आनंदलीलामयविग्रहाय हेमाभदिव्यच्छाविसुंदराय । तस्मै
महाप्रेमरसप्रदाय चैतन्यचंद्राय नमो नमस्ते ॥
जिनका श्रीविग्रह आनंद-लीलामय
ही बना हुआ है, जिनके शरीरकी सुंदर कांति सुवर्णके समान शोभायमान और देप्यीमान है,
जो प्राणियोंको पूर्ण प्रेम प्रदान करनेवाले है, चंद्रमाके समान शीतल प्रेमरुपी
किरणोंके द्वारा भक्तोंके संतापोंको शांत करनेवाले उन चैतन्यदेवके चरण-कमलोंमे हम
बार-बार प्रणाम करते है ।
चैतन्य महाप्रभुका
कलि-पावन चरित्र प्रेम-रसका अथाह सागर है । चाहे कितना ही पी ले, कितना ही उलीच ले, उस अगाध रस-सिंधुमेंसे अणुमात्र भी कम नही हो सकता । जिसने
इस परम सुस्वादु आत्मानंदमय रसका थोडासा भी पान किया, वही धन्य हो गया । वे ज्ञान-वैराग्य,
भक्ती-प्रेम, त्याग और विरक्तके मूर्तिमान विग्रह थे । इस कलि-संतप्त,
पाप-ताप-जनित, नाना दु:ख-दैन्य-दाहग्रस्त मनुष्यको यदि शीतलता, शांति और दिव्य
प्रेमानंदकी अनुभूती करनी हो तो वे आनंद और प्रेमके पर्याय चैतन्य महाप्रभुके चरितामृतका
पान अवश्य करे । अनेक महापुरूष, वीतराग
महात्मा और न जाने कितने अगणित जीव महाप्रभुके लोकोत्तर जीवनसे अनुप्रणित हुए है ।
इस मार्गपर चलकर अनेकों कृतार्थ भी हुए है
और बहुत-से आगे भी होते रहेंगे ।
बंगालके पुण्यवती नवद्विप
नगरीमे पंडितप्रवर श्रीजगन्नाथ मिश्रके यहा भाग्यवती शचीदेवीके गर्भमे तेरह मास
रहकर चैतन्य महाप्रभु फाल्गुनकी पूर्णिमाके दिन इस धराधामपर अवतीर्ण हुए । बाल्यकालसे
ही इन्होने अपने अद्भूत-अद्भूत ऎश्वर्य प्रदर्शित किये । अपनी अलौकिक बाल-लीलाओंसे
अपने माता-पिता,भाई-बंधु तथा पुरजन-परिजनोंको आनंदित किया । सोलह वर्षकी अल्पायुमे
इनके पुज्य पिता परलोकवासी हुए । पिताजीका श्राध्द करनेके लिये इन्होने
श्रीगयाधामकी यात्रा की । वहीपर स्वनामधन्य श्रीस्वामी ईश्वरपुरीने न जाने इनके
कानमे कौनसा मंत्र फूंक दिया कि उसके सुनते ही ये पागल हो गये और सदा
प्रेम-वारुणीका पान किये हुए उसके मदमे भूले-से, उन्मत्त-से, पागल-से बने हुए ये
सदा लोकबाह्य प्रलाप-सा करने लगे । प्रेममे उन्मत्त होकर प्रेमी भक्तोंके सहित
अहर्निश श्रीकृष्ण कीर्तन करते रहना ही इनके जीवनका एकमात्र उद्देश हो गया । श्रीकृष्ण
प्रेमकी प्राप्तीके लिये जितने त्याग-वैराग्यकी आवश्यकता होती है, वह महाप्रभुके
जीवनमे पाया जाता है । भक्तीके परमप्रधान त्याग और वैराग्य ये दो ही साधन है ।
प्रेम भक्तीका फल है । इसीलिये महाप्रभुने प्रेमको मोक्षसे भी बढकर पंचम पुरूषार्थ
बताया है । उस प्रेमकी प्राप्ती अहैतुकी भक्तीके द्वारा ही हो सकती है, और वह
भक्ती त्याग-वैराग्यके बिना हो ही नही सकती ।
संसार जिसके लिये पागल हो
रहा है, ऎसी देशव्यापी प्रतिष्ठा हो, भक्तगण जिन्हे साक्षात भगवान मानकर
पूजा-अर्चा करते हो, जिनके भोजनके लिये भांति-भातिकी नित्य-नूतन वस्तुए बनती हो,
जिनके घरमे प्रेममयी वृध्दा माता हो, त्रैलोक्यसुंदरी, सर्वगुणसंपन्ना पतिको ही
सर्वस्व समझनेवाली नवयौवना पत्नी हो, इन सबका तृणकी भांति परित्याग करके
द्वार-द्वारके भिखारी बन जाना यह महाप्रभुका सर्वोत्तम त्याग है ।
चौबीस वर्ष नवद्विप नगरीमे
रहकर गृहस्थाश्रममे और चौबीस वर्ष संन्यास लेकर पुरी आदि तीर्थोंमे महाप्रभुने यात्रा
की । संन्यास लेकर छ वर्षोंतक तीर्थॊंमे भारत-भ्रमण किया और अंतमे अठारह वर्षोंतक
जगन्नाथजीके रुपमे पुरीमे ही रहे । महाप्रभु बारह वर्षोंतक निरंतर दिव्योन्मादकी
दशामे रहे । चैतन्य महाप्रभु जिस कार्यके
लिये अवतरीत हुए थे, वह कार्य सुचारूरीतीसे संपन्न हो गया । अब उन्होने लीला संवरण
करनेका निश्चय किया । आषाढ मासमे एक दिन जगन्नाथजीके मंदिर जाकर जगन्नाथजीके
श्रीविग्रहको आलिंगन किया और उसीमे लीन हो गये ।
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