भारतिय तत्त्वज्ञानमध्ये
धर्म, संस्कृती, जीवन तिनो क्षेत्रोंका विस्तार समान है । भारतिय संस्कृतीका
दृष्टिकोन समन्वयप्रधान है । विश्वके साथ अविरोध-भाव प्राप्त करनेकी पध्दती समन्वय
है । भारतिय संस्कृती सहिष्णुताकी प्राणवायुसे जीवीत है । अनेक संघर्षोंके बीचसे समन्वयकी
प्राप्ती भारतिय संस्कृतीके इतिहास राजमार्ग रहा है । धार्मिक स्वातंत्र्य,
सामाजिक स्वातंत्र्य, व्यक्तिगत स्वातंत्र्य भारतिय संस्कृतीको इष्ट है । किंतु
इनका उपभोग सत्यदर्शनके लिये होना उचित माना है । जड और चेतनका आपेक्षित मुल्यांकन
भारतिय संस्कृतीकी विशेषता है । चैतन्य ही महान, नित्य, रसपरिपूर्ण और प्राप्त
करनेयोग्य तत्त्व है । इस प्रकारका सचेष्ट प्रयत्न और तीव्र विश्वास भारतिय
संस्कृतीमे प्रकट होता रहा है । संसार और उसके उपभोग अल्प, सीमित, तुच्छ और जीतने
योग्य है—यह दृढ प्रतिती भारतियोंके मनमे सदा ऊंची प्रतिष्ठाकी पात्र बनी रही है ।
भारतिय संस्कृतीमे साहित्य, कला, सौंदर्य और संहारे हुए जीवनके अनेक वरदानोंको
प्रतिष्ठित स्थान दिया है । धर्म और जीवनका मेल भारतिय संस्कृतीके आग्रहका विषय है
। ऊर्ध्वगति ही अध्यात्मका कल्याण है । अध्यात्मकी साधना भारतिय संस्कृतीके
आग्रहका विषय है । भारतिय संस्कृतीमे कर्मयोग पर पूरा जोर दिया है । भारतिय
संस्कृतीमे कर्म जीवनका आवश्यक लक्षण माना गया है । आसक्तीको त्यागकर तथा सिध्दि
और असिध्दिमे समान बुध्दि रखकर कर्तव्यकर्म करना ही कर्मयोग है । भारतिय
संस्कृतीमे लौकिक समृध्दी गौण है, अध्यात्मकी उन्नतीको प्रधानता है । भारतिय संस्कृतीके
पाच प्रमुख घटक है—धर्म, दर्शन, इतिहास,
वर्ण, तथा रिति-रिवाज ।
जो सिंधु नदीसे लेकर
कन्याकुमारी पर्यंत विस्तृत भारतभूमीको अपनी पितृभूमी और पुण्यभूमी मानता है, वह
हिंदु है । एक मनुष्यका दूसरे मनुष्यके साथ ऎसा बर्ताव, जिससे सबका कल्याण हो,
जिससे समाजके रूपमे सामूहिक जीवन-निर्वाहका क्रम चल सके और सृष्टिका प्रवाह
ईश्वरेच्छानुसार चल सके वह सनातन वैदिक धर्म है । दर्शनशास्त्रका उद्देश्य है—जगत
एवं जीवके तत्त्वको समझा देना । वैशेषिक दर्शन, न्यायदर्शन, सांख्यदर्शन,
योगदर्शन, पूर्वमिमांसादर्शन, उत्तरमिमांसादर्शन यह छ: आस्तिक दर्शन है । भारतिय
संस्कृतीका इतिहास संसारकी उत्पत्तीसे लेकर आजतक चला आया है । भारतिय संस्कृतीमे
वर्ण-आश्रमकी व्यवस्था है, जो समाज रचना की सर्वश्रेष्ठ पध्दती है । वह गुणकर्मपर आधारित है । सत्वगुणसे प्रभावित
ब्राह्मण, सत्व-रज गुणसे प्रभावित क्षत्रिय, रज-तम गुणसे प्रभावित वैश्य, और
तमगुणसे प्रभावित शूद्र यह वर्णव्यवस्था है । आश्रमकी व्यवस्था है, जो मनुष्यकी आध्यात्मिक उन्नतीके लिये (नरसे नारायण होनेके
लिये) की गयी है । ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम, संन्यासाश्रम यह आश्रम व्यवस्था है । भारतिय संस्कृतीमे
रिति-रिवाजका स्थान महत्त्वपूर्ण है । व्रतोंके प्रभावसे मनुष्योंकी चित्तशुध्दी
होती है । वेदादिशास्त्रसंमत आचार-विचार ही भारतिय संस्कृतीका स्वरूप है । अखिल
मनुष्यमात्रको मानव-विकासके उच्चतम शिखरपर पहुचाकर जीवनमुक्तीकी अवस्थामे
प्रतिष्ठित करा देना ही भारतिय संस्कृतीकी बडी विशेषता है । इसीलिये भारतिय
संस्कृती सर्वसामर्थ्यमय सर्वांगीण पूर्ण संस्कृती है । भारतिय संस्कृतीका मूल
आधार सनातन अपौरूषेय वेद है ।
भारतिय संस्कृतीको छोडकर
कोई भी दूसरी संस्कृती नही है, जो मनुष्यकी उत्पत्तीके समयसे आजतक अखंड धारासे
चलती आयी है ।
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