञानी  जनांच्या  गतिचे  वर्णन  झाले.  आता  ज्ञानी  पुरूषांच्या  गतिचे  वर्णन  ऐका.  जो  मनुष्य  धर्म    कल्याणकारी  मार्गामध्ये  तत्पर  आहे,  मोक्षाची  तिव्र  जिज्ञासा  आहे  तो  ज्ञानी  (विवेकी)पुरूष  आहे.  वेदांची  आज्ञा  आहे  कर्म  करा  आणि  कर्म  सोडा  (विदेह  अवस्थेमध्ये).  अहंकार शून्य  अवस्थेमध्ये  कर्म  आपोआप  होते.  करावे लागत  नाही.  यज्ञ,  अध्ययन,  दान,  तप,  सत्य,  क्षमा,  मन-इंद्रिय  संयम,  लोभाचा  परित्याग  हे  धर्माचे  आठ  मार्ग  आहेत.  पहिले  चार  मार्गाच्या  अनुष्ठानाने  पितृलोक  प्राप्त  होतो.  पुढचे  चार  मार्गाच्या  अनुष्ठानाने  देवलोक  प्राप्त  होतो.  सत्पुरूष  याच  मार्गाचा  अवलंब  करतात.  सर्व  संकल्प  एकाच  ध्येयाने  करणे,  इंद्रियास  संयमित  करणे,  यम-नियमांचे  पालन  करणे,  गुरूसेवा,  संयमित  आहार,  वेदाध्ययन,  कर्मयोग-आचरण,  चित्तवृत्तींचा  निरोध  यांचे  आचरण  करण्याने  मनुष्याचे  परम  कल्याण  होते.  यामुळेच  देवतांना  ऐश्वर्य  प्राप्त  झाले  आहे.  म्हणून  तूम्ही  सुध्दा  या  साधनेने  ऐश्वर्य  प्राप्त  करण्याचा  प्रयत्न  करावा.  तपस्येने योगसिध्दी  प्राप्त  करण्याचा  प्रयत्न  करावा.  त्यामुळे  ब्राह्मणांचे  पालन-पोषण  होत  असते.  सिध्द-योगी  ज्या  वस्तुंची  इच्छा  करतात,  ती  वस्तु  ते  तपस्येने  प्राप्त  करू  शकतात.  म्हणून  तपस्या  करून  आपल्या  मनोरथाची  पूर्ती  करावी.
युधिष्ठिराने  हा  उपदेश  ऐकल्यानंतर  तो  आपल्या  भावंडांकडे    पुरोहीताकडे  आला.  युधिष्ठिर--हे  विप्रवर,  वेदज्ञ   ब्राह्मण  माझ्या  समवेत  वनामध्ये  येत  आहेत.  परंतू  त्याचे  पालन-पोषण  करण्यास  मी  असमर्थ  आहे,  याचे  मला  दुःख  होत  आहे.  अशा  परिस्थितीमध्ये  मी  काय  करावे  हे  मला  सांगावे. 
तेव्हा श्रेष्ठ  धर्मज्ञ  धौम्य  ऋषींनी   युधिष्ठिराचा  प्रश्न  ऐकून  दोन  तास  ध्यान  केले.  त्यानंतर  धौम्य  ऋषी--महाराज,  सृष्टीच्या  प्रारंभी  सर्व  प्राणी  भूकेने  व्याकुळ  झाले  असताना  सूर्याने  पृथ्वीचा  रस  भूकेलेल्या  सर्व  प्राण्यांना  दिला.  सूर्य सर्व  प्राणीमात्रांचे  पितास्वरूप  आहेत.  म्हणून सूर्यदेवास  शरण  जावे.  कार्तवीर्य-अर्जुन,  पृथु,  नहुष  इत्यादी  महाराजांनी  तपस्या  करून  अतिसंकटातून  प्रजेचे  संरक्षण  केले  आहे.  तू  सुध्दा  तपस्या  करून  ब्राह्मणांचे  पालन-पोषण  कर. 
धौम्य  ऋषींनी  युधिष्ठिरास  सूर्यदेवाच्या प्रसन्नतेसाठी अष्टोत्तरशतनामक  स्त्रोत्राचे  वर्णन केले.
सूर्यो-र्यमा  भगस्त्वष्टा  पूषार्कः  सविता  रविः    गभस्तिमानजः  कालो  मृत्युर्धाता  प्रभाकरः  ।।
पृथिव्यापश्च  तेजश्च  खं  वायुश्च  परायणम्    सोमो  बृहस्पतिः  शुक्रो  बुधो-अंगारक  एव    ।।
इंद्रो  विवस्वान्  दीप्तांशुः  शुचिः  शौरिः  शनैश्चरः    ब्रह्मा  विष्णुश्च  रूद्रश्च  स्कंदो  वै  वरूणो  यमः 
 वैद्युतो  जाठरश्चाग्नि  रैन्धनस्  तेजसा  पतिः    धर्मध्वजो  वेदकर्ता  वेदांगो  वेदवाहनः  ।।
 कृतं  त्रेता  द्वापारश्च  कलिः  सर्वमलाश्रयः    कला  काष्ठा  मुहुर्ताश्च  क्षपा  यामस्तथा  क्षणः  ।।
 संवत्सर  करो-श्वत्थः  कालचक्रो  विभावसुः    पुरूषः  शाश्वतो  योगी  व्यक्ताव्यक्तः  सनातनः  ।।
 कालाध्यक्षः  प्रजाध्यक्षो  विश्वकर्मा  तमोनुदः    वरूणः  सागरों-शुश्च  जीमूतो  जीवनो-रिहा  ।।
 भूताश्रयो  भूतपतिः  सर्वलोकनमस्कृतः    स्त्रष्टा  संवर्तको  वन्हिः  सर्वस्यादिरलोलुपः  ।।३.१६
 अनंतः  कपिलो  भानुः  कामदः  सर्वतोमुखः    जयो  विशालो  वरदः  सर्वधातुनिषेचिता  ।।
 मनःसुपणोर्  भूतादिः  शीघ्रगः  प्राणधारकः    धन्वन्तरिर  धूमकेतु  रादिदेवो-दितेः  सुतः  ।। 
 द्वादशात्मा  अरविंदाक्षः  पिता  माता  पितामहः    स्वर्गद्वारं  प्रजाद्वारं  मोक्षद्वारं  त्रिविष्टपम्  ।।
 देहकर्ता  प्रशांतात्मा  विश्वात्मा  विश्वतोमुखः    चराचरात्मा  सूक्ष्मात्मा  मैत्रेयः  करूणान्वितः  ।।
या अष्टोत्तरशतनामक  स्त्रोत्राचा  उपदेश  ब्रह्मदेवाने  केलेला  आहे.  सर्व  देवता,  पितर,  यक्ष  ज्याची  सेवा  करतात,  असूर,  राक्षस  ज्याची  वंदना  करतात,  जो  सुवर्ण  व अग्निसमान  कांतिमान  आहे,  त्या  भगवान  भास्करास  मी  माझ्या  हितासाठी  नमस्कार  करीत  आहे.  जो  मनुष्य  सूर्योदय  समयी  या  एकशे  आठ  नावांचे  पठण  करतो,  तो  स्त्री,  पुत्र,  धन,  रत्नराशी,  पूर्वजन्माची  स्मृती,  धैर्य  आणि  उत्तम  बुध्दी  प्राप्त  करतो.  जो  मनुष्य  स्नान  करून  प्रसन्न,  शुध्द, एकाग्र  चित्ताने  या  अष्टोत्तरशतनामक  स्त्रोत्राचे  पठण  करतो,  तो  शोकमुक्त,  संसार  मुक्त  होऊन  मनोवांच्छित  वस्तु  प्राप्त  करतो.  धौम्य  ऋषींनी  केलेल्या  उपदेशानुसार  युधिष्ठिराने  ब्राह्मणांस  भोजन  देण्याच्या  उद्देशाने  शुध्द  अंतःकरणाने  या  स्त्रोत्राचे  अनुष्ठान  केले(केवळ  वायु  भक्षण  करून)  युधिष्ठिर--हे  सूर्यदेव,  आपण  संपूर्ण  विश्वाचे  नेत्र  असून  सर्व  प्राणीमात्रांचे  आत्मा  आहात.  सांख्ययोग्यांचे  प्राप्तव्य  स्थान  आपणच  आहात.  कर्मयोग्यांचे  आश्रय  आहात.  आपण  मुमुक्षुंची  गति  असून  मोक्षाचे  उन्मुक्त  द्वार  आहोत.  आपण  सर्व  विश्वास  धारण  करता.  आपल्यामुळेच  विश्व  प्रकाशमान  होते.  आपण  त्यास  पवित्र  करता.  तसेच  आपण  निःस्वार्थतेने  त्याचे  पोषण  करता.  आपण  ऋषीगणोंद्वारा  पूजित  आहात.  वेदज्ञ  ब्राह्मण  वेदातील  मंत्राद्वारे  आपले  पूजन  करतात.  सिध्द,  चारण,  गंधर्व,  यक्ष,  गुह्यक  आणि  नागलोक  आपल्याकडून  वरदान  प्राप्त  करण्यासाठी  आपल्या  गतिशील  दिव्य  रथामागे  चालतात.  तेहेतीस  देवतांनी(बारा  आदित्य,  अकरा  रूद्र,  आठ  वसु,  इंद्र  आणी  प्रजापति)आपली  आराधना  करून  सिध्दी  प्राप्त  केलेल्या  आहेत.  श्रेष्ठ  विद्याधरांनी  आपली  पूजा  मंदारफूलांच्या  माळांनी  करून  मनोरथ  सफल  केलेले  आहे.  सात  पितर  तसेच  सनकादी  ऋषींनी  सुध्दा  आपली  पूजा  करून  श्रेष्ठ  पद  प्राप्त  केलेले  आहे.  वसुगण,  मरूद्गण,  रूद्र,  वालखिल्य  हे  आपली  आराधना  करून  सर्व  प्राणीमात्रांमध्ये  श्रेष्ठ  झालेले  आहेत. ब्रह्मलोकासहित  सातही  लोकांमध्ये  आपल्याहून  श्रेष्ठ  कोणीही  नाही.  भगवान  विष्णुंचे  सुदर्शन  चक्र  आपल्या  तेजापासूनच  बनले  आहे.  आपण  उन्हाळ्यामध्ये  पृथ्वी  वरील  पाणी  शोषून  ते  पुन्हा  पावसाळ्यामध्ये  पृथ्वीस  परत  करतात.  आपला  उदय  झाला  नाही  तर  पृथ्वीवर  सर्वत्र  अंधकार  होईल.  जो  षष्ठी    सप्तमीला  अहंकार  नष्ट  करून  भक्तीभावाने  आपली  पूजा  करतो  त्यास  लक्ष्मी  प्राप्त  होते.  जो  अनन्यतेने  आपली  अर्चना    वंदन  करतो,  त्याच्यावर  कोणतीही  विपत्ती  येत  नाही,  तो  मानसिक  चिंता    शारीरिक  दुःखातून  मुक्त  होतो.  ज्याची  आपल्यावर  अढळ  श्रध्दा  आहे,  तो  पापमुक्त  होऊन  चिरंजीव  होतो.  मी  श्रध्दापूर्वक  अतिथिंना  भोजन  देण्यासाठी  अन्नाची  इच्छा  करीत  आहे.  आपण  अन्न  देण्याची  कृपा  करावी.
अशा  प्रकारे  सूर्यदेवाची  स्तुति-आराधना  केल्यानंतर  सूर्यदेव  प्रसन्न  झाले.  दर्शन  दिले. 
सूर्यदेव--धर्मराज  तूला  बारा  वर्षापर्यंत  अन्न  देईन.  ही  तांब्याची  कटोरी  घे.  यामध्ये  चार  प्रकारचे  अन्न(१.भक्ष्य-चाऊन  खाण्याचे,  २.भोज्य-पिण्याचे,  ३.लेह्य-चाटून  खाण्याचे,  ४.चोष्य-चोखून  खाण्याचे)  रोज  उत्पन्न  होईल.  जोपर्यंत  सर्वांना  वाढून  झाल्यानंतर  द्रौपदीचे  स्वतःचे  भोजन  होत  नाही  तोपर्यंत  या  कटोरी  मध्ये  अन्न  रोज  उत्पन्न  होईल.  आजपासून  चौदा  वर्षांनंतर  तूला  तूझे  राज्य  प्राप्त  होईल.  वैशंपायन--जनमेजया,  नंतर  सूर्यदेव  अंतर्धान  झाले.  जो  कोणी  मनुष्य  मन  संयमित  करून  एकाग्रतेने  या  अष्टोत्तरशतनामक  स्त्रोत्राचे  पठण  करतो,  त्यास  दुर्लभ  वर  प्राप्त  होतो.  जो  मनुष्य  या  अष्टोत्तरशतनामक  स्त्रोत्राचे  निरंतर  श्रवण  करतो,  तो  जर  पुत्रार्थी  असेल  तर  त्यास  पुत्र  प्राप्त  होतो,  धनार्थी  असेल  तर  त्यास  धन  प्राप्त  होते,  विद्यार्थी  असेल  तर  त्यास  विद्या  प्राप्त  होते,  पत्नीची  अभिलाषा  असेल  तर  त्यास  सुलक्षणी  पत्नी  प्राप्त  होते.  जो  मनुष्य  या  अष्टोत्तरशतनामक  स्त्रोत्राचे  दोन्ही  संधीकाळामध्ये  निरंतर  पठण  करतो,  तो  विपत्तीमुक्त व  बंधनमुक्त  होतो.  या  अष्टोत्तरशतनामक  स्त्रोत्राचा  उपदेश  प्रथमतः  ब्रह्मदेवाने  इंद्रास  केला,  इंद्राने  नारदास  केला,  नारदांनी  धौम्य  ऋषींना  केला.  धौम्य  ऋषींनी  युधिष्ठिरास  केला.  जो  मनुष्य  या  अष्टोत्तरशतनामक  स्त्रोत्राचे  अनुष्ठान  करतो,  तो  नेहमी  युध्दामध्ये  विजयी  होतो,  भरपूर  संपत्ती  प्राप्त  करतो,  पापमुक्त  होतो,    शेवटी  सूर्यलोकास  प्राप्त  होतो.  सूर्यदेवाकडून  वरदान  प्राप्त  झाल्यावर  युधिष्ठिर  गंगेतून  बाहेर  आले.  त्यांनी  धौम्य  ऋषींना  साष्टांग  वंदन  केले.  भावंडास  अलिंगन  दिले.  द्रौपदीने  युधिष्ठिरास  वंदन  केले.  सूर्यदेवाने  दिलेल्या  कटोरी  मध्ये  चार  प्रकारचे  अन्न  रोज  उत्पन्न  होऊ  लागले  त्यामुळे  ब्राह्मण  भोजन  होऊ  लागले.  ब्राह्मण  भोजन  झाल्यानंतर  युधिष्ठिर  शेवटी  भोजन  करीत  असत.  त्यानंतर  द्रौपदीने  भोजन  केल्यानंतर  त्या  कटोरीतले  अन्न  संपत  असे. 

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