Saturday, 14 October 2017

द्रौपदीचे पाच पति--रहस्य


द्रुपद  महाराजांनी  अर्जुनाचा  पराक्रम  ऐकून  त्यालाच आपल्या सर्वांग सुंदर कन्या, द्रौपदीचे  कन्यादान  करावे  असा  संकल्प  केला.  द्रुपद  महाराजाने  अर्जुनास  शोधून  काढण्यासाठी  एक  विलक्षण  धनुष्य  बनविले  कि  दुसरे  कोणीही  ते  वाकवू  शकणार  नाही.  तसेच  एक  आकाशयंत्र  बनविले  कि  ते  वेगाने  फिरत  राहील. महाराजांनी  द्रौपदीचे स्वयंवर जाहिर करून राजे,  महाराजे,  सर्वांना निमंत्रण दिले. स्वयंवराची  अट होती, जो  वीर  त्या  विलक्षण  धनुष्यास  प्रत्यंचा  लावून  वेगाने  फिरणाऱ्या  लक्ष्याचा  वेध  करील  त्यास  द्रौपदीचे  कन्यादान  होईल.  अनेक  देशातून  राजे,  महाराजे,  ब्राह्मण,  ऋषी-मुनी,  इत्यादी  तेथे  आले.  दुर्योधन  कर्णा  सोबत  आला  होता.
द्रुपद-पुत्र धृष्टद्युम्नाने  द्रौपदीस  स्वयंवरासाठी  आलेल्या  राजांची  ओळख  करून  दिली.  त्यामध्ये  हस्तिनापूरचे  युवराज,  गांधारराजाचे  वीर,  पुरूवंशीचे  राजे,  तसेच  भगवान  वासुदेव,  बलराम,  प्रद्युम्न,  अनिरूध्द  भगीरथ  वंशी  राजे,  रथी  महारथी  इत्यादी आले होते.
स्वयंवरासाठी  आलेल्या  राजांनी  विलक्षण  धनुष्याला  हात  लावला  कि  ते  धनुष्याच्या  झटक्याने  जमिनीवर  पडायचे.  मग  त्यांचा  उत्साह  कमी  होत  असे.  अशी  सर्व  राजांची  स्थिती  पाहून  कर्ण  तेथे  आला.  तेव्हा  द्रौपदी  मोठ्याने म्हणाली--मी   सूतपुत्राशी  विवाह  करणार  नाही.  त्यानंतर  शिशुपाल,  जरासंध,  शल्य,  दुर्योधन  यापैकी  कोणालाही  विलक्षण  धनुष्य  प्रत्यंचा  लावता  आली  नाही. 
त्यानंतर  ब्राह्मणाने  (श्रेष्ठ  धनुर्धर  अर्जुनाने)  इच्छा  व्यक्त  केली.  तेव्हा  श्रीकृष्ण    बलरामांनी  अर्जुनास  ओळखले. ब्राह्मणाने  त्या  विलक्षण  धनुष्यास  प्रदक्षिणा  केली.  भगवान  शंकरास  नमस्कार  करून  मनोमन  श्रीकृष्णास  वंदन  केले.  आणि  त्या  विलक्षण  धनुष्यास  प्रत्यंचा  लावून  वेगाने  फिरणाऱ्या  लक्ष्याचा  वेध  केला.  आकाशातून  पुष्पवृष्टी  झाली.  द्रुपद  महाराजास  अत्यानंद  झाला.  द्रौपदीने  ब्राह्मणाच्या  गळ्यामध्ये  माळ  घातली.  ब्राह्मणांनी  त्या  दोघांना  आशिर्वाद  दिला.
जेव्हा  द्रुपद  महाराजाने  ब्राह्मणास  द्रौपदीचे  कन्यादान  केले  तेव्हा  स्वयंवरासाठी  आलेल्या  राजांना  राग  आला.  स्वयंवरामध्ये  पाणीग्रहण  करण्याचा  आधिकार  ब्राह्मणांस  नाही.  तो  आधिकार  फक्त  क्षत्रियांनाच  आहे.  त्या  सर्वांनी  द्रुपद  महाराजावर  आक्रमण  केले.  त्या  सर्व  राजांचा  सामना  पांडवांनी  केला.  सर्व  राजांचा  पराभव  केला.  तेव्हा
 भगवान  वासुदेव,  बलराम  यांना  आनंद  झाला.
जेव्हा  पांडव  द्रौपदीला  घेऊन  कुंती  मातेकडे  आले    द्रौपदीला  उद्देशून  म्हणाले  आम्ही  भीक्षा  आणली  आहे.  नेहमी  प्रमाणे  माता    पहाताच  म्हणाली  सर्वांनी(पांडवांनी)  वाटून  घ्या.  जेव्हा  द्रौपदीला  मातेने  पाहिले  तेव्हा  माता  चिंतीत  होऊन म्हणाली--माझ्या  तोंडातून  अनुचित  बोलले  गेले.  कुंतीमाता  भितीने  व्यथित  झाली.  परंतू  द्रौपदी  मनासारखे  पराक्रमी  पति  प्राप्त  झाल्याने  खूप  आनंदी  झाली होती.  तेव्हा  कुंतीमाता  द्रौपदीला  घेऊन  युधिष्ठिराकडे  आली--युधिष्ठिरा,  ही  द्रुपद  महाराजांची  कन्या  द्रौपदी  आहे.  अर्जुन    भीमाने  तीला  भीक्षा  म्हणून  मला  अर्पित  केले.  मी  तीला    बघताच  सर्वांनी(पांडवांनी)  वाटून  घ्या  असे  म्हणाली.  तूच  सांग  माझी  अज्ञान  खोटी  ठरू़  नये    द्रौपदीला  कोणतेही  पाप  लागू  नये.  बुध्दीमानी  युधिष्ठिराने  दोन  तास  गांभिर्याने  विचार  केला व निर्णय सांगितलाहे धनंजया,  तू  स्वयंवरामध्ये  द्रौपदीला  प्राप्त  केले  आहेस.  तूझ्या  बरोबर  ही  शोभून  दिसेल.  अग्निच्या  साक्षीने  विधीपुर्वक  द्रौपदीचे  पाणीग्रहण  कर.  धनंजय म्हणतो--नरेंद्र,  मी  हा  अधर्म  करणार  नाही,  मोठ्या  भावाच्या  विवाहा  अगोदर  लहान  भावाचा  विवाह  हा  अधर्म  आहे.  आधी  आपला  विवाह,  नंतर  भीमाचा    नंतर  माझा.  अशा  परिस्थितीमध्ये  आपण  बुध्दीमानी,  गांभिर्याने  विचार  करून  द्रौपदीसाठी  कल्याणकारी  निर्णय  करा.  आम्ही  सर्वजण  आपल्या  आधीन  आहे.  तेव्हा  युधिष्ठिरास  महर्षी  व्यासांचा  उपदेश  आठवला--कल्याणमयी  द्रौपदी  आपणा  सर्व  पांडवांची  पत्नी  होईल.  इतक्यात  तेथे  श्रीकृष्ण  येऊन म्हणाले--मी  वसुदेवनंदन  श्रीकृष्ण  आहे.  आणि  श्रीकृष्णाने  युधिष्ठिराच्या  दोन्ही  चरणाचा  स्पर्श  करून  वंदन  केले.  बलरामाने  सुध्दा  युधिष्ठिराच्या  दोन्ही  चरणाचा  स्पर्श  करून  वंदन  केले.  पांडवांना  श्रीकृष्ण-बलराम  दर्शनाने  आनंद  झाला.  युधिष्ठिर म्हणतात--वसुदेवनंदन,  आम्ही  येथे  लपून  रहात  आहे  तरी  तूम्ही  आम्हास  कसे  ओळखले.  श्रीकृष्ण म्हणतात --अग्नि  कितीही  लपवून  ठेवला  तरी  तो  जाणवतोच  पांडवां  शिवाय  असे  अद्भूत  कार्य  दूसरे  कोण  करू  शकणार  आहे.  भाग्याची  गोष्ट  आहे  आपण  सुखरूपपणे  अग्निकांडातून  सुरक्षित  आहात.  आपले  कल्याण  होईल.
सायंकाळी  भीम,  अर्जुन,  नकुल    सहदेवाने  भिक्षा  आणून  युधिष्ठिरास  निवेदीत  केली.  कुंती द्रौपदीस  म्हणाली--हे  भद्रे,  या  भिक्षेतील  काही  भाग  प्रथम  देवतांना    ब्राह्मणांस  समर्पित  कर,  त्यानंतर  काही  भाग  आपल्या  आश्रितांना  दे,  नंतर  उरलेल्या  अन्नातील  अर्धा  भाग  भीमास  दे.  उरलेल्या  अन्नाचे  सहा  समान  भाग  करून  युधिष्ठिर,  अर्जुन,  नकुल    सहदेव  तसेच  मला    तूला  घे.  अन्न  ग्रहणा  नंतर  मृगचर्म  जमिनीवर  आंथरून ते सर्वजण  झोपले.  त्यांची  डोकी  दक्षिणेला  होती.  कुंतीमाता  पांडवाच्या  डोक्याकडे  तर  द्रौपदी पांडवाच्या पायाकडे  झोपली.  या  परिस्थितीमध्ये  सुध्दा  द्रौपदीस  काहीही  दुःख  नव्हते  तीच्या  मनामध्ये  पांडवाबद्दल  कींचीत  सुध्दा  तिरस्कार  नव्हता.
द्रुपद  महाराजाने  पांडवांना  राजमहालामध्ये  भोजनसाठी  निमंत्रित  केले.  द्रुपद पांडवांना विचारतात--ब्राह्मणकुमार,  आपला  परिचय  सांगावा. तेव्हा युधिष्ठिरांनी सांगितले--महाराज  आपण  प्रसन्न  व्हावे.  आपल्या  मनातील  इच्छा  पूर्ण  झालेली  आहे.  आम्ही  क्षत्रियच  आहोत.  महाराज  आम्ही महाराज पांडुचे  पुत्र  आहोत.  मी  कुंतीचा  ज्येष्ठ  पुत्र  युधिष्ठिर,  हे  दोघेजण  भीम    अर्जुन.  त्यांनीच  स्वयंवरामध्ये  द्रौपदीला  प्राप्त  केले  आहे.  ते  दोघेजण  नकुल    सहदेव.  आमची  माता  कुंती  द्रौपदी  बरोबर  आहे.  आपली  सर्व  मानसिक  चिंता  दूर  व्हावी.  आपली  कमळासमान  कन्या  द्रौपदी  एका  सरोवरातून  दुसऱ्या  सरोवरामध्ये  आली  आहे.  आता  आपणच  आमचे  परम  आश्रय  आहात.  द्रुपद  महाराजांना  अत्यंत  आनंद  झाला.  डोळ्यातून  आनंदाश्रु,  गळा  भरून  आला.  द्रुपदाने  द्रौपदी    अर्जुन  यांच्या  वीधीवत  विवाहाची  तयारी  सुरू  केली.  तेव्हा  युधिष्ठिरने  खुलासा  केला  की,  द्रौपदी  ही  आम्हा  सर्वांची  पत्नी  आहे  प्रत्येकाचे  पाणीग्रहण  करावे.  द्रुपद महाराजांनी आश्चर्य व्यक्त केले--पांडुनंदन  एका  राजाने  अनेक  स्त्रीयांचे  पाणीग्रहण  केलेले  विधान  आहे.  परंतू  एका  स्त्रीसाठी  अनेक  पति  हे  धर्म  विरोधी  आहे.  युधिष्ठिर सांगतात--महाराज,  धर्माचे  स्वरूप  अत्यंत  सूक्ष्म  आहे.  माझी  बुध्दी  धर्म  विरोधी  नाही.  आमच्या  मातेने  हेच  सांगितले  आहे.  मला  ही  ते  पटले  आहे.  तेव्हा  सर्व  पांडव  कुंतीमाता,  धृष्टद्युम्न  असे  चर्चा  करू  लागले  तेव्हा  तेथे  महर्षी  व्यास  आले.
सर्वांनी  व्यासांचे  स्वागत  केले.  द्रुपद महाराजांनी शंका व्यक्त केली--भगवन,  एका  स्त्रीसाठी  अनेक  पति  कसे  होऊ  शकतात  याबद्दल  आपण  उपदेश  करावा.  व्यास सांगतात--हा  प्रश्न  अत्यंत  गहन  असल्याने  मला  प्रथमतः  तूमचे  विचार  जाणून  घ्यायचे  आहेत.  महाराज म्हणतात--माझ्या  मते  हे धर्म  विरोधी  आहे.  असा  प्रकार  माझ्या  ऐकीवात  नाही.  धृष्टद्युम्न म्हणतात--द्विजश्रेष्ठ,  आपण  सांगावे  मोठा  भाऊ  सदाचारी  असून  सुध्दा  लहान  भावाच्या  पत्नी  बरोबर  कसा  समागम  करू  शकेल.  हे  कार्य  धर्माचे  की  अधर्माचे  याचा  निर्णय  आम्हास  शक्य  नाही  म्हणून  आम्ही  यास  संमती  देत  नाही.  युधिष्ठिर म्हणतात--पुराणांमध्ये  उल्लेख  आहेत,  धर्मात्मांमध्ये  श्रेष्ठ  जटिला  नावाच्या  गोतम-गोत्र  वन्याने  सात  ऋषींबरोबर  विवाह  केलेला  होता.  तसेच  कंडु  मनींची  कन्या  वाक्षीने  दहा  प्रचेतांबरोबर  विवाह  केलेला  होता.  गुरूजनांची  आज्ञा  धर्मसंगत  असून  सर्व  गुरूजनांमध्ये  माता  परम  गुरू  मानली  आहे.  आमच्या  मातेने  आम्हा  पांच  ही  भावडांसाठी  द्रौपदी  ही  पत्नी  आहे  असे  सांगितले  आहे.  म्हणून  आम्हा  पांच  ही  भावडांचा  द्रौपदी  बरोबर  विवाह  हा  परमधर्म  आहे. 
सर्वांचे ऎकून् घेतल्यानंतर व्यास द्रुपदास म्हणतात--या  विवाहामध्ये  एक  रहस्य  आहे.  ते  तूला  एकांतामध्ये  सांगतो. प्राचीन  काळातील  गोष्ट  आहे,  एकदा इंद्रासमवेत देवतागण  गंगेमध्ये  स्नान  करण्यासाठी  आले  असताना  त्यांना  एक  सुवर्ण  कमळ  वाहत  असलेले  दिसले.  त्या  कमळाचे  रहस्य  जाणण्यासाठी  इंद्र  कमळाच्या  दिशेकडे  गेला.  तेथे  त्याला  एक  तेजस्वी  युवती  रडताना  दिसली.  तीच्या  अश्रुतील  थेंबापासून  एक-एक  सुवर्ण  कमळतयार  होत होते.  इंद्राने  विचारले--तू  कोण  आहेस.  कोणासाठी  रडते.  ती युवती म्हणते--देवराज,  मी  एक  भाग्यहीन  अबला  आहे.  माझ्या  मागे  या  म्हणजे  माझे  दुःख  समजेल. इंद्र त्या युवतीच्या मागे गेले. (हिमालयाच्या  शिखरावर)तेथे  इंद्राने  पाहिले.  भगवान  रूद्र  सिध्दासानामध्ये  बसलेला  आहे.  त्याच्या  बरोबर  देवीचा  हास्यविनोद  चालला  आहे.  त्या  क्रीडेमध्ये  ते  दोघे  इतके  मग्न होते कि  इकडे  तिकडे  लक्ष  नाही.  भगवान  रूद्रांचा  स्वैराचार  पाहून  अहंकाराने  इंद्र म्हणाले--हे  महानुभाव,  ही  सर्व  सृष्टी  माझ्या  आधिकारामध्ये  आहे.  माझ्या  अधीन  आहे.  या  सृष्टीचा  मी  ईश्वर  आहे.  इंद्राच्या  या  अहंकाराला  पाहून  भगवान  रूद्र  हसले.  त्याने  इंद्राकडे  पाहिले  आणी  इंद्राचे  शरीर  तात्काळ  पुतळ्यासमान  स्थिर  झाले.  त्यांची  क्रीडा  संपल्यानंतर  देवपुरूष म्हणाले--देवी,  त्या  इंद्राला  माझ्याजवळ  आण,  ज्याने  पुन्हा  त्यास  अहंकार  होणार  नाही.  देवीने  इंद्रास  स्पर्श  केल्यावर तात्काळ  इंद्राचे  शरीर  नेहमी  सारखे  झाले.  तेव्हा  रूद्र म्हणाले--देवेंद्रा,  पुन्हा  असा  अहंकार  करू  नकोस.  तूझ्यामध्ये  अनंत  पराक्रम  आहे.  समोरच्या  गुहेच्या  दरवाज्या  समोर  असलेला  मोठा  पर्वत  बाजूला  करून  गुहेमध्ये  जा.  तेथे  तूझ्या  सारखेच  अजून  इंद्र  आहेत. आज्ञेनुसार इंद्र  पर्वत  बाजूला  करून  गुहेमध्ये  गेला.  त्याला  आपल्या  सारखेच  अजून  चार  इंद्र  तेथे  दिसले.  त्याला  दुःख  झाले.  चिंता  वाटू  लागली  कि  मला  सुध्दा  येथेच  दुर्दशेमध्ये  रहावे  लागेल. तेव्हा रूद्र म्हणाले--देवेंद्रा,  तू  माझा  अपमान  केलेला  आहेस  म्हणून  तूला  ही  येथेच  रहावे  लागेल. कालांतराने तुम्हा  सर्वांना चार  इंद्र (गुहेतील) आणि देवेंद्र  मनुष्ययोनिमध्ये  जावे  लागेल.  अनेक  प्रकारची  संकटे  भोगावी  लागतील.  शुभकर्माद्वारे  तुम्हास यश  प्राप्त  होईल.  इंद्र प्रार्थना करतात--आपल्या  आज्ञेनुसार  आम्ही  मनुष्ययोनिमध्ये  जाऊ.  तेथे  आम्हास  धर्म,  वायु,  इंद्र  आणि  आश्विनीकुमार  या  देवतांच्या  अंशाने  मनुष्य  देह  प्राप्त  व्हावा.   तसेच या युवतीने आम्हा सर्वांची पत्नी रूपाने सेवा करावी. तेव्हा रूद्र म्हणाले--देवेंद्रा, तथास्तु तुझ्या इच्छेप्रमाणे होईल.
तेच  गुहेतील  चार  इंद्र  युधिष्ठिर,  भीम,  नकुल    सहदेव  आहेत. आणि  देवेंद्र  हा  अर्जुन  आहे.  राजन,  या  प्रकारे  पांडव  प्रकट  झालेले  आहेत.  ही  दिव्यरूपा  द्रौपदी  स्वर्गलोकातील  लक्ष्मी  आहे.  ती  या  पांडवांची  पत्नी  म्हणून  नियतीनेच  मान्य  केली  आहे.  म्हणूनच  तूझ्या  यज्ञातून  ती  प्रकट  झाली.  राजन,  मी  तूला  दिव्यदृष्टी  देतो  ज्यामुळे  तू  युधिष्ठिर,  भीम,  अर्जुन  नकुल    सहदेव  यांचे  पुर्वजन्म  तु सुध्दा पाहू  शकशील.  महर्षी  व्यासांच्या  दिव्यदृष्टीने  द्रुपदाने  युधिष्ठिर,  भीम,  अर्जुन  नकुल    सहदेव  यांचे  पुर्वजन्म  पाहिले.  द्रुपदाला  अतिशय  आश्चर्य  वाटले.  आपली  कन्या द्रौपदीचा  विवाह  या  पांडवांबरोबर  होत  आहे  याचा  त्याला  अतिशय  आनंद  झाला. तसेच महर्षी  व्यासांनी  द्रौपदीच्या  पुर्वजन्मातील अजून एक प्रसंग सांगितला--एकदा  मुनींची  कन्या  रूपवती  असून  सुध्दा  तीला  पति  प्राप्त  होत  नव्हता.  म्हणून  तिने  कठोर  तपस्या  केली.  महादेव  प्रसन्न  होऊन  वर  मागण्यास  सांगितले  तेव्हा  मला  सर्वगुणसंपन्न  पति  प्राप्त  व्हावा  असे  पाच  वेळा  म्हणाली  म्हणून  महादेवाने  तथास्तु  म्हणताच  पुढच्या  जन्मामध्ये  तूला  पाच  पति  मिळतिल  असे  महादेव  प्रसन्न  होऊन  म्हणाले.  राजन,  तीच  मुनींची  कन्या  द्रौपदीच्या  रूपाने  तूझ्या  यज्ञातून  प्रकट  झाली.  ती  स्वर्गलोकातील  लक्ष्मी  आहे.  ब्रह्मदेवानेच  द्रौपदीचा  विवाह  या  पांडवांबरोबर  निश्चित  केला  आहे.  हे  सर्व  समजून  तूला  काय  करायचे  ते  कर.
महाराज  द्रुपदाने  विचार  केला  की  भाग्यामध्ये  जे  ठरलेले  आहे  ते  मला  बदलण्याचा  अधिकार  नाही.  मला  आधी  पांडवांच्या    द्रौपदीच्या  पुर्वजन्माचे  रहस्य  माहित  नव्हते  म्हणून  मी  या  विवाहास  विरोध  केला  होता  परंतू  आता  द्रौपदीचा  विवाह  या  पांडवांबरोबर  करण्याचा  मी  निश्चय  केला  आहे.  त्या  प्रमाणे  प्रथम  द्रौपदीचा  विवाह  युधिष्ठिर,  त्यानंतर  भीम,  अर्जुन,  नकुल    सहदेव  याच्या  बरोबर  शास्त्रीय  विधीनुसार  संपन्न  झाला.  द्रुपदाने  पांडवाना  भरपूर  दिव्य  नजराणे  हिरे-मोती  सोने,  चांदी  चे  अलंकार  प्रदान  केले.  प्रत्येक  विवाहाच्या  आधी  द्रौपदीला  कन्याभाव  प्राप्त  होत  असे.
पाचही  विवाहानंतर  द्रौपदीने  माता  कुंतीस  नमस्कार  केला  तेव्हा  कुंतीने  आशीर्वाद  दिला--हे  देवी,  जसे  इंद्राणी  इंद्रामध्ये,  स्वाहा  अग्निमध्ये,   दमयंती  नलराजामध्ये,  भद्रा  कुबेरामध्ये,  अरुंधती  वसिष्ठामध्ये,  आणि  लक्ष्मी  नारायणामध्ये,  भक्तीभाव    प्रेम  करते  तसेच  तू  आपल्या  सर्व  पांडवांमध्ये  अनुरक्त  हो.  तू  अनंत  सुखसंपन्न  होऊन  वीर  पुत्रांची  जननी  हो.  पतिव्रता  हो.  स्त्रीधर्माचे  पालन  तूझ्याकडून  व्हावे.  हे  कल्याणकारी  तूझा  महाराणी  म्हणून  राज्याभिषेक  व्हावा.  या  पृथ्वीवरची  सर्व  रत्ने  तूला  प्राप्त  व्हावी.  शंभर  वर्षे  तूला  सौख्य  लाभो.  मी  तूझे  अभिनंदन  करते. 
पांडवांचा  विवाह  संपन्न  झाल्यानंतर  भगवान  श्रीकृष्णाने  वैदुर्यमणीने  सुशोभित  सुर्वण-अलंकार,  बहुमूल्य  वस्त्रे    अमूल्य  नजराणे  पांडवांसाठी  पाठविले.  युधिष्ठिराने  अत्यंत  प्रसन्नतेने  श्रीकृष्णाच्या  प्रसन्नतेसाठी  त्या  सर्वांचा  स्विकार  केला.
स्वयंवरासाठी  आलेल्या  सर्व  राजांना  यथावकाश  समजले  की,  द्रौपदीचा  विवाह  शास्त्रीय  विधीनुसार  पांडवांबरोबर  झाला  आहे.  ज्या  ब्राह्मणाने  त्या  विलक्षण  धनुष्यास  प्रत्यंचा  लावून  वेगाने  फिरणाऱ्या  लक्ष्याचा  वेध  केला,  तो  ब्राह्मणाच्या  रूपामध्ये  पांडु-पुत्र  अर्जुन  होता.  स्वयंवरासाठी  आलेल्या  सर्व  राजांनी  द्रुपद  महाराजावर  आक्रमण  केले,  तेव्हा  त्या  सर्व  राजांचा  पराजय  पांडु-पुत्र  अर्जुन    भीमाने  केला  होता.  लाक्षागृहातून  कुंतीमातेसह  पांडव  सुखरूप  आहेत  हे  जाणून  सर्व  राजांना  आनंद  झाला.  त्यांचा  नवीन  जन्म  झाला  असे  ते  समजू  लागले.  त्यांनी  धृतराष्ट्र    भीष्म  यांचा  तिरस्कार  केला. 

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