Wednesday, 27 September 2017

भागवत का सार


भागवत का सार

  माहात्म्य  (पद्म  पुराण)
 श्री  गणेशाय  नमः।  सरस्वत्यै  तथा  नारायणाय  नमो  नमः।  भगवान  व्यासाय  नमो  नमः।    नमो  भगवते  वासुदेवाय।।१।।
 भौतिकताप  हरणके  लिये    मृत्युभय  नष्ट  करने    प्रसन्नता  हृदयमे    अध्ययन  करे  भागवतका  ।।२।।
 साधुसंग  हो  गये  पाखंडी    उनके  आश्रममे  नही  विरक्ती    बिल्कुल  नही  मंत्रशक्ती    प्रभाव  कलियुगका  ।।३।।
 ज्ञान  वैराग्य  भक्ती  निस्तेज।  कीया  वेदघोष  गीता  पाठ।  उपाय  भागवतका  पारायण ।  तुरंत  हो  गयी  प्रफुल्लता।।४।।
 भागवत  संकिर्तन  नित्य  करे।  सत्यभाषण  ब्रह्मचर्य  पालन  करे।  अतिकठिन  कलियुगमे    इसलिये  सप्ताहविधी।।५।।
 मोक्षप्राप्तीके  लिये  भागवत  सप्ताह।  प्रारंभ  करे  कार्तिक  मार्गशीर्ष    आषाढ  श्रावण  भाद्रपद  आश्विन।  शुभतिथीपर  ।।६।।
 वैष्णवजनको  स्नेहनिमंत्रण।  उनके  भोजन  निवासका  प्रबंध।  चित्त  कथामे  होने  का  है  उद्देश    कठीनाई    हो।।७।।
 सभामंडप  पुष्पसे  अलंकृत।  श्रोताके  आसन  प्रयोजन।  वक्ताके  लिये  दिव्य  सिंहासन।  जो  भागवत  वाङमयीन  मूर्ति।।८।।
 वक्ता  पूर्वाभिमुख  तो  श्रोता  उत्तराभिमुख।  वक्ता  उत्तराभिमुख  तो  श्रोता  पूर्वाभिमुख।  पूर्वाभिमुख।  श्रोते  और  वक्ता।।९।।
 वक्ता  होना  चाहिये  वेदशास्त्र  पंडित।  विष्णुभक्त  विवेकी  निस्पृह  ब्राह्मण।  तात्पर्य  समझानेमे  समर्थ    आत्मसाक्षात्कारी।।१०।।
 श्रोता  जिज्ञासु  होना  चाहिये    नही  केवल  मनोरंजनके  लिये    श्रीहरीभक्त  आत्मकल्याणके  लिये।  परमसत्यकी  जिज्ञासा।।११।।
 वक्ता  करे  क्षौर  सप्ताहके  पहले।  गणेश  पूजन  पितृ  तर्पण।  षोडशोपचारसे  भागवत  पूजन।  मंत्रोच्चारण  श्रीहरीका।।१२।।
 सप्ताह  निर्विघ्न  होनेके  लिये।  सात  दिन  अखंड  मंत्रोच्चारण।  पाच  ब्राह्मणोंके  द्वारा  संपन्न।    नमो  भगवते  वासुदेवाय।।१३।।
 सूर्योदयसमयी  संकिर्तन  करे  प्रारंभ।  दस  घडी  मध्यम  स्वरमे  प्रती  दिन    स्पष्ट  उच्चारसे  पठण।  एक  घडी  विश्राम  दोपहरमे  ।।१४।।
 सप्ताहामे  एकबार  अल्प  आहार।  इच्छाशक्ति  हो  तो  निराहार।  इसी  कारण  होई  एकाग्र  मनन।  एकचित्त  होना  महत्वपूर्ण।।१५।।
 ब्रह्मचर्यका  पालन।  अटल  श्रध्दासे  श्रवण।  विश्रांती  कालावधीमे  चिंतन।  होई  अंतिम  उद्दिष्ट  प्राप्त  आत्मसाक्षात्कार  ।।१६।।
 मौन  व्रत  करे।  कर्मयोगसे  कर्म  करे।  षडविकारोंपर  नियंत्रण  करे।  एकचित्तसे  श्रीहरीका  चिंतन  निरंतर।।१७।।
 सप्ताहके  बाद  करे  उद्यापन।  इच्छित  फलप्राप्तीके  लिये  उद्यापन।  हरीभक्त  ना  करे  उद्यापन।  उनका  कर्म  निष्काम  भक्ती।।१८।।
 उद्यापनी  वक्ता  और  ग्रंथ  पूजन।  वक्ता  देई  प्रसाद  तुलसीसह    शंखध्वनी  नाम  गजर    प्रसन्न  वातावरणमे।।१९।।
 विरक्त  श्रोता  करे  गीतापाठ।  गृहस्थ  श्रोता  करे  हवन।  दशम  स्कंधका  गायत्रीका  विधीपुर्वक।  कर्मशांतीके  लिये।।२०।।
 सप्ताहमे  अनावधानसे    दोष  निवृत्तिके  लिये    विष्णुसहस्त्रनामका  पाठ  करे    शांतीके  लिये  रामबाण  हैं।।२१।।
 ब्राह्मणोंको  सुग्रास  अन्नदान।  वक्ताका  करे  पूजन    वस्त्रदान  दक्षिणासहीत।  सुवर्णदान  भागवत  ग्रंथदान  प्रेमसे।।२२।।
 ये  वेदरूपी  कल्पवृक्षका  फल।  उसमे  है  मूर्तिमान  अमृत  रस    झिलका  नही  गुठली  नही    रसपान  करो  कलियुगी  ।।२३।।
 प्रगट  होई  सप्ताहमे    प्रल्हाद  ताल  उध्दव  मँजीरे  बजाये।  नारद  वीणा  तो  इंद्र  मृदंग  बजाये।  अर्जुन  शास्त्रीय  गायन।।२४।।
 सनकादि  जय  घोष  करे।  भक्ति  ज्ञान  वैराग्य  नृत्य  करे।  विष्णु  वरदान  करे    अलौकिक  कीर्तनमे  प्रसन्न  ।।२५।।
 ऐसे  अलौकिक  महोत्सवमे।  शुध्द  होई  अंतःकरण  वातावरण।  हरीभक्ति  दृढ  होई  हृदयमे।  ये  दुर्मिळ  योग  सत्कारणी  लगावो  ।।२६।।
 जिसको  दुःख  दारिद्र्य  है    जिसको  भुत  बाधा  है    जो  संसारी  भोगमे  आसक्त  है    उनके  लिये  भागवत  कथा।।२७।।
 सबी  पुराणोंमे  श्रेष्ठ  है  भागवत    उसमे  आत्माका  विवेचन    परमात्माका  परिपूर्ण  ज्ञान    जिज्ञासा  परमसत्यकी  ।।२८।।
 भागवतका  श्रवण   माहात्म्य  अलौकिक।  श्रवणसे  नष्ट  होई  सारे  पाप    प्राप्त  होई  मोक्षपद।  चाहीये  निरंतर  श्रध्दा।।२९।।
 भागवतमे  कर्मठ  कर्मकांड  नही।  रंजक  अर्थहीन  कथा  नही।  ऐहीक  सुखका  साधन  नही।  केवल  आत्मानुभूती  हैे।।३०।।

  माहात्म्य  (स्कंद  पुराण)
 अनेक  जन्मोंकी  साधनासे।  मनुष्य  स्वयं  सिध्द  होनेसे।  और  श्रीहरिकी  कृपासे    होती  है  भागवत  प्राप्ती।।१।।
 केवल  परमानंद  ही  है  भागवत।  श्रीमद  भागवतका  स्वरूप।  है  सच्चिदानंदमय  अक्षरस्वरूप।  सदा  एकही  है।।२।।
 जिसका  चित्त  श्रीकृष्णमे  एकरूप।  जो  भक्त  करे  श्रीकृष्णसंकिर्तन।  जो  भक्त  करे  एकचित्तसे  श्रवण।  वोही  भागवत  है।।३।।
 ज्ञान  विज्ञान  भक्तिका  सर्वोत्तम  निरूपण।  महामायाका  स्वरूप  समजके  त्याग।  आत्मसाक्षात्कार।  वोही  भागवत  है  ।।४।।
 विष्णुका  उपदेश  ब्रह्मदेवको।  वो  ज्ञान  केवल  ब्रह्मा  महेशको।  शुकदेव  परीक्षित  संवाद  सामान्योंको    वोही  भागवत  है  ।।५।।
 भागवतमे  बारह  स्कंध।  अध्याय  तिनसौ  पैस्तीस।  और  श्लोकसंख्या  अठारह  हजार।  ये  वाहमयस्वरूप  भागवतका  ।।६।।
 सात  दिनका  पारायण  राजस।  एकदोन  मासका  सात्विक।  बरसका  पारायण  तामस।  सर्वकाळ  कीया  तो  निर्गुणी।।७।।
 भागवत  श्रवण  करे  एकचित्तसे।  उपदेश  ग्रहण  करे  शिष्यत्वाने    चिंतन  करे  अटल  श्रध्देने।  वो  है  उत्तम  श्रोता।।८।।
 हृदयमे  नित्य  श्रीहरीध्यास।  निरपेक्ष  वृत्ती  सर्वाप्रती  समभाव।  तत्वज्ञानकी  उकल  करनेमे  चतुर।  वो  है  उत्तम  वक्ता।।९।।
 शुकदेव  करी  उपदेश  भागवतका।  परीक्षितको  सात  दिनमे।  क्योंकी  उसको  मृत्युशाप    इसलिये  वो  है  निर्गुणी।।१०।।
 हरीभक्त  होते  है  आतुर।  श्रवण  संकिर्तनके  लिये  व्याकुल।  नही  मोक्षकी  इच्छा    भागवत  ही  है  उनकी  संपत्ती।।११।।
 हरीभक्त  दोन  प्रकारके।  श्रीकृष्ण  प्राप्तीकी  इच्छा  करनेवाले।  श्रीकृष्णके  वैभवकी  इच्छा  करनेवाले।  दोनोंके  लिये  भागवत  है  ।।१२।।
 जिसको  इच्छा  श्रीकृष्ण  प्राप्तीकी।  वे  निष्काम  कर्म  करी।  देहाभिमान  नही  तो  अहंकार  नही।  क्योंकी  हृदयी  सिर्फ  प्रेम  हैे।।१३।।
 जिसको  इच्छा  वैभवकी।  उनके  कर्ममे  आसक्ती।  देहाभिमानसे   परमशांती  नही।  सारे  कर्ममे  फलकी  अभिलाषा।।१४।।
 इच्छामे  ही  सुखदुःख  है।  षडविकारोंका  दुष्टचक्र  है।  इसीका  भागवतमे  विडंबन  कीया  हैे।  भागवतमे  अपेक्षा  ना  करे।।१५।।
 श्रीहरी  उपदेश  करे  ब्रह्माको।  ब्रह्मा  नारदको  नारद  व्यासदेवको।  व्यास  शुकदेवको।  ये  है  भागवतकी  परंपरा।।१६।।
 विश्व  निर्मितीसमयी  प्रार्थना  ब्रह्माकी    श्रीहरीस्वरूप  जाननेकी।  तो  भागवत  उपदेश  चतुःश्लोकी    ये  है  मुल  भागवत।।१७।।
 नारद  आत्मतत्वका  प्रश्न  करे।  इच्छा  विश्वका  आधार  जाननेकी।  ब्रह्मदेव  उपदेश  करी।  ये  है  विस्तार  भागवतका।।१८।।
 व्यासदेव  हो  गये  उदास।  वेदपुराणका  कीया  अध्यापन    नारद  करे  भक्ति  उपदेश    वो  भागवतकी  प्रस्तावना।।१९।।
 व्यासने  कीया  भागवत  पुराण।  जिसमे  श्रीहरीगुणसंकिर्तन।  सिखाया  पुत्र  शुकदेवको    परमभक्त  है  पुर्ण  वैरागी।।२०।।
 शुकदेवका  उपदेश  परीक्षितको।  जो  शापके  कारण  प्राणांतिक  उपोषणपर।  प्रश्न  कीया  शुकदेवको।  अंतसमयी  कया  करे।।२१।।
 भागवतका  स्वरूप  संवादरूप।  परीक्षितको  शुकदेवका  उत्तर।  संपुर्ण  संवादका  एकही  आशय    अंतसमयी  कया  करे  ।।२२।।
 शुकदेव  सिवाय  सभीने  श्रवण  किया।  कोई  तो  कारणके  लिये    शुकदेवने  आत्मसात  किया    केवल  व्यासकी  आज्ञासे।२३।।
 आजका  ग्रंथ  सूतशौनकसंवादरूप।  कलियुगी  मानव  कल्याणके  लिये  प्रयास।  कथिले  गंगातटपर।  प्रत्यक्ष  मोक्षप्राप्ती।।२४।।
 भागवत  ग्रंथ  संस्कृतमे।  इसलिये  सामान्योंकेलिये    एकनाथाने  किया  मराठीमे।  केवल  भक्तिरूप  ग्यारहवे  स्कंधका।।२५।।
 उनकेही  वंशके  कृष्ण  दयार्णवने।  कीया  श्रीकृष्णलीलाके।  दशम  स्कंधका  निरूपण    मराठीमे  एकनाथकी  प्रेरणासे  ।।२६।।
 अभी  केवल  भागवतसप्ताह।  सात  दिन  कथा  मनोरंजन।  उत्सवका  अनावश्यक  झगमगाट।  आत्मतत्वका  संकल्प  नही।।२७।।
 इसलिये  भागवतका  अभ्यास  करो    प्रतिपाद्य  तत्वज्ञान  जानो।  कथा  स्पष्टीकरणके  लिये  है।  तो  ही  पकड  होगी  भागवतकी।।२८।।
 ये  एक  अध्यात्मिक  विचार।  क्या  करना  क्या  नही  करना  ये  उपदेश।  तिरस्कारका  नही  कारण।  भागवत  आज  उपयुक्त  है  ।।२९।।
 प्रयास  करे  भागवत  आचरणका।  जो  आज  हो  सकता।  उसके  लिये  चाहीये  तिव्र  जिज्ञासा।  बनाया  है  उपक्रम  अतिसुलभ।।३०।।

 स्कंध   ।।१।।
 सत्यरूप  परमात्मा  विश्वरूप।  प्रकृतीसे  भिन्न  सर्वत्र  स्थित।  सर्वदा  मायामुक्त  स्वयंप्रकाशित।  चिंतन  निरंतर  उस  परमात्माका।।१।।
 व्यासमुनीकृत  भागवत  पुराण।  सगुण  परमात्माका  निरूपण।  कामनारहित  परमधर्मका  साधन।  निर्मल  मनसे  श्रवण  करे।।२।।
 श्रीमद्  भागवत  श्रवण  नित्य।  तो  होते  है  श्रीहरि  संतुष्ट।  संकीर्तनमे  भक्तोंका  सहवास  अवश्य।  वृध्दिंगत  होई  ज्ञान  भक्ती  ।।३।।
 अंतःकरण  होई  शुध्द।  और  षडविकारका  निर्मूलन।  प्राप्त  होई  वैराग्य  भक्ती  ज्ञान।  चिंता  दुःख  दारिद्र्य  दुर्भाग्य  नष्ट  होई।।४।।
 अज्ञानसे  पार  होनेके  लिये    भागवत  उपदेश    शुकदेव-परीक्षित  संवाद  सूत  वर्णन  करे।  नैमिषारण्य  पवित्र  भूमिपर।।५।।
 धर्म  शास्त्र  पुराणे  अनेक।  परंतु  मार्ग  नही  निश्चित।  उनमे  अनेक  कर्मोंका  वर्णन।  आचरण  करना  कठीण  है  ।।६।।
 मानव  आयु  कम  कलियुगमे    आलसी  और  रूचि  नही  उपासनामे    असंख्य  दोष  कलियुगकी।  जीवन  दिशाहीन  हैे।।७।।
 व्यासदेवको  ज्ञान  कालातीत।  कलियुगमे  अधर्माचे  मानव  जीवन।  होगा  श्रध्दाहीन  शक्तिरहित।  ये  है  प्रभाव  कालका  ।।८।।
 ब्राह्मण-क्षत्रिय  कल्याणके  लिये।  वेद  निर्माण  किये।  वेदाध्ययन  जनकल्याणके  लिये।    विराट  स्वरूप  श्रीहरिका।।९।।
 वैश्य  शूद्रके  लिये  निषिध्द  वेदश्रवण।  उनके  लिये  महाभारत  पुराण।  श्रीहरीका  ज्ञानरूप  विश्लेषण।  विश्वरूप  श्रीहरिका।।१०।।
 व्यासदेवने  वेदके  चार  भाग  किये।  पुराणोंकी  रचना  की।  परिपूर्ण  है  ब्रह्मतेजसे।  लेकिन  हृदयमे  संतोष  नही।।११।।
 कारण  वेद  पुराणोंमे  है    निरूपण  धर्म-पुरुषार्थका    नही  निरूपण  श्रीहरिभक्तीका।  श्रीकृष्णके  यशका  गान  नही।।१२।।
 वेदोंका  तात्पर्य  श्रीकृष्ण।  यज्ञका  उद्दिष्ट  श्रीकृष्ण।  कर्मयोगका  ध्येय  श्रीकृष्ण।  फिर  भी  श्रीकृष्ण  प्रकृतीसे  भिन्न  ।।१३।।
 श्रेष्ठ  धर्म  श्रीकृष्णभक्ती।  श्रेष्ठ  साध्य  श्रीकृष्णप्राप्ती।  श्रेष्ठ  ध्येय  जन्ममरणमुक्ती।  परमात्मप्राप्ती  जीवन  होई  कृतार्थ।।१४।।
 भक्तियोगद्वारा  किया  श्रीहरिका  ध्यान।  हुवा  श्रीहरीलीलाका  आत्मसाक्षात्कार।  सिखाया  पुत्र  शुकदेवको।   भागवत  महापुराण  ।।१५।।
 शुकदेव  सर्वकाळ  आत्मानंदी।  नरनारीभेदशून्य  वैरागी।  विवश  होई  भागवतकथामे।  अपूर्व  महिमा  जिसमे  श्रीहरिका।।१६।।
 महाभारत  युध्दमे  कौरवोंका  सर्वनाश।  तब  अश्वत्थामाने  कीया  ब्रह्मास्त्र  प्रयोग।  उत्तराके  गर्भमे।  पांडववंश  नाशके  लिये  ।।१७।।
 व्याकुळ  उत्तरा  हुयीर्  शरणागत।  जगदीश्वर  श्रीकृष्णको।  भक्तरक्षक  श्रीकृष्णने  कीया  गर्भरक्षण।  वो  ही  है  परीक्षित  सम्राट  ।।१८।।
 परीक्षितको  दर्शन  श्रीकृष्णका।  माताके  उदरमे  हुवा।  इसलिये  ध्यास  श्रीकृष्णका।  जीवनभर  निरंतर  परीक्षितको।।१९।।
 सम्राट  परीक्षितने  किया  कलियुगका  दमन।  प्रजाको  दिया  शांती  समाधान।  कलियुग  हुवा  शरणागत।  अभय  दिया।।२०।।
 परीक्षितने  दिया  स्थान  कलियुगको।  द्यूत  स्त्रीसंग  हिंसा  सुवर्ण  मद्यपान।  जो  है  रजोगुणी  विकार।  आत्मघातकी  सर्वदा।।२१।।
 एक   दिन  परीक्षित  शिकारके  लिये  वनमे।  जलपानकी  आज्ञा  करे  आश्रममे।  शमीक  ऋषी  ध्यानमे।  निर्विकार  ब्रह्मरूप।।२२।।
 प्यिाससे  गला  सुखा  हुवा  पानी  नही।  अपमानसे  क्रोध  हुवा।  डाला  मरा  साप  मुनीके  गलेमे।  माना  झूठा  ढोंग  समाधिका।।२३।।
 इसलिये  शमीकपुत्रने  द्वेष  किया।  तपोबलसे  उच्चार  शापवाणीका।  आजके  सातवे  दिन।  तक्षकसर्प  डस  लेगा।।२४।।
 लेकीन  ऋषीने  शापका  अव्हेर  किया।  थोडीसी  गलती  बडा  दंड    श्रीहरिकी  प्रार्थना  की    राजा  श्रीहरीका  रूप  हैे।।२५।।
 परीक्षितको  हुआ  पश्चात्ताप।  निरपराध  ऋषी  किया  अपमान।  शीघ्र  घोर  विपत्ति  होना।  फिर  कभी  ऐसा  कर्म  नही।।२६।।
 मनोमन  किया  विचार।  संसारमे  आसक्त  बहोत  दिनोंसे।  शीघ्र  वैराग्य  होनेका  कारण    उसका  लाभ  जरूर  लिया।।२७।।
 सर्वत्याग  करके  परीक्षित  गंगातटपर।  आमरण  अनशनका  निश्चय  किया।  ऋषीमुनीको  प्रश्न  किया।  जीवनके  अंतकालका।।२८।।
 तब  व्यासनंदन  शुकदेव  प्रकट।  तेजस्वी  ब्रह्ममय  परम  शांत।  परीक्षितने  किया  स्वागत।  चरणोंपर  सिर  रखकर  प्रणाम।।२९।।
 परमसाधनके  संबंधमे  प्रश्न  किया।  जो  सर्वथा  मरणासन्न  है।  उसको  क्या  करना  चाहिये।  क्या  चिंतन  करे  क्या  त्याग  करे।।३०।।
 ये  शुकदेव-परीक्षित  संवाद  श्रवण।  स्मरणानुसार  बोल  रहा  हु।  शौनकके  लिये  नैमिष  भूमीपर।  आनंदसे  सुत  कहते  है  ।।३१।।

 स्कंध   ।।२।।
 शुकदेवने  कहा  लोकहित  का  प्रश्न  उत्तम  है।  आत्मज्ञानी  आदर  करते  है।  श्रीहरि  कृपा  बिना  स्मरण  नही    अन्यथा  अशक्य।।१।।
 परीक्षितने  प्रार्थना  की  उपदेशकी।  शुकदेवका  अधिकार  ब्रह्मासमान।  श्रीहरीलीला  गुणसंकीर्तन।  श्रवणसे  परमानंद  होता  है।।२।।
 अंतसमयी  श्रीहरीका  स्मरण  करेे    शरीरकी  ममता  काट  डाले  वैराग्यसेे।  धैर्यसे  एकान्ती  ध्यान  करे।  जप  करे    कारका।।३।।
 वासनाओंका  त्याग  करे।  मनको  भगवानके  रूपमे  लगावे।  स्वजन  मोह  ममता  नष्ट  करे    घबराये  नही  साक्षात  मृत्यूको।।४।।
 ब्रह्मतेज  प्राप्ती  बृहस्पति  उपासनेसेे।  संतानप्राप्ती  प्रजापती  उपासनेसेे।  वीरता  रुद्र  उपासनेसे।  अग्नि  उपासनेसेे  तेज  प्राप्त।।५।।
 आरोग्य  आश्विनी  उपासनेसेे।  राज्यप्राप्ती  विश्वेश्वर  उपासनेसेे।  विद्या  शिव  उपासनेसेे।  पार्वती  उपासनेसे  पतिपत्नी  प्रेम।।६।।
 विष्णुके  नेत्र  अंतरिक्ष  है।  कान  दिशाएँ  है  मुख  है  आग।  हृदय  है  अव्यक्तरूप    मन  है  चंद्रमा  मनुष्य  उनके  निवासस्थान  हैे।।७।।
 तलवे  है  पाताल  सिर  है  सत्यलोक।  स्तन  है  धर्म  पीठ  है  अधर्म    काल  उनकी  चाल  है    यह  विष्णुका  विराटरूप  है।।८।।
 सामान्य  जीव  मायामे  भ्रमित।  जहॉ  नही  परमानंदका  सुख।  संसारमे  देह  सुखका  उपभोग।  ये  खेल  है  त्रिगुण  प्रकृतीका।।९।।
 विरक्त  होकर  करे  चिंतन।  हृदयमे  श्रीहरीका  मनन।  हातमे  शंख  चक्र  गदा  पद्म।  ध्यान  करे  ऐसे  मनमोहक  रूपका।।१०।।
 मन  करे  निर्मल  इंद्रियांसहित।  अंतरात्म्यामे  बुध्दी  करे  समर्पित।  तो  प्राप्त  होगा  परमानंद    ये  ही  उत्तम  मार्ग  मुक्तीका।।११।।
 अंतसमयी  श्रीहरिध्यानसे  आत्मा  परमात्म्यामे।  शरीर  जायेगा  पंचतत्वमे।  तो  कुछ  नही  रहता।  परमात्मामे  मीलन  होता  है।।१२।।
 श्रीहरि  ज्ञानीजनोंका  आत्मा  है    श्रीहरीकी  शक्ती  महामाया।  परमसत्य  केवल  परमात्मा  है।  बाकी  सबकुछ  माया  ही  है।।१३।।
 श्रीहरीका  हृदय  तपस्या  है।  श्रीहरि  तपस्याका  आत्मा  है    श्रीहरीकी  शक्ती  तपस्या  है।  तपस्यासे  श्रीहरीका  दर्शन  होता  है।।१४।।
 श्रीहरिस्वरूप  सर्वज्ञता  असाध्य।  भक्तिसे  करे  सर्वस्व  अर्पण    तोे  मायाका  भ्रम  नष्ट  होगा।  अज्ञान  जायेगा  मै-मेरा।।१५।।
 समस्त  कर्मोंके  फल  श्रीहरी  देते  है    मनुष्य  कर्म  करता  है    उसकी  प्रेरणा  श्रीहरी  देते  है    कर्मयोगी  जानता  है  ये  सब।।१६।।
 माया  करती  है  भास  सृष्टीका।  होता  है  अहंकार  देहका।  इसलिये  आग्रह  परमसत्यका।  उनका  चित्त  मायासे  मोहित  नही।।१७।।
 श्रीहरिका  सगुणरूप  आनंदमयी।  सावला  रंग  पीतांबरधारी।  कानी  कुंडल  मुगुट  शिरावरी।  श्रीहरिका  रूप  सुवर्णालंकारयुक्त।।१८।।
 परीक्षित  कहते  है  मेरा  अज्ञान  दूर  हो  रहा    श्रीहरिकथा  श्रवणसे।  और  श्रीहरिलीला  कथन  करे।  जो  है  परमानंदमयी।।१९।।
 श्रीहरिने  अवतार  धारण  किये।  प्राणिमात्रोंके  कल्याण    धर्मभक्तोंकी  रक्षा    और  दुर्जनोंका  संहार  किया  ।।२०।।
 वराहने  हिरण्याक्षके  टुकडे  किये।  कपिलने  माताको  आत्मज्ञानका  उपदेश।  ऋषभदेव  योगचर्याका  आचरण    अत्रिको  दिया  सो  दत्त  ।।२१।।
 नरनारायणके  निर्मल  हृदय    हयग्रीवरूप  वेदमय    मत्स्यरूपमे  सत्यव्रतरक्षण।  कच्छपरूपमे  पीठपर  मंदराचल  धारण  ।।२२।।
 नृसिंहने  हिरण्यकश्यपू  वध।  वामनरूपमे  बलिगर्वहरण    श्रीरामरूपमे  रावणसंहार।  परशुरामने  किया  क्षत्रियगर्वहरण।।२३।।
 श्रीकृष्णका  अद्भुत  कलावतार।  व्यासरूपमे  वेदविभाजन    बुध्दरूपमे  उपधर्मोका  उपदेश।  कल्कीरूपमे  कलियुगका  शासन।।२४।।
 सृष्टिके  पूर्व  केवल  श्रीहरी।  इस  सृष्टिके  रूपमे  श्रीहरी  ही  प्रतीत  है    यह  सृष्टि  उनकी  माया।  यह  परमसत्य  जानो।।२५।।
 महत्तत्त्वकी  उत्पत्ती  है  सर्ग    सृष्टीका  निर्माण  है  विसर्ग    श्रीहरिकी  श्रेष्ठता  है  स्थान    भागवतके  दस  लक्षण।।२६।।
 श्रीकृपा  है  पोषण    धर्मका  अनुष्ठान  है  मन्वन्तर    कर्मबंधनकी  वासना  है  ऊती    श्रीहरिकथा  है  ईशकथा    ।।२७।।
 जीवका  परमात्मामे  लीन  होना  निरोध  है    परमात्मामे  स्थित  होना  मुक्ती  है    परब्रह्मही  आश्रय  है।  चिंतन  करे  ये  तत्त्वोंका।।२८।।
 संकल्पमात्रसे  सृष्टीका  निर्माण    सृष्टीमे  सर्वत्र  स्थित  है    मायाकार्यसे  पुर्णतः  मुक्त।  इसका  साक्षात्कार  होना  है  भागवत।।२९।।

 स्कंध   ।।३।।
 विदुर  महात्माको  उध्दवका  दर्शन    आत्मज्ञानका  उपदेश  मैत्रेयसे    श्रीकृष्णकी  आज्ञा  मैत्रेयको    स्वधामगमन  समयी  ।।१।।  २१५
 सुखके  लिये  कर्म  करते    सुख  मिलता  नही  दुख  मिटता  नही    क्या  करना  उचित  है    शांती  का  साधन  क्या  है  ।।२।।  २१७
 यह  सृष्टी  स्वप्नवत  है    स्वप्नमे  सिर  कटा  तो  भी  जागृतमे  कष्ट  नही    सभी  सृष्टी  मायावत  है    परमात्मा  ही  सत्य  है  ।।३।।  २२७
 सृष्टि  दस  प्रकारकी।  पहेली  सृष्टि  महत  तत्त्वकी।  सत्वगुणोंमे  विषमता  होना।  दुसरी  अहंकारकी  ज्ञानेंद्रिये  कर्मेंद्रिये  निर्माण।।४।।२४२
 सृष्टिच्या  पुर्वकाळी  एक    परमात्मा  होता  त्यातून  अनेकता  निर्माण  झाली  -  त्या  सृष्टितील  प्रत्येकाला  अहंकाराची  अस्तित्वाची  जाणीव  झाली
 तिसरी  भूतसर्गकी  पंचमहाभूतोंकी।  चौथी  इंद्रियोंकी  ज्ञानक्रिया  शक्तीकी।  पाचवी  इंद्रियांधिष्ठित  देवतोंकी।  मनकी  निर्मिती।।    ।।
 छठी  अविद्याकी  षड्-विकारोंकी।  सातवी  वैकृत  वनस्पतींकी।  आठवी  पशुपक्ष्योंकी  तमोगुणोंकी।  खाना  पीना  सोना  यह  क्रियाज्ञान।।६।।
 नवी  मनुष्योंकी  बुध्दिका  ज्ञान।  रजोगुणप्रधान  कर्मपरायण।  दसवी  देवसृष्टि  गंधर्व  अप्सरा  देव  गण।  आठ  प्रकारकी।।७।।
 जलमे  डूबी  पृथ्वीको    वराहभगवानने  अपने  दाढोपर  निकालकर    कालचक्रमे  स्तापित  किया    हिरण्याक्षका  वध  किया  ।।८।।
 दो  प्रकारके  लोग  सुखी    पुर्ण  अज्ञानी  और  पुर्ण  ज्ञानी    बीचकी  श्रेणीके  संशयी  लोग    दुःख  भोगते  है  ।।९।।  २२८
 सनकादि  मुनियोंका  अपमान    जयविजय  पार्षदोंके  द्वारा    स्वयं  भगवानने  क्षमा  याचना  किया    सनकादिसे  ।।१०।।  २७५
 महातपस्वी  कर्दमजीसे    मनुने  प्रार्थना  की  देवहुति  कन्याको    पत्नीके  रूपमे  स्विकार  करनेकी    जो  शीलवान  है  ।।११।।३०५
 कर्दमजीने  स्विकार  किया  देवहुतिका    एक  शर्तके  साथ    संतान  होनेतक  गृहस्थधर्म    उसके  बाद  संन्यास  ।।१२।।
 देवहुतिने  पतिदेवकी  सेवा  की    कर्दमजी  होई  प्रसन्न    दिवय  शरिर  प्रदान  किया    गृहस्थधर्मके  सुख  भोगनेके  लिये  ।।१३।।
 देवहुतिके  गर्भसे  कपिलभगवानका  जन्म    सांख्यका  उपदेश  करनेके  लिये    कर्दमजी  वनको  चले    पुत्रको  प्रणाम  करके।।१४।।
 इंद्रियोंकी  विषयलालसामे  फसी    अज्ञान  अंधकारमे  पडी  हु    मै  मेरेपनका  दुराग्रह  होता  है    उपदेश  कीजीये  ।।१५।।  ३२०
 कपिलजीने  कहा  अध्यात्मयोग  ही    मनुष्योंके  आत्यंतिक  कल्याणका    मुख्य  साधन  है    यह  मेरा  निश्चय  है  ।।१६।।३२१
 सारा  जगत  जिससे  व्याप्त  होकर  स्वयंप्रकाशित    पह  परमात्मा  पुरूष  है    अनादि  निर्गुण  प्रकृतिसे  परे    परमसत्य  ।।१७।।  ३२५
 त्रिगुणात्मक  प्रकृति  कार्य  करती  है    सत्त्व  रज  तम  गुणोंकी  है    भगवानकी  कार्यशक्ती  दासी  है    मायास्वरूप  ।।१८।।
 बंधनका  और  मोक्षका  कारण    विषयोंमे  आसक्त  होनेपर  बंधन    परमात्मामे  अनुरक्त  होनेपर  मोक्ष    मनको  जानो  ।।१९।।  ३२१
 जैसे  जलमे  प्रतिबिंबीत  सूर्यको    जलकी  शीतलताका  संबंध  नही    प्रकृतिके  कार्य  शरिरमे  होनेपर  भी    आत्मा  निर्लेप  है  ।।२०।।  ३३२
 किंतु  आत्मा  जब  अहंकारसे    मै  कर्ता  हु  समजने  लगे    तोे  देह  संसर्गसे  कर्मोंके  दोषी  होकर    संसारके  चक्रमे  घुमता  है  ।।२१।।
 शुध्द  होनेपर  मनुष्यजन्म    गर्भमे  आत्मज्ञान  होता  है    संसारमे  आनेके  बाद  विस्मृति    देहका  अहंकार  होता  है  ।।२२।।३५०/५४
 स्त्रीमे  आसक्त  रहनेसे  स्त्रीयोनी  प्राप्त    वह  स्त्री  मायारूप  पुरूषको  पति  समजती    जो  मृत्युरूप  है    नाशीवंत  है  ।।२३।।३५६
 भगवानके  प्रति  सहज  प्रवत्ति  है  भक्ती    निष्काम  और  अनन्य  प्रेम  होना    जो  मोक्षका  भी  तिरस्कार  करते    बंधनमुक्त  ।।२४।।३२३
 भगवान  आत्मारूपसे  सभी  जीवोमे  स्थित    इसलिये  सर्वभूतस्थित  भगवानका    अनादर  करके  प्रतिमा  पूजन    स्वाँगमात्र  ।।२५।।३४४
 निष्काम  भक्तीसे  आसक्ति  कम  होती  है    क्योंकी  ज्ञानसे  मालूम  होता  है    यह  संपूर्ण  सृष्टि  असत्य  है    भगवान  ही  सत्य  है  ।।२६।।
 संपूर्ण  संसारमे  आसक्तिका  अभाव    हो  जाना  यही  योगसाधनाका    एकमात्र  अभीष्ट  फल  है    उसीका  आचरण  करे  ।।२७।।३६०
 यह  आत्मसाक्षात्कारका  साधनरूप  ज्ञान  है    इसके  द्वारा  प्रकृति  और  पुरूष  के    यथार्थ  स्वरूपका  बोध    होता  है  ।।२८।।  ३६०
 यह  परमज्ञान  दुष्ट  घमंडी  दुराचारीको    कदापी  ही  नही  सुनाना  चाहिये    लेकीन  भगवानके  भक्तोंको  अवश्य  सुनाइये  ।।२९।।
 यह  कपिलदेवजीका  अध्यात्मयोग    गूढ  रहस्य  है    जो  इसका  श्रवण  या  वर्णन  करेगा    भगवद्  भक्ती  प्राप्त  होगी  ।।३०।।
 लेकीन  दृढ  विश्वास  होना    अत्यंत  आवश्यक  है    जो  मोक्ष  प्राप्त  कराता  है    जो  मानते  नही  जन्ममृत्युचक्रमे  जाते  है  ।।३१।।

 स्कंध   ।।४।।
 महर्षि  अत्रिने  घोर  तपस्या  की।  एकही  पैरसे  खडे  होकर।  सौ  बरसतक  केवल  वायु  पीकर।  मनमे  प्रार्थना  ईश्वरसमान  संतानकी  ।।१।।
 तपस्या  हुई  सफल।  तिनो  देवोंका  साक्षात  दर्शन।  ब्रह्मा  विष्णु  महेश  विलोभनीयरूप    है  तीन  रूपे  एकही  परमात्माकी  ।।२।।
 ब्रह्मदेवके  अंशसे  चंद्रमा।  विष्णूके  अंशसे  योगवेत्ता  दत्तात्रेय।  महादेवके  अंशसे  दुर्वासा।  पुत्ररूपमे  प्रगट  हो  गये  जगतविख्यात  ।।३।।
 महादेव  जगद्गुरू  शांतस्वरूप।  पापनिवारक  परमेश्वर  यज्ञस्वरूप।  भक्तोंको  देते  है  मोक्षपद  सहज।  दक्षका  गर्वहरण  कीया  ।।४।।
 सती  कहती  है    स्वमीकी  निंदा  रोकनेकेलिये    आपके  अंगसे  उत्पन्न  शवतुल्य    शरीरको  त्याग  रही  हु    योगाग्नीमे  भस्म  ।।५।।
 महादेव  अग्निस्वरूप  शुध्द  चिन्मय।  परमात्मास्वरूप  आनंदमय।  समस्त  अंतःकरणोंके  साक्षी    आपको  नमस्कार  करते  है।।६।।
 महादेवजीका  यह  पावन  चरित्र    यश  आयुको  बढानेवाला  है    जो  भक्तीभावसे  चिंतन  करे    अवश्य  पापमुक्त  होते  है  ।।७।।
 अपमानित  ध्रुवने  बचपनमे।  मधुवनमे  घोर  तप  किया।  नारदजीने  उपदेश  दिया।  एकचित्त  प्राणायाम  करके  ध्यानका।।८।।
 प्रथममासमे  केवल  फल  खाकर।  दूसरे  मासमे  पत्ते  खाकर।  सिध्द  मंत्रका  ध्यास  निरंतर।    नमो  भगवते  वासुदेवाय।।९।।
 तिसरे  मासमे  केवल  जल  पीकर    चौथे  मासमे  वायु  पीकर।  पाचवे  मासमे  एक  पैरसे  खडे  होकर    चित्तको  भगवानमे  लगाया  ।।१०।।
 जो  ध्यान  था  हृदयमे  भगवानका    वो  ही  सगुण  रूप  प्रगट  हुवा।  परमानंदस्वरूप  ध्रुवके  सामने।  सर्वशक्तिसंपन्न  सर्वज्ञ  परमात्मा  ।।११।।
 साक्षात  भगवान  है   नित्यमक्त।  शुध्द  सत्त्वमय  निर्विकार  आदिपुरूष।  यज्ञाधिष्ठाता  विष्णुरूप।  यह  ब्रह्मस्वरूप  जानना  चाहिये  ।।१२।।
 भगवानने  दिया  ध्रुवलोकपद।  जो  हैे  अविनाशी  मंगल  तेजोमय।  प्रदक्षिणा  करते  है  ग्रह  नक्षत्र  तारांगण।  स्थिर  है  युगयुगसे  ।।१३।।
 पश्चात्तापसे  ध्रुव  कहते  है    भगवानका  दर्शन  अति  दुर्लभ।  जो  भक्तिदाता  मुक्तीदाता  है    नाशवान  वस्तुकी  ही  याचना  की  ।।१४।।
 अंतसमय़ी  प्राप्त  हो  गयी  ध्रुवको।  परमानंदी  विष्णुधाममे  निवास।  जो  है  वंदनीय  दिव्य  प्रकाशमान।  निष्काम  भक्तोंका  निवास  ।।१५।।
 यह  ध्रुवचरित्र  पवित्र  मंगलमय।  देवत्व  प्राप्त  करनेवाले  प्रशंसनीय  है    जो  श्रध्दासे  बार  बार  सुनते  है    भगवानकी  भक्ति  मिलती  है।।१६।।
 पृथुराजा  साक्षात  नारायण।  कीया  पृथ्वीका  प्रजाका  उध्दार।  प्रजाको  आत्मज्ञानका  उपदेश  दिया।  सभी  प्रजाजन  सुखी  हो  गये।।१७।।
 पृथ्वीका  मंथन  करके    औषधी  वनस्पती  खनिजद्रव्य    निकालकर  प्रजाको  बाँट  दिया    सम्राट  पृथुराजाने  ।।१८।।
 आत्मा  शुध्द  अकर्ता  स्वयंप्रकाशित।  निर्गुण  निर्विकार  सर्वव्यापक।  आवरणशून्य  चैतन्यस्वरूप।  शरीरसे  पुर्णतः  भिन्न  हैे।।१९।।
 शरीर  पंचधातुसे  बना  है    त्रिगुण  प्रकृतीसे  निगडीत।  षडविकारसे  होता  है  कर्मबंधनयुक्त।  नाशिवंत  है  मायास्वरूप  ।।२०।
 जो  यह  जानता  है  शरीर  ज्ञान  क्रिया  और  मनका  साक्षी  होने  परभी    आत्मा  निर्लिप्त  है    मोक्षपद  प्राप्त  करता  है  ।।२१।।
 संसारमे  आसक्त    होकर    निरपेक्ष  वृत्तीसे  धर्माचरण  करना।  विकार  नष्ट  होंगे  भक्ती  वैराग्यसे।  अंतःकरण  शुध्द  होगा।।२२।।
 जो  राजा  धर्मकी  शिक्षा    देकर    केवल  कर  वसुल  करनेमे  लगता  है    प्रजाके  पापका  भागी  होता  है    साम्राज्य  हास  होता  है  ।२३।।
 श्रीहरिचरणी  भक्ती  अविचल।  जी  प्राप्त  होणे  महाकठीण।  परंतू  प्राप्त  झाल्यावर  हृदय  निर्मळ।  अन्यथा  केवळ  अशक्य  आहे।।२४।।
 गुरूवचनोंमे  विश्वास  रखनेसे।  भागवतधर्मोका  आचरण  करनेसे।  तत्त्वकी  जिज्ञासासे।  कर्मयोगसे  वैराग्य  बढता  है।।२५।।
 ज्ञानयोगकी  निष्ठासे    भगवानकी  उपासनासे    भगवानकी  लीला  सुननेसे    भगवानमे  अनुराग  उत्पन्न  होता  है  ।।२६।।
 ज्ञानसे  देहबुध्दिको  भूल  जानेके  बाद    अहंकार  नष्ट  होता  है    गुणविकारके  बंधन  छूट  जाते  है    इसलिये  परमसत्य  जानो  ।।२७।।
 पृथुराजा  अभिष्ट  अर्थोको  बाँटते    समुद्रके  समान  गंभीर   पर्वतके  समान  धैर्यवान    वात्सल्यमे  मनुके  समान  थे  ।।२८।।  ४८३
 यह  पृथुचरित्र  परमपावन  है    जो  इसे  एकचित्तसे    पढता  सुनता  अथवा  सुनाता  है    भगवानके  परमधामको  जाता  है  ।।२९।।
 सकामभावसे  पाठ  करनेसे  ब्राह्मणको  ब्रह्मतेज।  क्षत्रियको  राजभोग  वैश्यको  वैभव।  शूद्रको  साधुभाव।  अवश्य  प्राप्त  होता  है  ।।३०।।
 गृहस्थाश्रमी  पुरंजन  रूपकसे    परोक्षरूपमे  यह  अद्भूतज्ञान    जो  सुनेगा  श्रध्दासे  वह  देह  बंधनसे  मुक्त  होगा  ।।३१।।

 स्कंध   ।।५।।
 राजश्री  नाभीके  कर्मोंका  आचरण  महान  है    इसीसे  संतुष्ट  होकर    भगवानने  उनके  घर  जन्म  लिया।।१।।      
 ऋषभदेव  आनंदानुभवस्वरूप    धर्मपरायण  कर्मयोगी  है    वेदरहस्य  जाननेवाले  है    भूषणस्वरूप  सम्राट  थे  ।।२।।
 मनुष्यजन्म  भोगके  लिये  नही    तप  करनेके  लिये  है    जिससे  अंतःकरण  शुध्द  हो    इसीसे  ब्रह्मानंद  प्राप्त  होता  है  ।।३।।५५८-५९
 महापुरूषोंकी  सेवासे  मुक्ति    स्त्रीसंगी  कामवासनेसे  नरक  मिलता  है    इसलिये  विवेकबुध्दिसे  धर्माचरण  करना  ।।४।।५५९
 जबतक  आत्मतत्त्वकी  जिज्ञासा  नही    तभीतक  देहबुध्दि  रहेगी    जिज्ञासा  हो  जाये  तो  ही  आत्मानुभूती  हो  सकती  है  ।।५।।
 जबतक  कर्मोमे  फसा  है    तबतक  कर्मकी  वासना  मनमे    देहबंधन  होता  है    कर्मका  अहंकार  होता  है  ।।६।।  ५६०
 जब  वासुदेवमे  प्रिती  होती  है    तो  देहबंधन  अपनेआप  छुट  जाते  है    नश्वर  देहका  स्वरूप  समजकर    आत्मस्वरूप  जान  लेता  है  ।।७।।
 देहबुध्दिके  कारण  मै  मेरेपनका  भाव    घरखेत  पुत्र  स्वजन  धन  मे  मोह    जो  क्षणिक  सुख  देते  है    भासमान  ही  है  ।।८।।
 संपुर्ण  चराचर  भूतोंको  भगवान  समजकर    शुध्दबुध्दिसे  सबकी  सेवा  करो    यही  भगवानकी  सच्ची  पूजा  है  ।।९।।५६३
 परमहंसोंको  त्यागकी  शिक्षा  देनेके  लिये    योगचर्याओंका  आचरण  किया    बिल्कुल  देहबुध्दि  नही    आत्मसाक्षात्कार  ।।१०।।५६५
 अनेक  प्रकारकी  सिध्दी    अपनेआप  ऋषभदेवजीके  पास  आयी    परंतु  ग्रहण  नही  किया    कारण  देहबुध्दि  ही  नही  ।।११।।५६६
 ऋषभदेवजीका  यह  अवतार    रजोगुणोंसे  भरे    लोगोंको  मोक्षमार्गकी  शिक्षा    देनेके  लिये  ही  हुवा  है  ।।१२।।५६७
 निरंतर  विषयभोगोंकी  अभिलाषाके  कारण    वास्तविक  श्रेयसे  बेसुध  लोगोंको    निर्भा  आत्मलोकका  उपदेश  दिया  ।।१३।।
 ऋषभदेवजीका  यह  विशुध्द  चरित्र    श्रध्दासे  सुनते  है  या  सुनाते  है    दोनोंको  भगवानकी  भक्ति  परमशांती  मिलती  है  ।।१४।।
 पुलहाश्रममे  भरत  भगवानका  ध्यान  करते  है    भकक्तियोगका  आचरण  निरंतर    फिरभी  मृगयोनिमे  फस  गया    मोहसे  ।।१५।।५७१
 मृगकी  आसक्तिमे    भरतजी  योगानुष्ठानसे  च्युत  हो  गये    आत्मस्वरूप  को  भूल  गये    यह  महामायाका  प्रभाव  है  ।।१६।।५७५
 मृगयोनिसे  मुक्त  होकर    मनुष्ययोनि  प्राप्त    कृपासे  पुुर्वजन्मोंका  स्मरण    आत्मानंदमे  निमग्न  शरीरकी  आसक्ति  नही  ।।१७।।
 जडभरतने  रहुगणराजाको  शिक्षा  दी    यथार्थ  तत्त्वका  उपदेश  दिया    जो  देहात्मक  बुध्दिका  अज्ञान  नष्ट  करता  है  ।।१८।।५८४
 किसी  भी  कारणसे  उत्पन्न  होनेवाला    वाःसिधद  ज्ञानानंदस्वरूप  आत्मज्ञान    प्राप्त  हुवा  था    जडभरतजीको  ।।१९।।५७८
 इसी  कारण  शीतोष्ण  मानापमान  ये  द्वन्दोंसे    होनोवाले  सुखदुःखो    देहाभिमानकी  स्फुर्ति  नही  होती  ।।२०।।  ५७८
 स्थूलता  कृशता  आधि  व्याधि   भूख  प्यास  भय  कलह    इच्छा  बुढापा  निद्रा  प्रेम  क्रोध    ये  सब  देहाभिमानके  लिये  ।।२१।।
 मनुष्यका  मन  वासनामय    विषयासक्त  गुणोंसे  प्रेरित  विकारी  है    यही  मन  उत्तमता  और  अधमताका  कारण  है  ।।२२।।५८७
 जैसे  वायु  सब  प्राणियोंमे  प्रविष्ट  होकर  प्रेरित  करती  है    वैसे  ही  भगवान  सर्वसाक्षी  आत्मरूपसे  संपूर्ण  प्रपंचमे  ओतप्रोत  है  ।।२३।।  ५८८
 जबतक  मनुष्य    मायाका  तिरस्कार  करके  आसक्तिको  छोडता  नही    तबतक  आत्मतत्त्वको    जान  नही  सकता  ।।२४।।  ५८९
 मनुष्य  पृथ्वीका  विकार  है    पृथ्वीसेही  उत्पन्न  होता  है    पृथ्वीमेही  लीन  होता  है    लेकिन  देह  जो  आत्मा  है  वो  ही  सत्य  है  ।।२५।।५९०
 यह  आत्मज्ञान  नही  होता    केवल  तपसाधना  अन्नदान  वैदिक  कर्म    अतिथिसेवा  धर्मानुष्ठान  वेदाध्ययन    करनेसे  ।।२६।।
 इसीलिये  महापुरूषोंके  चरणोंकी  धूलिसे  अपनेको  नहलाना    चाहिये    तो  ही  अहंकार  चला  जाता  है    सत्संग  महिमा  ।।२७।।५९१
 महापुरूषोंके  सत्संगसे    मोह  बंधन  कट  जाते  है    भगवानके  लीलाओंके  कथन  श्रवणसे    संसारमार्ग  सुगमसे  पार  होता  है  ।।२८।।
 त्रिगुणात्मक  स्वभाव  और  श्रध्दाके    भेदसे  कर्मोंकी  गतिया  भिन्न  है    पाप  करर्मोंके  परिणामसे  नरक  गतिया  है  ।।२९।।६५१
 समस्त  योनीयोंमे  मनुष्यजन्म  श्रेष्ठ  है    मनुष्यको  ही  विचारशक्ती  है    कर्मफलोंके  परिणाम  समजते  है    दुसरे  योनीमे  नही।।३०।।५९५
 सत्वगुणोंकी  वृध्दीसे    मायाके  स्वरूप  जान  लेता  है    पुण्य  कर्मोंके  परिणाममे  विष्णुधाम  प्राप्त  होता  है    यही  ध्येय  है  ।।३१।।

 स्कंध   ।।६।।
 नरकमुक्तिके  लिये  प्रायश्चित्त  जरूरी  है    कर्मसे  प्रायश्चित्त  अशक्य    क्योंकी  कर्मका  आधिकारी  अज्ञाता  है  ।।१।।६६२
 इसलिये  सच्चा  प्रायश्चित्त  तो  तत्त्वज्ञान  ही  है    आत्मज्ञानसे  मन  वाणी  और  शरीर  द्वारा    किये  गये  पाप  नष्ट  होते  है  ।।२।।
 मनुष्योंके  कर्मके  साक्षी  है    चंद्रमा  सूर्य  आकाश  अग्नि  वायू  जल  पृथ्वी।  दिन  रात  काल  संध्या    इंद्रिये  दिशाऐ  और  धर्म  ।।३।।
 जो  मनुष्य  अज्ञानवश  छह  विकारोंपर    विजय  प्राप्त  नही  कर  लेता    उसे  अनेक  कर्म  करने  पडते  है    वासनाओंके  अनुसार  ।।४।।६६६
 पृथ्वीपर  तीन  प्रकारके  मानव।  पुण्यात्मा  पापात्मा  और  पुण्य  पाप  दोनेसे  युक्त    परलोकमे  पुण्य  पाप  कर्मके  अनुसार  गती  ।।५।।
 जो  प्रजाके  रक्षक  है  शासक  है    यदि  वे  ही  प्रजाके  प्रति  विषमताका  व्यवहार  करने  लगे    तो  फिर  प्रजा  किसकी  शरण  लेंगी  ।।६।।६६९
 अजामिळने  पाप  राशिका  प्रायश्चित्त  किया    क्योंकी  उसने  विवशमेही    भगवानके  कल्याणमय  नामका    उच्चारण  किया  ।।७।।६६९
 नारायण  नामोच्चारणमे  बडा  प्रायश्चित्त  है    क्योंकी  नामोच्चारणसे  बुुध्दि  भगवानके  गुणमे  लग  जाती  है    जिससे  आत्मज्ञान  होता  है  ।।८।।
 परमात्मा  संपूर्ण  जगतमे  ओतप्रोत  है    जैसे  वस्त्रमे  सूतके  समान    उन्हीके  अंश  ब्रह्मा  विष्णु  महेश  कार्य  करते  है    अपना  अपना  ।।९।६७८
 भगवानके  नामोच्चारणसे    भक्तिका  उदय  होता  है    भक्तिसे  ही  अंतःकरणकी  शुध्दि  होती  है    जो  व्रत  तपसे  नही  होती  ।।१०।।६८१
 दक्षने  नारदजीको  शाप  दिया    भटकते  रहो  ठहरनेको  ठौर  नही  होगी    नारदजीने  स्विकार  किया    उपकार  सह  लेना  साधुभाव  है  ।।११
 बारह  महापुरूष  भागवततत्त्व  जानते  है    ब्रह्माजी  नारद  शंकर  मनु  यम।  कपिल  जनक  बलि  भीष्म  शुकदेव    सनकादि  और  प्रल्हाद  ।।१२।।
 तपस्या  भगवानका  हृदय।  आकृती  कर्म  है  विद्या  है  शरीर।  धर्म  है  मन  देवता  है  प्राण।  विश्वकी  वृध्दिके  लिये   तपस्या  ।।१३।।  ६८८
 भयका  अवसर  उपस्थित  होनेपर    नारायणकवच  धारण  करके    अपने  शरीरकी  रक्षा  करनी  चाहिये    विश्वरूपने  उपदेश  दिया  ।।१४
 शत्रूपर  विजयके  लिये  है  नारायणकवच    मंत्रजागर  करे  ॐनमो  नारायणाय।  ॐनमो  भगवते  वासुदेवाय।    विष्णवे  नमः।।१५।।
 ॐकारस्वरूप  प्रभु  सब  प्रकारसे  सब  ओरसे    मेरी  रक्षा  करे    मत्स्य  भगवान  जलजंतुओंसे    वामनभगवान  स्थलपर  आकाशमे  विश्वरूप१६
 जंगल  और  रणभूमीमे  नृसिंह    मेरी  रक्षा  करे    वराह  भगवान  मार्गमे  परशुराम  पर्वतोंके  शिखरोंपर    प्रवासके  समय  श्रीराम  ।।१७।।
 भगवान  नारायण  भयंकर  अभिचारोंसे  मेरी  रक्षा  करे    ऋषीश्रेष्ठ  नर  गर्वसे    दत्तात्रेय  योगके  विघ्नोंसे    कपिल  कर्मबंधनोंसे  ।।१८।।
 सनत्कुमार  कामदेवसे  मेरी  रक्षा  करे    हयग्रीव  मार्गमे  चलते  समय    नारदजी  सेवा  अपराधोसे  भगवान  कच्छप  नरकोंसे  ।।१९।।
 भगवान  धन्वंतरि  कुपथ्यसे  मेरी  रक्षा  करे    भगवान  ऋषभदेव  सुख-दुःखभय  द्वंद्वोंसे    बलरामजी  मनुष्यकृत  किये  कष्टोंसे  ।।२०।
 भगवान  शेषजी  सर्पोंसे  मेरी  रक्षा  करे    व्यासजी  अज्ञानसे  बुध्ददेव  पाखंडियोंसे  और  प्रमादसे   कल्किभगवान  कलिकालके  दोषोंसे  ।२१।
 प्रातःकालमे  केशव  मेरी  रक्षा  करे    सुबहमे  गोविंद  दोपहरके  पहले  नारायण    दोपहरको  भगवान  विष्णु    तीसरे  पहरमे  मधुसूदन  ।।२२
 सायंकालमे  माधव  सूर्यास्तके  बाद  हृषीकेश    अर्धरात्रीके  समय  पद्मनाभ  रात्रिके  पिछले  प्रहरमे  श्रीहरि  उषाकालमे  जनार्दन  ।।२३।।
 इस  नारायणकवचको  धारण  करनेवाला    जिसको  भी  अपने  नेत्रोंसे  देख  लेता    वह  तात्काल  समस्त  भयोंसे  मुक्त  होता  है  ।।२४।।
 जगतके  घरधन  जन  और  शरीर  क्षणभंगुर  है    ये  अपने  किसी  काम  नही  आते   अंतमे  दुसरोंके  ही  काम  आयेंग  ।।२५।।  ७१९
 स्त्री  घरधन  है  मोह  शोकके  कारण    मनके  खेल  किलौने    सर्वथा  कल्पित  और  मिथ्या  है    जादूके  समान  है  ।।२६।।  ७४३
 जिनके  पास  ज्ञान  वैराग्यका  बल  है    जो  भगवानके  चरणोंमे  भक्तिभाव  रखते    उनकेलिये  किसीसेभी  रागद्वेष  नही  होता  ।।२७।।७५५
 कश्यपजीने  रूष्ट  होकर  बताया    दितीको  पुंसवनव्रत  पुत्रप्राप्तीकेलिये    एक  बरस  व्रताचरण  अतिकठिन    त्रुटि  होना  नही  ।।२८।।७६१
 मार्गशीर्ष  शुक्ल  प्रतिपदासे  व्रतका  आरंभ    श्वेत  वस्त्र  धारण  करे    भगवान  नारायणकी  उपासना  करे  ।और  ब्रह्मचर्यका  पालन  ।।२९।।७६५
 इस  व्रतसे  स्त्रीको  सौभाग्य    कन्याको  उत्तम  पति  विधवेको  वैकुंठप्राप्ती     कुरूपाको  सौंदर्य    रोगमुक्ती  आरोग्य  प्राप्ती  होती  है  ।।३०।७६८

 स्कंध   ।।७।।
 भगवान  निर्गुण  अजन्मा  अव्यक्त  है    अवतारकार्यके  लिये  मायाके  गुणोंको  स्विकार  करते  है    ।।१।।  ७७३
 अपना  मन  भगवानमे  तन्मय  करना    कामसे  द्वेषसे  भयसे  स्नेहसे    भगवानको  यह  भेद  नही  है  ।।२।।७७६
 आत्माको  शरीर  समज  लेना  अज्ञान  है    इसकेद्वारा  कर्मबंधनसे  संसारमे  भटकना  पडता  है    आत्मा  अविनाशी  है  ।।३।।७८१
 इसलिये  शरीर  और  आत्माका  तत्त्व  जाननेवाले    अनित्य  शरीरके  लिये  शोक  नही  करते    शरीर  नाशीवंत  है  ।।४।।७८४
 हिरण्यकश्यपने  किया  अत्यंत  दारूण  तपस्या।  पैरके  अंगुठेपर  खडे  होकर    एकछत्र  सम्राट  होनेके  लिये     ।।५।।७८६
 पृथ्वी  डगमगाने  लगी    समुद्र  खोलने  लगा    चारो    आग  फैल  गयी    ब्रह्माजीने  वर  दिया  हिरण्यकश्यपको  ।।।६।।७८६
 मनुष्य  पशुप्राणीसे  मृत्यू  नही।  देवता  दैत्यसे  मृत्यु  ना  हो    भीतर  बाहर  दिनमे  रात्रीमे  शस्त्रसे    पृथ्वीपर  नही  आकाशमे  ।।७।।७९०
 प्रल्हाद  हिरण्यकश्यपका  पुत्र।  बचपनमे  ही  खेलकूद  छोडकर    भगवानके  ध्यानमे    तन्मय  होते  थे    परमप्रेमी  ।।८।।७९५
 पशुबुध्दिके  कारण  मै  मेरापनका    झूठा  भेदभाव  होता  है    भगवानकी  मायासे    अपना  पराया  ये  झूठा  दुराग्रह  ।।९।।७९७
 मनुष्यजन्म  बडा  दुर्मिळ    इसके  द्वारा  आत्मज्ञान  हो  सकता  है    पता  नही  अंत  कब  होगा।  इसीलिये  अभीसे  साधना  करो।।१०।।८०३
 बचपनमे  खेलकूद    गृहस्थीमे  कामनाए  है  संसारकी  आसक्तिमे  फँसा    बुढापा  शरीरको  ग्रस  लेता  है  ।।११।।८०४
 संसारी  भोगोंसे  हृदयकी  जलन  बढती  है    फीरभी  वैराग्यका  उदय  नही  होता    कीतनी  विडंबना  है  ।।१२।।८०६
 भगवानको  प्रसन्न  करनेके  लिये  बहुत  श्रम  नही    समस्त  प्राणियोंपर  दया  करो    इसीसे  भगवान  प्रसन्न  होते  है  ।।१३।।८०६
 जैसे  स्वर्णकार  सुवर्णको    बूमीसे  प्राप्त  कर  लेता  है    वेसेही  आत्मज्ञानी  शरीरमेही    ब्रह्मपदका  साक्षात्कार  कर  लेता  है  ।।१४।।८१०
 जिस  उपायसे  भगवानमे  स्वाभाविक  निष्काम  प्रेम  हो  जाय    वही  उपाय  सर्वश्रेष्ठ  है    यह  भगवानका  वचन  है  ।।१५।।८११
 गुरूकी  प्रेमसे  सेवा    महात्माओंका  सत्संग    भगवानकी  आराधना  करनेसे    स्वाभाविक  प्रेम  होता  है  ।।१६।।८११
 स्त्री  पुत्र  धन  पशु  महल  हाथी  पृथ्वी  खजाना    समस्त  भोग  क्षणभंगुर  है    वो  क्या  सुख  दे  सकते  है  ।।१७।।८१२
 सुख  तो  केवल  भगवानसे  ही  मिल  सकता  है    जो  अविनाशी  है    आनंदस्वरूप  है    आत्मासे  परमात्माका  सुख  ।।१८।।
 प्रल्हाद  और  ब्रह्माजीकी  वाणी  सत्य  करनेके  लिये    नृसिंह  भगवान  प्रगट  हुवे    मुह  सिंहका  शरीर  मनुष्यका  ।।१९।।८१७
 तप्त  सोनेके  समान  भयानक  आँखे    चंद्रमाकी  किरणोंके  समान  सफेद  रोए    शरीरपर  चमक  रही  थी    अद्भूत  प्राणी  ।।२०।।८१९
 संध्याके  समय  अपनी  जाॅंघोंपर  बडे  नखोंसे    हिरण्यकश्यपका  कलेजा  फाडकर  पटक  दिया    नृसिंह  भगवानने  ।।२१।।
 नृसिंह  भगवानका  दर्शन  बहुतही  कठिन  है    जब  दर्शन  होते  है  तब  हृदयकी  जलन  नष्ट  होती  है    कर्मबंधनसे  मुक्त  होता  है  ।।२२।।८३३
 वेदशास्त्रका  प्रसार  है  ब्राह्मणके  कर्म।  प्रजाकी  रक्षा  करना  है  क्षत्रियका  कर्म।  कृषी  व्यापार  वैश्यका  कर्म।  सेवा  कर्म  शूद्रका  है  ।।२३।।८४३
 शम  दम  तप  शौच  संतोष  क्षमा    सरलता  ज्ञान  दया  भगवत्  परायणता    और  सत्य  येही  है  ब्राह्मणके  लक्षण।।२४।।  
 ब्राह्मणभक्ती  उत्साह  वीरता  त्याग।  रक्षणशक्ती  मनोजय  कर्तव्यपालन।  धीरता  तेजस्विता  प्रजाकी  रक्षा  करना।  है  क्षत्रियके  लक्षण  ।।२५।।  
 अर्थ  कर्म  और  काम  इन  पूरुषार्थोंकी  रक्षा  करना    उद्योगशीलता  व्यावहारिक  निपुणता    ब्राह्मण  और  गुरू  भक्ती   है  वैश्यके  लक्षण।।२६।।
 उच्च  वर्णोंके  सामने  विनम्र  रहना    पवित्रता  स्वामीकी  निष्कपट  सेवा    गौ  और  ब्राह्मणोंकी  रक्षा  करना    है  शूद्रके  लक्षण।।२७।।
 ब्रह्मचर्याश्रममे  निवास  गुरुकूलमे    मौन  होकर  गुरूसेवा  करना    वेदाध्ययन  एकचित्तसे  करना    और  गायत्री  उपासना  ।।२८।।८४६
 गृहस्थाश्रममे   गृहस्थधर्मका  आचरण  भगवानके  लिये।  स्त्री  पुत्र  घर  धनमे  आसक्ति  नही  रखना    निष्काम  कर्म  करना  ।।२९।।
 वानप्रस्थाश्रममे   पर्णकुटीमे  निवास।  केवल  कंदमूल  फल  खाकर    मौनव्रत  करके  देहासक्तिका  त्याग  करे    बारह  साल  ।।३०।।
 वानप्रस्थीमे  ब्रह्मविचारका  सामर्थ्य  हो    तो  शरीरके  अतिरिक्त  सब  कुछ  छोडकर  संन्यास  लेना    ब्रह्मज्ञानसे  है  मग्न  ।।३१।।

 स्कंध   ।।८।।
 जिनकी  चेतनाके  स्पर्शमात्रसे  यह  विश्व  चेतन  होता  है    जिनको  समस्त  प्राणीमात्र  जान  नही  सकते    वही  परमात्मा  है  ।।१।।८७४
 यह  संपुर्ण  विश्व    और  इस  विश्वमे  रहनेवाले  सभी  चर-अचर  प्राणी    उन  परमात्मासे  ही  ओतप्रोत  है  ।।२।।
 इसीलिये  संसारके  किसीभी  वस्तुमे  मोह    करके    उसका  त्याग  करके  केवल  जीवननिर्वाहके  लिये  उपभोग  करना  चाहिये  ।।३।।
 भगवानभी  कर्म  करते  है    परंतु  वे  आत्मलाभसे  पुर्णकाम  होनोके  कारण  उन  कर्मोमे  आसक्त  नही  होते    अनुसरण  करना  है  ।।४।।  ७७५
 भगवान  सबका  कारण  है  उनका  कोई  कारण  नही    कारण  होनेपर  भी  उनमे  विकार  या  परिणाम  नही  होता    वह  आदिकारण  है  ।५।८८३
 जैसे  यज्ञकाष्ठ  अरणिमे  अग्नि  गुप्त  रहती  है    वैसे  ही  भगवाने  गुणोंकी  मायासे  ढक  रखा  है    यह  जाननेवाला  ज्ञानी  है  ।।६।।८८३
 जैसे  दयालु  पुरूष  फंदेमे  पडे  हुवे  पशुका  बंधन  काटते  है    वैसे  ही  भगवान  शरणागतोंकी  फाॅंसी  काटते  है    शरण  लेना  है  ।।७।।८८४
 विषयोंके  लोभमे  देहाभिमानी  दुःख  भोगते  है    कर्म  करनेमे  परिश्रम  और  क्लेश  बहुत    फल  कम  निकलता  या  विफलता  ।।८।।८९५
 परंतु  जो  कर्म  भगवानको  समर्पित  किये  जाते    उनके  कर्म  करते  समय  ही  सुख  मिलता  है    क्योंकी  अहंकार  नही    समर्पण  करो  ।।९।।
 जबतक  अभ्युदय  और  उन्नतिका  समय  नही  आता    तबतक  शत्रुके  साथभी  संधि  कर  लेना  चाहिये    अपनाही  कल्याण  है  ।।१०।।८९८
 देवता  और  असुरोंने  समुद्र  मंथन  किया    मंदार  पर्वतको  वासुकि  नागकी  नेतीसे    समुद्रमे  कच्छभगवानके  पीठपर  ।।११।।९०१
 समुद्रमे  रहनेवाले  मगर  मछली  क्षुब्ध  हो  गये    उसी  समय  हालाहल  उग्र  वीष  निकला    सर्वत्र  उडने  और  फैलने  लगा  ।।१२।।
 शिवजीने  अपना  कर्तव्य  समजकर    वीषको  भक्षण  किया    तो  उसका  प्रभाव  प्रकट  हो  गया    शिवजीका  कंठ  नीला  हो  गया  ।।१३।।९०७
 जिनके  पास  ाक्ति  सामर्थ्य  है    उनके  जीवनकी  सफलता  इसीमे  है    की  वे  दीन  दुःखियोंका  दुःख  स्वयं  लेकर    रक्षा  करे  ।।१४।।९०६
 उसके  बाद  कामधेनु  उचैःश्रवा  घोडा  ऐरावत  हाथी    कौस्तुभमणि  कल्पवृक्ष  अप्सराए  लक्ष्मीदेवी  वारूणीदेवी  समुद्र  मंथनसे  निकले  ।।१५।।
 अंतमे  धन्वंतरी  अमृतकलश  लेकर  निकल  आयी    दैत्योंका  लक्ष  गया  अमृतपर    विचलित  करनेके  लिये  मोहिनीरूप  प्रकट  हुवा  ।।१६।।
 यद्यपि  दैत्योने  समुद्रमंथनका  कार्य  किया    फिरभी  भगवानसे  विमुख  होनेके  कारण  उन्हे  अमृतप्राप्ती  नही    सोच  लेना  चाहिये  ।।१७।।
 मोहिनीरूप  कामको  उत्तेजित  करनेवाला    शिवजीने  इच्छा  किया  दर्शनकी    भगवानका  वर  माया  शिवजीको  मोहित  नही  करेगी  ।।१८।।
 स्त्रीरूप  दर्शनाची  इच्छा  शंकरांस।  मोह  आवरेना  वैरागी  शंकरांस।  तेथे  मानवाची  कथा  काय।  गूढ  आहे  श्रीहरीलीला।।१९।।
 पयोव्रत  पुत्रप्राप्तीके  लिये  ।फाल्गुनके  शुक्लपक्षमे  बारह  दिनतक    केवल  दुध  पीकर    परमभक्तिसे  भगवानकी  पूजा  करे  ।।२०।।
 अमावस्याके  दिन  मिट्िटसे  अपना  शरीर  मलकर  नदीमे  स्नान  करे    ब्राह्मणोंको  भोजन  दक्षिणा  दान  करे    श्रध्दापुर्ण  चित्तसे  ।।२१।।९४६
 वामनभगवान  आदितीके  गर्भसे  प्रकट  हुवे    बलीका  गर्व  हरण  करनेके  लिये    देवता  और  धर्मकी  रक्षा  करनेके  लिये  ।।२२।।
 गायत्री  उपदेश  सविताने  दिया।  यज्ञोपवीत  बृहस्पतिने  मेखला  कश्यपने  कृष्णमृगचर्म  पृथ्वीने    छत्र  आकाशदेवताने  दिया  ।।२३।।
 दंड  चंद्रमाने  दिया  कौपीन  आदितीने    कमंडलु  ब्रह्माजीने  रूद्राक्षमाला  सरस्वतीने    भिक्षापात्र  कुबेरने  भिक्षादान  भगवतीने  दिया।।२४।।
 संसारके  सभी  विषय  मनुष्यकी  कामनाओंको  पुर्ण  करनेमे  समर्थ  नही    यदि  वह  इंद्रियोंको  वशमे  रखनेवाला  संतोषी  ना  हो  ।।२५।।
 स्त्रियोंको  प्रसन्न  करने    हासपरिहासमे  विवाहमे  स्वरक्षणके  लिये    गौ  और  ब्राह्मणकी  रक्षाके  लिये।  असत्य  निंदनीय  नही।।२६।।
 संसारके  जीवोंका  आत्मज्ञान  अविद्यासे  ढक  गया  है    इसी  कारण  वे  संसारके  अनेक  क्लेशोंस  पीडीत  हो  रहे  है  ।।२७।।९८२
 भगवान  जिसपर  कृपा  करते  उसका  धन  छिनते    क्योंकी  धनसे  मनुष्य  मतवाला  होता  है    सबका  तिरस्कार  करता  है  ।।२८।।
 लेकिन  जिसके  पास  कुलिनता  कर्मयोग  रूप  विद्या  ऐश्वर्य    होनेपरभी  घमंड  नही    तो  यह  भगवानकी  कृपा  ही  है  ।।२९।।
 कामनाओंके  बंधनमे  जकडे  जाकर  लोग  अंधे  हो  रहे  हैै    उन्हे  पता  भी  नही  कि  भगवान  उनके  हृदयमे  विराजमान  है  ।३०।।९८२
 वही  भगवानको  प्रसन्न  करनेके  लिये    नामस्मरण  करना  चाहिये    निष्काम  कर्म  करके  भगवानको  समर्पित  करना  चाहिये  ।।३१।।



 स्कंध   ।।९।।
 अंबरीष  बडे  भाग्यवान  थे  अतुलनिय  ऐश्वर्य  प्राप्त  था    फिरभी  इन्हे  वे  स्वप्नतुल्य  समजते    वो  चार  दिनकी  चांदनी  है  ।।१।।
 उन्होने  अपने  मनको  श्रीकृष्ण  चरणोंमे  वाणीको  भजनमे    हाथोंको  मंदिरके  मार्जन  सेचनमे    कानोंको  हरिकथा  श्रवणमे  लगाया  ।।२।।
 अपने  नेत्र  श्रीकृष्णरूपमे  और  नासिका  चरणकमलोंपर  चढी  हुवी  तुलसीगंधमे    जिव्हाको  भगवानका  प्रसादमे  संलग्न  किया  ।।३।।
 उनके  पैर  तीर्थयात्रा  करनेमे  लगे  रहते    सिरसे  भगवानकी  वंदना  करते    इसी  तरह  सारे  कर्म  परमात्मास्वरूपको  समर्पित  किये  ।।४।।
 भगवान  सर्वथा  भक्तोंके  अधीन  है    तनिकभी  स्वतंत्र  नही    भक्तोंका  एकमात्र  आश्रय  है    भगवान  और  भक्त  परस्पर  प्रेमी  है  ।।५।।
 भक्त  तो  भगवानके  हृदय  है  और  उन  प्रेमी  भक्तोंका  हृदय  स्वयं  भगवान  है    वह  भक्त  भगवानके  अतिरिक्त  कुछ  नही  जानते  ।।६।।
 भक्तोंका  कोई  अपराध  करे    फिरभी  भक्त  उनके  लिये  मंगल  कामना  करते    भक्तोंका  हृदय  उदार  और  विशाल  होता  है  ।।७।।
 मनको  पृथ्वीमे  पृथ्वीको  जलमे  जलको  तेजमे    तेजको  वायुमे  वायुको  आकाशमे    आकाशको  अहंकारमे  लीन  करो  ।।८।।
 फिर  अहंकारको  महतत्त्वमे  लीन  करके    उसमे  ज्ञानकलाका  शांत  चित्तसे  ध्यान  करो    और  उससे  अज्ञानको  भस्म  करो  ।।९।।
 इसके  बाद  निर्वाणसुखकी  अनुभूतीसे    उस  ज्ञानकलाका  भी  परित्याग  करके    आत्मस्वरूपमे  स्थित  होना    जो  अवर्णनीय  है  ।।१०।।
 यह  संसार  भगवानकी  मायाका  करामात  है    इसको  सत्य  समजकर    काम  लोभ  मोहसे  चित्त  विषयोंमे  भटकता  है  ।।११।।
 सम्राट  खटवांगने  केवल  दो  घडीमे  आत्मस्वरूप  प्राप्त  किया  है    अंतमे  सभीका  परित्याग  करके  आत्मस्वरूपमे  स्थित  हो  गये  ।।१२।।
 भगीरथने  बहुत  बडी  तपस्या  की    गंगाजीको  पृथ्वीपर  लानेके  लिये    भगवती  गंगाजीने  प्रसन्न  होकर  दर्शन  दिया  ।।१३।।
 गंगाजीने  कहा  मेरा  प्रचंड  धारण  करनेवाला  चाहिये    और  लोगोंके  पापको  कैसा  धोना  होगा    गंगाजी  पवित्र  है  ।।१४।।
 भगीरथने  कहा  शिवजी  अपने  मस्तकपर     धारण  करके  वेग  साधारण  करेंगे    ब्रह्मनिष्ठ  गंगाजीको  फिर  पवित्र  करेंगे  ।।१५।।
 श्रीरामराज्यमे  किसीको  मानसिक  चिंता  या  शारिरिक  रोग  नही  था।  एकपत्नीका  व्रत  लेकर  धर्ममर्यादाका  पालन  किया  ।।१६।।
 भरतजीने  केवल  गोमूत्रमे  पकाया  अन्न  अन्न  ग्रहण  करके।  वल्कल  पहनके    अयोध्याका  राज  किया    रामभक्ति  बंधुप्रेम  ।१७।।
 पिताकी  कृपासे  मनुष्यको  परमपद  प्राप्त  हो  सकता    वास्तवमे  पुत्रका  शरीर  पिताका  दिया  हुवा  है    पिताका  उपकार  है  ।।१८।।
 पिताके  मनकी  बात  बिना  कहे  ही  करनेवाला  उत्तम  पुत्र।  कहनेपर  करनेवाला  मध्यम    कहनेपर  ना  करनेवाला  अधम  पुत्र  ।।१९।।
 पुत्र  उत्पन्न  करनेमे  माता  केवल  धौकनीके  समान  है    क्योंकी  पिता  ही  पुत्रके  रूपमे  उत्पन्न  होता  है  ।।२०।।
 पृथ्वीके  सभी  भोग  मनुष्यके  मनको  संतुट  नही  कर  सकते    जो  कामनाओंके  प्रहारसे  जर्जर  है    कामनाका  त्याग  करे  ।।२१।।
 विषयोंके  भोगनेसे  भोगवासना  शात  नही  हो  सकती    उलट  भोगवासनाए  भोगनेसे  प्रबल  हो  जाती  है    जैसे  आहुतिसे  अग्नि  ।।२२।।
 भोग  असत्य  है    उनके  भोगनेसे  आत्मनाशही  होता  है    यह  रहस्यको  जानकर  इनसे  अलग  रहनेवाला    आत्मज्ञानी  है  ।।२३।।
 भगवानकी  मायाका  विलास  ही    जीवके  जन्म  जीवन  और  मृत्युका  कारण  है    उनका  अनुग्रह  आत्मज्ञान  करानेवाला  है  ।।२४।।
 ब्राह्मणोंकी   रक्षाके  लिये   परशुराम  अवतार  हुवा    एककीस  बार  पृथ्वीको  क्षत्रियहीन  कर  दिया    जो  तमोगुणी  रजोगुणी  थे  ।।२५।।
 परशुराम  सप्तचिरंजीव  है  ।वे  आजभी  शांत  चित्तसे  महेन्द्रपर्वतपर  निवास  करते  है    गंधर्व  उनका  गुणगान  करते  है  ।।२६।।
 राजसत्ता  है  राजभोगका  मायाजाल।  उसमे  अनेक  दावपेंच  प्रबंध  होते  है    आत्मस्वरूपको  नही  समज  सकता    ध्यानमे  रखना  ।।२७।।
 गंगाजीके  गर्भसे  भीष्मका  जन्म  हुवा    वे  नैष्ठिक  ब्रह्मचारी  श्रीकृष्णके  परमभक्त।  गुरू  परशुरामको  युध्दमे  संतुष्ट  किया  ।।२८।।
 कुंतीने  दुर्वास  ऋषीको  प्रसन्न  करके    देवताओंको  बुलानेकी  विद्या  सीख  ली    उसका  प्रभाव  देखा  तो  पुत्र  हुवा    वह  है  कर्ण।।२९।।
 भगवानका  यश  पवित्र  करनेवाला  श्रेठ  अमृत  तीर्थ  है    उससे  कर्मकी  वासनाए  निर्मुल  होती  है    अज्ञान  नष्ट  होता  है  ।।३०।।
 संस्कारसे  गर्भकी  शुध्दी  होती  है    शुभमुहूर्तसे  भूमीकी  स्नानसे  शरीरकी।  प्रक्षालनसे  वस्त्रकी  तपस्यासे  इंद्रियकी  शुध्दी  होती  है  ।।२।।  यज्ञसे  ब्राह्मणकी  दानसे  धनकी    संतोषसे  मनकी  और  आत्मज्ञानसे  आत्माकी  शुध्दी  होती  है    इनका  आचरणसे  शुध्द  होना  है  ।।३।।  ब्रह्माजीने  कहा  भगवान  यदुवंशमे  अवतार  कार्य  करेंगे    देवताओ  तुम  यदुकूलमे  जन्म  लेकर    उनकी  लीलामे  सहयोग  दो  ।।४।।
 जो  मनुष्य  भगवानके  मंगल  नाम  रूपोंका  श्रवण  स्मरण  ध्यान  करता  है    उसे  फिर  जन्ममृत्युरूप  संसारके  चक्रमे  नही  आना  पडता  ।।५।।
 नंदजी  और  यशोदाजी  दोनोने    पुर्व  जन्ममे  ईश्वरभक्तिकी  तिव्र  इच्छा  की  थी    इसी  कारण  उनको  श्रीकृष्ण  पुत्रप्रेमका  लाभ  मिला  ।।६।।
 जिनकी  बुध्दि  समदरर्शि  है  और  हृदयपुर्णरूपसे  भगवानको  समर्पित  है    उनके  दर्शनसेही  साधकोंके  कर्म  बंधन  नष्ट  होते  है  ।।७।।
 यद्यपि  ब्रह्माजी  समस्त  विद्याके  आधिपति  है    तथापि  भगवानके  दिव्य  स्वरूपको  वे  तनिक  भी  नही  समज  सकते  है  ।।  ८।।
 संसारके  सभी  प्राणी  अपने  आत्मासे  प्रेम  करतो  है    पुत्रसे  धनसे  जो  प्रेम  होता  है    वह  तो  इसलिये  कि  वे  वस्तुए  आत्माको  प्रिय  है  ।।९।।
 यह  आत्म  ही  श्रीकृष्ण  है    संसारमे  जो  कुछ  भी  वस्तुए  है    सभी  श्रीकृष्णस्वरूप  है    उसके  अतिरिक्त  कुछ  भी  नही  है  ।।१०।।
 वृंदावनविहारी  श्रीकृष्णकी  अनेक  लिलाए  है    वृंदावनवासी  उनका  वर्णन  करके  तन्मय  होते  है    उनके  हृदयमे  स्फुरण  आता  है  ।।११।।
 जिन्होने  अपना  सर्वस्व  भगवानको  दिया  है    उनकी  कामनाए  भोगकी  ओर  नही  जाती    जैसे  भुने  बीज  उगनेके  लिये  योग्य  नही  ।।१२।।
 प्राणी  कर्मके  अनुसारही  पैदा  होता  है    और  कर्मसे  ही  मर  जाता  है    कर्मके  अनुसारही  संसारी  सुख   दूःख  भय  भोग  मिलता  है  ।।१३।।
 जैसे  विवाहित  पतिको  छोडकर    दुसरोंकी  सेवा  करनेवाली  स्त्री  शांती  नही  पाती    वैसेही  भगवानको  छोडकर  सुख  नही  मिलता  ।।१४
 जो  ऐश्वर्यके  मसे  अंधा  होता  है    वह  यह  नही  देख  सकता  की    उसके  सिरपर  कालरूपी  भगवान  दंड  लेकर  सवार  है  ।।१५।।
 भगवान  कभी  कभी  धर्मका  उल्लंघन  करते  देखे  जाते  है    फिरभी  कोई  धर्मदोष  उन्हे  नही  लगता  है    क्योंकी  वे  निर्लेप  है  ।।१६।।
 जैसे  अग्नि  सब  कुछ  का  जाता  है    परंतु  उन  पदार्थोंके  दोषसे  लिप्त  नही  होता    वैसेही  भगवानका  कार्य  सर्वथा  दोषमुक्त  है  ।।१७।।
 जिन  मे  ऐसा  सामर्थ्य  नही  है    उन्हे  मनसे  भी  वैसी  बात  कभी  नही  सोचनी  चाहिये    शरीरसे  करना  तो  दूर  ही  है  ।।१८।।
 यदि  मूूर्खतावश  कोई  ऐसा  काम  कर  बैठे  तो  उसका  नाश  हो  जाता  है    शिवजीने  विष  पिया  दुसरा  कोई  पिये  तो  मरेगा  ।।१९।।
 श्रीकृष्ण  अहंकारहीन  है    उनके  शुभकर्ममे  कोई  स्वार्थ  नही  होता    अशुभकर्ममे  कोई  अनर्थ  नही  होता    यह  सोचना  है  ।।२०।।
 चाहे  सफलता  हो  या  असफलता  हो    समभाव  रखकर  काम  करना  चाहिये    फल  तो  प्यत्नसे  नही  दैवी  प्रेरणासे  मिाता  है  ।।२१।।
 पिता  और  माता  ही  इस  शरीरको    जन्म  देकर  लालन  पालन  करते  है    तभी  तो  यह  शरीर  मोक्षकी  प्राप्ती  कर  सकता  है  ।।२२।।
 एर  शरीरके  प्रति  अभिमन    होनेके  कारण      तो  कोई  श्रीकृष्णका  प्रिय  है    अप्रिय।  वे  सबमे  और  सबके  प्रति  समान  है  ।।२३।।
 स्वप्नमे  दिखनेवाले  पदार्थोंके  समान    जागृतीमे  इंद्रियोंके  मिथ्या  विषय  प्रतित  होते  है    इसलिये  उनको  रोककर  आत्मसाक्षात्कार  करो  ।२४
 प्रेमियोंका  चित्त  अपने  शरीरसे  दूर  प्रियतममे    जितना  निश्चलभावसे  लगा  रहता  है    उतना  आखोंके  सामने  नही  लगता  है  ।।२५।।
 जो  भक्त  नही  है    वे  चाहे  प्राणायामसे  मनको  वश  करनेका  प्रयत्न  करे    उनकी  वासनाए  क्षीण  नही  होती    भगवानका  प्रेम  होना  ।।२६।।
 जो  मनुष्य  भगवानको  छोडकर  तुच्छ  विषयोंमे  मग्न  होते  है    वह  इतना  मूर्ख  है    कि  अमृत  छोडकर  विष  पी  रहा  है    सोच  लेना  ।।२७।।
 जो  मनुष्य  अपने  इंद्रियो  और  मनको  वशमे  नही  करता    वह  भगवानको  अपने  ऴस  नही  कर  सकते    मनको  काबुमे  रखना  है  ।।२८।।
 देहकी  और  आसक्ति  छोडकर  उदासीन  रहकर  अपने  आपमे    आत्मामे  ही  रमण  करो    धर्माचरण  करो    चित्त  भगवानमे  लगाओ  ।।२९।।
 जैसे  गाढ  निद्रामे  मग्न    पुरूष  अपने  शरीरका  अनुसंधान  छोड  देता  है    वैसे  ही  भगवानको  पाकर  भक्त  मायासे  मुक्त  हो  जाता  है  ।।३०।।

 स्कंध   ।।११।।
 जिस  परमातमाका  वर्णन  किया  जा  ता  है    वे  प्रत्यक्ष  ही  है    वे  ही  समस्त  वस्तुओंको  सत्तास्फुर्ती  जीवनदान  देनेवाले  है  ।।१।।
 भगवान  ही  प्राणरूपसे  प्राणीमात्रमे  प्रवेश  करके    बोलना  काम  करना  देखना  छुना  सुनना  मनसे  संकल्प  विकल्प  करना    करते  है  ।।२।।
 जैसे  बोया  हुवा  बीज  शाखा  पुष्पादि  अनेक  रूप  धारण  करता  है    वैसेही  मायाका  आश्रय  लेकर  वह  अनेकोंमे  प्रतीत  होते  है  ।।३।।
 जैसे  सूतके  बिना  वस्त्रका  अस्तित्व  नही    किंतु  सूत  वस्त्रके  बिनाभी  है    वैसेही  जगतके  बिना  भगवान  है    उसके  बिना  संसार  नही  ।४।।
 जिस  धर्मके  पालनसे  सत्वगुणकी  वृध्दि  होती  है    वही  सबसे  श्रेष्ठ  है    वह  धर्म  रजोगुण  और  तमोगुणको  नष्ट  करदेता  है  ।।५।।
 शास्त्र  जल  प्रजा  देश  समय  कर्म  जन्म  ध्यान  मंत्र  संस्कार    ये  दस  वस्तुए  सात्विक  हो  तो    सत्वगुणकी  वृध्दि  होती  है  ।।६।।
 महात्माजी  जिनकी  प्रशंसा  करते  वे  सात्विक  है    जिनकी  निंदा  करते  वे  तामसिक  है    जिनकी  उपेक्षा  करते  वे  वस्तुए  राजसिक  है  ।।७।।
 सत्वगुणकी  वृध्दिके  लिये  सात्विक  शास्त्रका  आचरण  करे    इससे  धर्मकी  वृध्दिसे  अंतःकरण  शुध्द  होकर  आत्मतत्त्वका  ज्ञान  होता  है  ।।८।।
 जबतक  भिन्न  भिन्न  पदार्थोमे    सत्यत्व  बुध्दि  अहंम  बुध्दि  निवृत्त  नही  होती    तबतक  वह  अज्ञानी  जागते  हुवे  सोया  सा  ही  है  ।।९।।
 परमसत्यका  अनुभव  करनेकी  कुवत  सभी  व्यक्तियोंकी  अलग  है    कारण  उनके  स्वभाव  सत्व  रज  तम  गुणके  अनुसार  भिन्न  है  ।।१०।।
 जैसे  आगमे  तपानेपर  सोना  मैल  छोेडता  है    वैसेही  भक्तियोगके  द्वारा  आत्मा  कर्मवासनाओंसे  मुक्त  होकर  भगवानको  पाता  है  ।।११।।
 जिससे  भगवानकी  भक्ति  हो  वही  धर्म  है    जिससे  आत्मसाक्षात्कार  होता  वह  ज्ञान  है    विषयोंसे  निर्लेप  रहना  ही  वैराग्य  है  ।।१२।।
 मनुष्योंका  कल्याण  करनेके  लिये  आधिकारभेदसे    तीन  प्रकारके  योगका  उपदेश  कीया  है    ज्ञानयोग  भक्तियोग  कर्मयोग  ।।१३।।
 जो  कर्मोके  फलोमे  विरक्त  है  वे  ज्ञानयोगके  आधिकारी    विरक्त  नही  वे  कर्मयोगके    जो  विरक्त  नही  आसक्त  नही  भक्तियोगके  ।।१४।।
 पिताको  पुत्रके  जन्मसे  और  पुत्रको  पिताकी  मृत्युसे    अपने  जनममरणका  अनुमान  कर  लेना  जाहिये    देह  नाशिवंत  है  ।।१५।।
 यह  ब्रह्मांडके  दो  रूप  है    एक  प्रकृति  मायास्वरूप  त्रिगुणके  साथ  कार्य  करनेवाली    दुसरा  पुरूष  जो  प्रत्यक्ष  भगवान  ज्ञानस्वरूप  ।।१६।।
 प्रकृतिके  तीन  गुण  है  सत्व  रज  और  तम    यह  त्रिगुण  मनुष्योंकी  स्वभावमे  प्रतीत  होता  है    जिससे  उसकी  पहचान  होती  है  ।।१७।।
 सत्वगुणकी  वृत्तिया  है    मनसंयम  इंद्रियनिग्रह  सहिष्णुता  विवेक    तप  सत्य  दया  संतोष  त्याग    श्रध्दा  विनय  सरलता  स्मृति  ।।१८।।
 रजोगुणकी  वृत्तिया  है    इच्छा  प्रयत्न  घमंड  असंतोष  भेदबुध्दि  विषयभोग  उत्साह  हास्य  पराक्रम  हठपूर्वक  कर्मकांड  धनकी-याचना  ।।१९।।
 तमोगुणकी  वृत्तिया  है    क्रोध  लोभ  मिथ्या-भाषण  हिंसा  याचना  कलह  मोह  विषाद  दिनता  निद्रा  आशा  भय  पाषंड  श्रम  अकर्मण्यता  ।।२०।।
 सत्वगुण  प्रकाश  निर्मल  और  शांत  है    जब  वह  रजोगुण  और  तमोगुणको  दबाकर  बढता  है  तब  धर्मज्ञान  प्राप्त  हो  सकता  है  ।।२१।।
 रजोगुण  भेदबुध्दिका  कारण  है    जब  वह  सत्वगुण  और  तमोगुणको  दबाकर  बढता  है    तब  यश  और  लक्ष्मीसे  संपन्न  होता  है  ।।२२।।
 तमोगुणका  स्वरूप  है  अज्ञान    जब  वह  रजोगुण  और  सत्वगुणको  दबाकर  बढता  है    तब  मोहमे  पशू  तरह  हिंसा  करता  है  ।।२३।।
 शुध्द  आत्माका  ज्ञान  सात्विक  है    आत्माको  कर्ता  भोक्ता  समझना  राजस  ज्ञान  है    और  उसे  शरीर  समझना  तामस  ज्ञान  है  ।।२४।।
 समस्त  कामनाओंका  त्याग  संन्यास  है    धर्म  मनुष्योंका  अभिष्ट  धन  है    जिससे  ब्रह्म  और  आत्माका  भेद  मिटता  है  वही  विद्या  है  ।।२५।।
 दुःख  और  सुखकी  भावना  सदाके  लिये  नष्ट  होना  सुख  है    और  विषयभोगकी  कामना  होना  यही  दुःखोंका  मूल  कारण  है  ।।२६।।
 जो  मोक्ष  और  कर्मबंधनका  तत्त्वज्ञान  जानता  है  वही  पंडीत  है    और  शरीरमे  आसक्त  होकर  मै  मेरापन  का  भेद  करनेवाला  मूर्ख  है  ।।२७।।
 जो  मार्ग  संसारकी  ओरसे  निवृत्त  करके  भगवानकी  प्राप्ती  कराता  वह  सुमार्ग  है    चित्तकी  आसक्ति  संसारमे  करानेवाला  कुमार्ग  है  ।।२८।।
 भगवानके  प्राप्तीका  श्रेष्ठ  साधन  है    समस्त  प्राणीयो  और  पदार्थोंमे  मन  वाणी  और  समस्त  वृत्तियोंसे  भगवानकी  भवना  करना  ।।२९।।
 यही  भगवत  धर्म  है    जो  स्वयं  भगवानने  परमभक्तोंको  बताया  है    इसमे  कोई  त्रुटी  नही    यह  सर्वोत्तम  और  निष्काम  धर्म  है  ।।३०।।

 स्कंध   ।।१२।।
 जैसा  घोर  कलियुग  आता  जायेगा  वैसा  उत्तरोत्तर  धर्म  सत्य  पवित्रता  क्षमा  दया  आयु  बल  स्मरणशक्तिका  लोप  होता  जायेगा  ।।१।।
 जिसके  पस  धन  होगा  उसीको  लोग  कुलीन  सदाचारी  मानेंगे    शक्तिवान  मनुष्य  न्यायकी  व्यवस्था  अपने  अनुकूल  करेगा  ।।२।।
 व्यवहारकीनिपुणता  सच्चाई  और  ईमानदारीमे  नही  रहेगी    जो  जितना  छल  कपट  करेगा  वह  उतना  ही  कुशल  माना  जायेगा  ।।३।।
 जो  जितना  आधिक  दंभ  पाषंंड  कर  सकेगा  उसे  उतनाही  बडा  साधु  समझा  जायेगा    वो  बडे  उच्चासनसे  धर्मका  उपदेश  करेगा  ।।४।।
 जीवनका  सबसे  बडा  पुरूषार्थ  अपना  पेट  भरना    अपने  कुटुंबका  पालन  करना    यही  मनुष्यकी  योग्यता  और  चतुरता  होंगी  ।।५।।
 कभी  वर्षा  ना  होगी  सुखा  पड  जायेगा    कभी  कडाकेकी  सदर्ी  पडेगी    तो  कभी  सक्त  गरमी  पडेगी    तो  कभी  बांढ  आयेगी  ।।६।।
 उत्पातोंसे  तथा  आपसके  संघर्षसे  प्रजा  अत्यंत  पीडीत  होगी    भूख  प्यास  रोगराई  तथा  नाना  प्रकारकी  चिंताओंसे  दुःखी  होगी  ।।७।।
 वर्ण  और  आश्रमोंका  धर्म  बतलानेवाला  वेदमार्ग  नष्ट  होगा    धर्ममे  पाखंडकी  प्रधानता  होगी    सभी  लोग  शूद्रोंके  समान  होंगे  ।।८।।
 ब्रह्मचारी  अपवित्र  वर्तन  करेंगे    गृहस्थी  भीख  मागेंगे    वानप्रस्थी  गावोंमे  बसने  लगेंगे    संन्यासी  धनके  लोभी  होंगे  ।।९।।
 जिस  समय  झूठ  कपट  हिंसा  विषाद  मोह  भय  और  दीनताकी  प्रधानता  होगी  उस  समयसे  घोर  कलियुग  समझना  चाहिये  ।।१०।।
 कलियुग  दोषोंका  खजाना  है    परंतु  इसमे  एक  बहुत  बडा  गुण  है    केवल  भगवानका  नामस्मरणसे  संसारी  आसक्तिया  छुटती  है  ।।११।।
 जो  लोग  मृत्युके  निकट  पहुचे  है    उन्हे  सब  प्रकारसे  भगवानका  ध्यान  करना  चाहिये    तो  उन्हे  मुक्ती  अवश्य  मिलती  है  ।।१२।।
 जो  संसारसागरसे  पार  जाना  चाहते  है    उनके  लिये  भगवानकी  कथा    सुननेके  अतिरिक्त  और  कोई  साधन  नही  है  ।।१३।।
 जैसे  बीजसे  अंकुर  और  अंकुरसे  बीजकी  उत्पत्ति  होती    वैसेही  एक  शरीरसे  दुसरे  शरीरकी    दुसरेसे  तिसरेकी  होती  रहती  है  ।।१४।।
 जैसे  आग  लकडीसे  सर्वथा  अलग  है    वैसेही  शरीरकेजन्म  और  मृत्यु  आत्मासे  अलग  है    आत्मा  तो  परमात्माका  ही  अंश  है  ।।१५।।
 जैसे  दिपक  बुझनेसे  तत्वरूप  तेजका  विनाश  नही  होता    वैसेही  संसारका  नाश  होनेपरभी  स्वयं  प्रकाश  आत्माका  नाश  नही  होता  ।।१६।।
 परीक्षितका  अज्ञान  सर्वथाके  लिये  नष्ट  हो  गया    एकताका  साक्षात्कार  हो  गया    एकचित्त  श्रवणसे  महायोगी  ब्रह्मस्वरूप  हो  गया  ।।१७।।
 यही  भागवतमे  ब्रह्मतत्त्वका  वर्णन  है    इसी  परमतत्त्वका  अनुभवात्मक  ज्ञान  और  उसकी  प्राप्तीके  साधनोंका  स्पष्ट  निर्देश  है  ।।१८।।
 जिस  वाणीके  द्वारा  भगवानके  नामका  उच्चारण  नही  होता    वह  वाणी  अलंकारयुक्त  भावपुर्ण  होनेपर  भी  निरर्थक  है    सारहीन  है  ।।१९।।
 जो  कर्म  भगवानको  अर्पण  नही  किया  गया    वह  चाहे  कितना  ही  उँचा  हो    सर्वथा  अमंगलरूप  दुःख  कष्ट  देनेवाला  ही  है  ।।२०।।
 भागवतके  अध्ययनसे  ब्राह्मणको  ऋतंभरा  प्रज्ञा    क्षत्रियको  राजवैभव  वैश्यको  कुबेरका  पद    और  शूद्र  सारे  पापोंसे  छुटकारा  पाता  है  ।।२१।
 भगवानका  वर्णन  करनेवाले  बहुक  पुराण  है    परंतु  भागवतमे  प्रत्येक  कथा  प्रसंगमे  पदपद  पर  सर्वस्वरूप  भगवानका  ही  वर्णन  है  ।।२२।।
 यह  भागवत  समस्त  उपनिषदोंका  सार  है    जो  इसका  रसपान  करता  है    वह  किसी  और  पुराण  शास्त्रमे  रम  नही  सकता  है  ।।२३।।
 इसमे  जीवन्मुक्त  अद्वितीय  एवं  मायाके  लेशसे  रहित  ज्ञानका  गान  किया  है    कर्मोंकी  निवृत्ति  भी  ज्ञान-वैराग्य  भक्तिसे  युक्त  है  ।।२४।।
 यह  परमज्ञान    दांभिक  नास्तिक  थठ  अश्रध्दालू  भक्तिहीन  और  उध्दत  पुरूषको  कभी  भी  नही  देना  चाहिये    क्योंकि  निंदा  होती  है  ।।२५।।
 भगवान  श्रीकृष्ण  परमधामगमनके  बाद  भाद्रपद  मासमे  नवमी  तिथीसे  श्री  शुकदेवने  परीक्षितको  यह  भागवत  कथा  ज्ञान  दिया  था  ।।२६।।
 उसके  बाद  संवत्  २३०मे  आषाढ  मासमे  नवमी  तिथीसे  गोकर्णने  धुंधुकारीको  यह  भागवत  सुनाया  था    तब  उसका  उध्दार  हुवा  ।।२७।।
 उसके  बाद  संवत्  २६०मे  कार्तिक  मासमे  नवमी  तिथीसे  सनत्कुरोंने  नारदजीको  यह  भागवत  सुनाया  था    तब  भगवानने  वर  दिया  ।।२८।।
 यह  भागवत  ज्ञान  घटना  उपदेश  स्तुति  और  गीत  चारो  रूपोंमे  चारो  वेदोंके  समान  अत्यंत  महत्वपुर्ण  है    अनिर्वचनीय  है  ।।२९।।
 भगवानसे  यही  प्रार्थना  है    ऐसी  कृपा  किजीये  कि  हम  बार  बार  जन्म  ग्रहण  करते  समय  भगवानकी  अविचल  भक्ति  बने  रहे  ।।३०।।
 जिन  भगवानके  नाम  संकीर्तनसे  सारे  पाप  सर्वथा  नष्ट  होते  है    उन्ही  परमतत्त्व  स्वरूप  भगवानको  हम  सर्वदा  नमस्कार  करते  है  ।।३१।।

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