श्रीमद भागवत पुराणमे
शुकदेवजी परीक्षितराजाको जो आमरण अनशनका निश्चय करके गंगाके तटपर बैठा है, उपदेश
करते है-- जो मनुष्य अभय पदको प्राप्त करना चाहता है, उसे सर्वदा, सर्वशक्तीमान
भगवान श्रीकृष्णकी लीलाओंका श्रवण्, कीर्तन और स्मरण करना चाहिये । मनुष्य-जन्मका
यही लाभ है कि चाहे जैसे हो, ज्ञानसे, भक्तीसे अथवा अपने धर्मकी निष्ठासे जीवनको
ऎसा बन लिया जाय कि मृत्युके समय भगवानकी स्मृति अवश्य बनी रहे । मृत्युका समय
आनेपर मनुष्य घबराये नही । उसे चाहिये कि वैराग्यके शस्त्रसे शरीर और उससे
संबंध रखनेवालोंके प्रति
ममताको काट डाले । धैर्यके साथ घरसे निकलकर पवित्र तीर्थके जलमे स्नान करे और
एकांत स्थानमे विधीपूर्वक आसन लगाकर बैठ जाय । तत्पश्चात ॐ प्रणवका मन-ही-मन जप करे । प्राणवायुको वशमे
करके मनका दमन करे और एक क्षणके लिये भी प्रणवको न भूले । बुध्दीकी सहाय्यतासे
मनके द्वारा इंद्रियोंको उनके विषयोंसे हटा ले । और कर्मकी वासनाओंसे चंचल हुए
मनको विचारके द्वारा रोककर भगवानके मंगलमय रूपमे लगाये । यदि भगवानका ध्यान करते
समय मन रजोगुणसे विक्षिप्त या तमोगुणसे मूढ हो जाय तो घबराये नही । धैर्यके साथ
योगधारणाके द्वारा उसे वशमे करना चाहिये; क्योंकि धारणा उक्त दोनो गुणोंके दोषोंको
मिटा देती है । धारणा स्थिर हो जानेपर ध्यानमे जब योगी अपने परम मंगलमय आश्रय
भगवानको देखता है, तब उसे तुरंत ही भक्तीयोगकी प्राप्ती हो जाती है । तत्पश्चात
अपनी निर्मल बुध्दीसे मनको नियमित करके मनके साथ बुध्दीको क्षेत्रज्ञमे और क्षेत्रज्ञको
अंतरात्मामे लीन कर दे । उस ब्रह्मनिष्ठ योगीको शरीरका त्याग करना चाहिये । पहले
एडीसे अपनी गुदाको दबाकर स्थिर हो जाय और तब बिना घबडाहटके प्राणवायुको
षटचक्रभेदनकी रीतिसे ऊपर ले जाय । नाभिचक्र मणिपूरकमे स्थित वायुको ह्रदयचक्र
अनाहतमे, वहासे उदानवायुके द्वारा वक्षस्थलके ऊपर विशुध्दचक्रमे, फिर उस वायुको
धीरे-धीरे तालुमूलमे(विशुध्दचक्रके अग्रभागमे) चढा दे । तदनंतर दो आख, दो कान, दो
नासाछिद्र, और मुख इन सातो छिद्रोंको रोककर उस तालुमूलमे स्थित वायुको भौहोंके बीच
आज्ञाचक्रमे ले जाय । आधी घडीतक उस वायुको वही रोककर स्थिर लक्ष्यके साथ उसे
सहस्त्राधारचक्रमे ले जाकर परमात्मामे स्थित करे । इसके बाद ब्रह्मरंध्रका भेदन
करके शरिरको छोड दे ।
इसी प्रकार मनुष्यको मृत्युका
समय आनेपर शरीरका त्याग करना चाहिये । यही मुक्ती है ।
जैसे आग लकडीसे सर्वथा अलग
रहती है लकडीकी उत्पत्ती और विनाशसे सर्वथा परे, वैसे ही आत्मा शरीर आदिसे सर्वथा
अलग है । मन ही आत्माके लिये शरीर, विषय और कर्मोंकी कल्पना कर लेता है; और उस
मनकी सृष्टी करती है माया । वास्तवमे माया ही जीवके संसार-चक्रमे पडनेका कारण है ।
जबतक तेल, तेल रखनेका पात्र, बत्ती और आगका संयोग रहता है, तभीतक दीपकमे दीपकपना
है, वैसे ही जबतक आत्माका कर्म, मन, शरीरके साथ संबंध रहता है, तभीतक जीवको
जन्म-मृत्युके चक्र संसारमे भटकना पडता है । परंतु जैसे दीपकके बुझ जानेसे
तत्त्वरूप तेजका विनाश नही होता, वैसे ही संसारका नाश होनेपर भी स्वयंप्रकाश
आत्माका नाश नही होता । इसीलीये आत्मा शाश्वत है । बाकी सब शरीर, संसार आदि नाशवान
है । आत्मा ही मनुष्यका असली रूप है, शरीर नही ।
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