Saturday, 13 July 2019

राजर्षी भरत



पूरूवंशाचा  विस्तार  करणारे  दुष्यंत  महाराज  महान  पराक्रमी  होते.  संपूर्ण  पृथ्वीचे  ते  स्वामी,  पालक  होते.  तेव्हा  सर्व  प्रजाजन  धर्माचरण  करीत  होते.  तेथे  चोरांची  भिती  नव्हती.  सर्व  प्रजा  निरोगी    धष्ट-पुष्ट  होती. सर्व  प्रजा  वर्णाश्रमांचे  आचरण  करीत  होती.  निरपेक्षवृत्तीने  कर्माचरण  होत  असे.  सर्व  प्रजा  निर्भय  होती.  पाऊस-पाणी  वेळेवर  मिळत  होते.  पृथ्वी  सर्व  प्रकारच्या  रत्नांनी  संपन्न  होती.  सर्व  प्रकारची  पशूसृष्टी  होती. दुष्यंतमहाराज  तरूण  होते.  शरीर  वज्रासमान  कणखर असून  अद्भूत  पराक्रमाने  ते संपन्न होते.  दोन्ही  हाताने  मंदराचल  पर्वत  उचलून  घेऊन  जाण्याची  शक्ती  महाराजांमध्ये  होती. अस्त्र-शस्त्र  विद्येमध्ये  निपुण  होते.  विष्णुसमान  पराक्रमी होते.  सूर्यासमान तेजस्वी व समुद्रासमान गंभीर-शांत,  पृथ्वीसमान  सहनशील,  सर्वत्र  सन्माननीय होते.  एकदा  दुष्यंत  महाराज  सैन्या  बरोबर  शिकारीला  एका  घनदाट  वनामध्ये  गेले. मंद वारा, फुलांचा  सुगंध, मनोहर  हिरवळ, पक्ष्यांचा  मघुर  किलबिलाट,  कोकिळेचे  मधुर  स्वर, सावली  देण्यासाठी  गर्द  वृक्ष, भ्रमरांचे  गुणगुणणे, अशा  अद्भूत  वनाची  शोभा  पाहता  पाहता  एक  उत्तम  आश्रम  दिसला,  जो  अत्यंत  रमणीय    मनोहर  होता.  त्या  आश्रमामध्ये  अनेक  बैरागी,  ऋषी-मुनी  रहात  होते,  अखंड  अग्निहोत्र  चालू  होते.  आश्रमाच्या  मध्यातून  मालिनी  नदी  वहात  होती.  तिचे  पाणी  शुध्द  पवित्र    स्वादिष्ट.  मालिनी  नदीच्या  दोन्ही  तीरावर  आश्रम  पसरलेला  होता.  तो  आश्रम  कण्व  ऋषींचा  होता.  तो  आश्रम  ब्रह्मलोकासमान  होता.  त्या  आश्रमामध्ये  अनेक  ब्राह्मण  चारी  वेदांचे  पठण-अध्ययन  करीत  होते.  जप-तप  चालू  होते.  यज्ञ-होम  चालू  होते. तेथे  एका  रूप,  यौवन,  शील  आणि  सदाचार  यांनी  संपन्न सुंदर  कन्येने महाराजांचा  विधीपूर्वक  आदर-सत्कार  केला. महाराजांनी  त्यानंतर  सुंदर  कन्येकडे  तूझे  पाणीग्रहण  करण्याचा  मी  विचार  करीत  असल्याचे सांगितले. ती सुंदर  कन्या  मेनका व विश्वामित्र यांची असून महर्षि  कण्व  यांची  यांची सेवा करीत असे. तीचे  नाव  शकुंतला होते. महर्षि  कण्व यांच्या संमतीने दुष्यंत  महाराज यांचा शकुंतलेशी गांधर्व  विवाह  झाला. काही दिवसांनंतर  महाराज राजधानीकडे  गेले.  निघताना  अनेक  वेळा  सांगितले,  हे  सुंदरी  मी  तूझ्यासाठी  चतुरंगिणी  सेना  पाठवून  तूला  राजभवनामध्ये  बोलावून  घेईन. दिवसेदिवस  शकुंतलेचा  गर्भ  वाढू  लागला.  ती  दिवस-रात्र  दुष्यंत  महाराजांचेच  चिंतन  करीत  असे.  अन्न-पाणी  सुध्दा  सोडून  दिले.  तीला  विश्वास  होता  कि दुष्यंत  महाराज  राजभवनामध्ये  बोलावून  घेतील.  बोलता-बोलता  तीन  वर्षे  झाली.  तीन  वर्षांनंतर  शकुंतलेने  तेजस्वी,  पराक्रमी  पूत्रास  जन्म  दिला.  आकाशातून  पुष्पवृष्टी  झाली.  दुंदुभि  वाजल्या.  अप्सरा  मधुर  स्वरामध्ये  गायन-नृत्य  करू  लागल्या. महर्षि  कण्व  यांनी  बालकाचे  विधीवत  संस्कार  केले.  तो  बालक  दिवसे-दिवस  मोठा  होऊ  लागला. तो  बालक  धष्ट-पुष्ट  होता.  त्याच्या  हातावर  चक्राचे  चिन्ह  होते.  सहा  वर्षांचा  झाल्यावर  वनातील  वाघ,  सिंह,  हत्ती  पकडून  आणी.    आश्रमाजवळच्या  झाडाला  बांधून  ठेवीत  असे. वनातील  राक्षस    पिशाच्च  यांना  हाताच्या  मुठीने  मारीत  असे    ऋषी-मुनीच्या  समवेत  उपासना  करीत  असे  एके  दिवशी  महाबलाढ्य  राक्षस  त्या  वनामध्ये  आला.  त्याच्याशी  हातानेच  मारामारी  करून  त्याला  बेजार  करून  टाकले.  शेवटी  तो  राक्षस  मरून  गेला.  हा  पराक्रम  पाहून  सर्वांना  आश्चर्य  वाटले.  असे  अनेक  राक्षस  तो  मारीत  असे.   आश्रमातील  ऋषी-मुनींने  त्याचे नामकरण  केले.  हा  सर्व  जीवांचे  दमन  करतो  म्हणून  सर्वदमन असे. नामकरण  केले.  अजून  पर्यंत  दुष्यंत  महाराज  यांनी  राजभवनामध्ये  बोलावून  घेतले  नाही  याचे  शकुंतलेला  दुःख  झाले.  ती  काळजी  करू  लागली.  दीन-दुबळी  झाली.  अशी  शकुंतलेची  दयनीय  अवस्था  पाहून  महर्षि  कण्व  यांनी  सर्वदमनाच्या  विद्याभ्यासाचा  विचार  केला.  बारा  वर्षांमध्ये  वेदांचे  अध्ययन  पूर्ण  केले. महर्षि कण्व शकुंतलेला म्हणाले, सुकूमारी,  आता  या  पुत्राचा  युवराजपदाचा  अभिषेक  करण्याची  वेळ  झालेली  आहे.  तूला  आता  दुष्यंत  महाराजाकडे  गेले  पाहिजे.  ते  आले  नाही, तरी  तू  जा.   तेथे  दुष्यंत  महाराजांची  आराधना  कर.  तेथे  सर्वदमनास  युवराजपदावर  बसल्याचे  पाहून  तूला  आनंद  होईल.  महर्षि कण्व यांनी शकुंतलेचे  पित्यासमान पालनपोषण केले होते. पित्याची  आज्ञा  मानून  तू  पुत्र  सर्वदमनासह  दुष्यंत  महाराजांकडे  अवश्य  गेले  पाहिजे.  तेव्हा  सर्वदमनाने  महर्षि  कण्व  यांना  साष्टांग  नमस्कार  केला. महर्षि कण्व यांच्या उपदेशानुसार शकुंतला सर्वदमनाला घेऊन दुष्यंत  महाराजाच्या  राजवाड्यामध्ये गेले. शकुंतलेने महाराजांना सांगितले, सर्वदमन हा  आपला  पुत्र  आहे.  याला  युवराजपद  द्यावे.   महर्षि  कण्व  यांच्या  आश्रमामध्ये  आपली  भेट  झाली  त्याचे  स्मरण  करावे. तेव्हा  दुष्यंत  महाराज  सर्व  आठवून  सुध्दा  काहीही  आठवत  नसल्याचे त्यांनी सांगितले.  असे  दुष्यंत  महाराजांचे  कटू  शब्द  ऐकून  शकुंतला बेशुध्द  पडली.  थोड्या  वेळाने  तीचे डोळे  लाल  झाले होते.  राजाकडे  पाहून ती क्रोधाने  म्हणाली महाराज  आपण  सर्व  काही  समजून  सुध्दा  माहीत  नाही  असे  का  म्हणता.  काय  खरे  आणि  काय  खोटे  हे  आपल्या  हृदयास  माहीत  आहे. मी  स्वतः  आपल्याकडे  आले  म्हणून  पतिव्रता  पत्नीचा  तिरस्कार  करू  नका. मी  आपणास  आदरणीय  आहे. मी  आपलीच  पत्नी  आहे.  आपण  भरसभेमध्ये  माझा  अपमान  का  करीत  आहात.  माझी  योग्य  मागणी  तूम्ही  मान्य  केली  नाही  तर  आज  तूमच्या  डोक्याचे  तुकडे-तुकडे  होतील. हा  पुत्र  आपल्याच  शरीरापासूनच  प्रकट  झालेला  आहे. जसे  यज्ञसाधनेमध्ये  अग्निनेच  अग्नि  उत्पन्न  होतो,  तसेच  हा  पुत्र  आपल्यापासून  उत्पन्न  झाला  आहे.  आपण  आता  दोन  रूपामध्ये  प्रकट  झालेले  आहात.  काही  वर्षांपूर्वी  आपण  महर्षि  कण्व  यांच्या  आश्रमामध्ये  आपला  माझ्याबरोबर  गांधर्व  विवाह  झाला. तेव्हढ्यात  एक  आकाशवाणी  झाली,  दुष्यंत  माता  केवळ  निमीत्त असते,  पुत्र  पित्याचाच  असतो.  कारण  तो  पित्याच्या  शरीरापासूनच  उत्पन्न  होत  असतो.  म्हणून  पिताच  पुत्राच्या  रूपाने  उत्पन्न  होत  असतो.  हा  पूत्र  तूझाच  आहे  त्याचे  तू  पालन  कर.  शकुंतलेचा  अनादर  करू  नकोस.  शकुंतला  ही  तूझ्यावर  अनन्य  प्रेम  करणारी  तूझीच  पतिव्रता  पत्नी  आहे.  तूच  महर्षि  कण्व  यांच्या  आश्रमामध्ये  शकुंतलेचे  पाणीग्रहण  केले  होतेस.  शकुंतला  सत्य  बोलत  आहे.  त्यावर  विश्वास  ठेव. शकुंतलेच्या  पुत्राचे  पालन-पोषण  कर.  हा  शकुंतला    दुष्यंत  यांचा  पुत्र  असून  देवताच्या  आज्ञेनुसार  याचे  भरण-पोषण  होईल  म्हणून  हा  भरत  या  नावाने  प्रसिध्द  होईल. त्यानंतर  देवतांनी  शकुंतला    पुत्र  भरतावर  पुष्पवृष्टी  केली.  देवतांची  अशी  वचने  ऐकून  दुष्यंत महाराज आपल्या  मंत्र्यांना म्हणतात आपण  देवतांचे  वचन  ऐका.  मी  या  भरतास  पुत्ररूपाने  स्विकारणार  होतो  परंतू  केवळ   शकुंतलेच्या  म्हणण्यानुसार  भरतास  पुत्ररूपाने  स्विकारले  असते  तर  प्रजाजनांच्या  मनामध्ये  शंका  आली  असती.  या  बालकास  त्यांनी  राजा  म्हणून  स्विकारले  नसते. अशा  रितीने  देवतांच्या  वचनाने  भरताची  शुध्दता  प्रमाणित  करून  दुष्यंत  महाराज  खूप  आनंदीत  झाले.  आपल्या  भरताचा  पुत्ररूपाने  स्विकार  केला.  दुष्यंत  महाराजांनी  शकुंतलेचा  पत्नीरूपाने  स्विकार  केला,  आदर-सत्कार  केला, व  महाराज शकुंतलेस म्हणाले  महर्षि  कण्व  यांच्या  आश्रमामध्ये  आपला  गांधर्व  विवाह  झालेला  प्रजेला  माहित  नाही,  म्हणून  तूझ्या  शुध्दतेसाठी  मी  हा  उपाय  केला.  देवी,  तू  निःसंदेह  पतिव्रता  आहेस.  कालांतराने  दुष्यंत  महाराजांनी  भरतास  युवराज  पदावर  घोषीत  केले.  नंतर  भरताकडे  राज्याचा  भार  सोपवून  दुष्यंत  कृतकृत्य  झाले.  अनेक  प्रकारची  दानधर्म  करून  ते  स्वर्गलोकी  निघून  गेले.  भरत  राजाकडे  एक  विख्यात  चक्र होते. ते प्रकाशमान,  दिव्य    अजेय  होते.  त्याच्या  आवाजाने  संपूर्ण  पृथ्वी  प्रतिध्वनीत  होत  असे. भरत  राजाने  अनेक  वर्षे  धर्मराज्य  केले.  ते  चक्रवर्ती,  पराक्रमी  सम्राट  होते.  त्यांनी  अनेक  यज्ञ-अनुष्ठान  केले.  महर्षि  कण्व  यांच्या  माध्यमातून  भरपूर  दक्षिणा  देणारा  गोवितत  नावाचा  अश्वमेध  यज्ञ  विधिपूर्व  केला.  यज्ञाचे  फळ  त्यांना  प्राप्त  झाले.  एक  हजार  सुवर्ण  मुद्रा  महर्षि  कण्व  यांना  दक्षिणारूपाने  दिल्या. या  भरतराजाच्या  नावावरूनच  या  खंडाला  भरत  खंड  हे  नाव  प्राप्त  झाले.  त्याच्या  पासून  कुरूवंश  भारतवंश  या  नावाने  प्रसिध्द  झाला.  या  भारतवंशामध्ये  अगणित  राजर्षी  झाले,  ते  धर्मपरायण  होते.

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