Tuesday, 2 January 2018

भारतीय संस्कृतीमधील दर्शन-शास्त्र



ऋषिपरंपरा 
ऋषिपरंपरा    संतपरंपरा  आपल्या  भरत  खंडामध्ये  ऋषिपरंपरेतून  ज्ञानाचा  थोड्याफार  प्रमाणात  प्रसार  झाला  तर   संतपरंपरेतून  भक्तिचा  प्रसार  झाला.  परंतू  या  परंपरेमुळे  अंतिम  परमसत्यापासून  मनुष्य  परावृत्त  होत  आहे.  या  परंपरेमुळे  अद्वैतवादा  शिवाय  द्वैतवाद,  विशिष्टाद्वैतवाद,  द्वैताद्वैतवाद,  शुध्दाद्वैतवाद  इत्यादी  वादांची  विचार  सरणी  निर्माण  झाली.  त्यामुळेच  ज्ञानाचे  सोंग  पांघरून  मनुष्याची  अज्ञानाकडे  वाटचाल  सुरू  झाली.  याच  दृष्टीने  या   ऋषिपरंपरा    संतपरंपरेचा  विचार  प्रस्तुत  निबंधामध्ये  केलेला  आहे.  तो  निःपक्षपातीपणे  समजुन  उमजुन  घेतला  पाहिजे.
आपल्या  संस्कृतीमध्ये  तत्त्वज्ञान  एकच  आहे.  परंतू  ते  ग्रहण  करण्याची    ते  ग्रहण  केलेले  ज्ञान  व्यक्त  करण्याची  क्षमता  प्रत्येक  व्यक्तीची  भिन्न  भिन्न  असते.  ही  क्षमता  प्रत्येक  व्यक्तीच्या  गुण  कर्मावर  अवलंबून  असते.  सत्त्व,  रज    तमो  गुणांच्या  कमी-आधिकतेमुळे  प्रत्येक  मनुष्याची  ही  ज्ञान  संपादन  करण्याची    ते  ज्ञान  प्रसारण  करण्याची  क्षमता  भिन्न  भिन्न  होते.  त्यामुळे  एकच  तत्त्वज्ञान  दहा  मनुष्यांनी  एकाच  वेळी  एकाच  व्यक्ती  कडून  संपादन  केले  तरी  सुध्दा  ते  एकच  तत्त्वज्ञान  ती  दहा  माणसे  प्रत्येकाच्या  क्षमतेनुसार  ते  ज्ञान  ग्रहण  करतात.  त्यामुळे  एकच  तत्त्वज्ञान  दहा  प्रकारांमध्ये  कमी-आधिकतेने  भिन्नपणाने  ग्रहण  केले  जाते.  याचमुळे  प्राचीन  काळापासून   ऋषिपरंपरा  तर  अलिकडच्या  काळामध्ये  संतपरंपरा  आपल्या  संस्कृतीमध्ये  निर्माण  झालेल्या  दिसून  येतात.
मध्याचार्यांचा  द्वैतवाद,  रामानुचार्यांचा  विशिष्टाद्वैतवाद,  निंबकाचार्यांचा  द्वैताद्वैतवाद,  वल्ल्भाचार्यांचा  शुध्दाद्वैतवाद,  गोस्वामीपादांचा  अचिंत्यभेदाभेदवाद,  तसेच  शिवाद्वैत,  शैवदर्शन,  शक्ति  दर्शन,  नास्तिक  दर्शन,  बौध्द  दर्शन,  जैन  दर्शन,  इत्यादी  परंपरा    संप्रदाय  आपल्या  संस्कृतीमध्ये  दिसून  येतात.
भारतीय  संस्कृती  मध्ये  दोन  प्रकारची  दर्शने  आहेत.  दर्शन  याचा  अर्थ  जे  ज्ञान  दिसले  अनुभवले  ते  ज्ञान  असा  आहे.  आस्तिक  दर्शने  म्हणजे  ज्या  तत्वज्ञानामध्ये  वेदाचा  आदर  केलेला  आहे.  तर  नास्तिक  दर्शने  म्हणजे  ज्या  तत्वज्ञानामध्ये  वेदाचा  अनादर  केलेला  आहे.  सहा  प्रकारची  आस्तिक  दर्शने  आहेत.  (१)वैशेषिक  दर्शनामध्ये  पूर्वजन्मातील  कर्माचा  प्रभाव  म्हणून  विशेष  कर्म  करण्यासाठी  जीव  उत्पन्न  होतो,  मनुष्याने  कर्म  निष्कामतेने  केल्यास  मोक्ष  प्राप्त  होतो,  ईश्वराच्या  इच्छेने  सृष्टी    संहार  घडून  येतो  असे  विचार  मांडलेलै  आहेत.  वैशेषिक  दर्शनाचे  आचार्य  कणादमुनी  आहेत.  (२)सांख्य  दर्शनामध्ये  विश्व  प्रकृतीच्या  २५  मूलतत्त्वांनी  बनले  असून  पुरूष  हा  आत्मारूप  आहे,  ईश्वराचे  निरिश्वर    सेश्वर  असे  दोन  भाग  आहेत,  मनुष्यास  कैवल्यज्ञानाने  मुक्ति  लाभते  असे  विचार  मांडलेलै  आहेत.  सांख्य  दर्शनाचे  आचार्य  कपिलमुनी  आहेत.  (३)योग  दर्शनामध्ये  जीवाचे  संसारी    मुक्त  असे  दोन  प्रकार  आहेत,  आत्मा  सच्चिदानंद  स्वरूप  आहे,  मनुष्याच्या  चित्तवृत्तीचा  निरोध  म्हणजे  समाधी,  जीवा-शिवाचे  अद्वैत  ज्ञान  प्राप्त  झ्याल्यावर  मुक्ति  लाभते  असे  विचार  मांडलेलै  आहेत.  योग  दर्शनाचे  आचार्य  पतंजलीमुनी  आहेत.  (४)न्याय  दर्शनामध्ये  जीवाच्या  ठिकाणी  सुख-दुःख  निर्माण  होतात,  त्यांचा  नाश  झाल्यावर  मुक्ति  लाभते,  सोळा  पदार्थांच्या  यथार्थज्ञानाने  मोक्ष  मिळतो  असे  विचार  मांडलेलै  आहेत.  न्याय  दर्शनाचे  आचार्य  अक्षपादमुनी  आहेत.  (५)पूर्वमिमांसा  दर्शनामध्ये  विश्व  सत्य  आहे,  आत्मा  परिणामशील  असतो,  ईश्वर  हे  कर्माचे  साधन  आहे,  जगाशी  आत्म्याचा  संबंध  नष्ट  होणे  म्हणजे  मोक्ष  होय  असे  विचार  मांडलेलै  आहेत.  पूर्वमिमांसा  दर्शनाचे  आचार्य  जैमिनीमुनी  आहेत.  (६)उत्तरमिमांसा  दर्शनामध्ये  जीव  हा  कर्मफलाचा  भोक्ता  आहे,  जगत  हे  मित्था  आहे,  आत्मा  स्वयंसिध्द  असतो,  ईश्वर  निर्गुण    सगुण  ब्रह्म  आहे,  जीव    ब्रह्माचे  ऐक्य  म्हणजे  मोक्ष  होय  असे  विचार  मांडलेलै  आहेत.  उत्तरमिमांसा  दर्शनाचे  आचार्य  आद्य  शंकराचार्य  आहेत.  तीन  प्रकारची  नास्तिक  दर्शने  आहेत.  (१)चार्वाक  दर्शनामध्ये  पृथ्वी,  आप,  तेज,    वायु  याच्या  समुदायास  शरीर,  इंद्रिय    विषय  म्हणतात,  चैतन्यरूपी  विशिष्ट  देह  हाच  आत्मा  आहे,  परमेश्वराच्या  अस्तित्वावर  विश्वास  नाही,  सर्व  प्रकारचे  स्वातंत्र्य  हाच  मोक्ष  असून  मरण  म्हणजेच  मुक्ति  होय  असे  विचार  मांडलेले  आहेत.  चार्वाक  दर्शनाचे  आचार्य  चार्वाक  आहेत.  (२)जैन  दर्शनामध्ये  जीव  चेतन  असून  ज्ञान  हा  त्याचा  स्वभाव  आहे,  आत्मा    जीव  समान  आहे,  ईश्वर  स्विकारीत  नाही,  निर्जरा  अवस्थेचे  फळ  म्हणजे  मोक्ष  होय  असे  विचार  मांडलेलै  आहेत.  जैन  दर्शनाचे  आचार्य  महावीर  आहेत.  (३)बौध्द  दर्शनामध्ये  जगत  हे  रूप  वेदना,  संत्रा,  संस्कार,    विज्ञान  यांपासून  बनले  आहे,  आत्म्या  बद्दल  मूक  रहाणे  ईश्वराबद्दल  काहीही  निर्देश  केलेला  नाही,  निर्वाण  म्हणजे  विझून  जाणे,  दुःखाचा  अंत  होणे  म्हणजे  निर्वाण  होय  असे  विचार  मांडलेले  आहेत.  बौध्द  दर्शनाचे  आचार्य  गौतम  बुध्द  आहेत.  या  सर्व  दर्शनांच्या  तत्वज्ञानातून  भारतीय  संस्कृतीची  व्यापकता,  सहिष्णुता  आणि  विचार  स्वातंत्र्य  प्रखरतेने  दिसून  येते.



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