Saturday, 13 June 2020

युगपुरूष श्रीकृष्ण


युगपुरूष  श्रीकृष्ण
श्रीकृष्णासारखा  सर्वतोपरी  अद्वितीय  पुरूष  पृथ्वीतलावर  आजवर  झालेला  नाही.  अलौकिक  पराक्रम,  असामान्य  स्वार्थत्याग  अणि  द्रष्टा  तत्त्वज्ञानी  इत्यादी  सद्गुणांनी  श्रीकृष्ण  युगपुरूष  म्हणून  सर्वांना  परिचित  आहे.  अलिकडच्या  काळातील  नेपोलियनचा  पराक्रम,  वॉशिंग्टनचा  स्वार्थत्याग,  ग्लाडस्टन,  विस्मार्क  या  विचारवंतांचा  मुत्सद्दीपणा  हे  सर्व  सद्गुण  श्रीकृष्णामध्ये  एकवटलेले  होते.  तसेच  परमार्थामध्ये,  धर्मस्थापनेमध्ये  श्रीकृष्णाचे  कार्य  अलौकीक  आहे.  अग्रणी  महंमदाने  निश्चयाच्या  जोरावर,  तर  ख्रिस्ताने  सौजन्याच्या  जोरावर,  तर  बुध्दाने  बुध्दिवादाच्या  जोरावर  आपापल्या  धर्माचा  प्रसार  केला.  परंतू  श्रीकृष्णामध्ये  निश्चय,  सौजन्य,  तसेच  बुध्दिवाद  हे  तिन्ही  सद्गुण  एकाच  ठिकाणी  असल्यामुळे  त्याने  केलेल्या  धर्माचा  प्रसार  युगानूयुगे  अबाधित  टिकून  राहिला  आहे.  श्रीकृष्णाने  आपल्या  ज्ञानोपदेशामुळे  भरतखंडाच्या  हृदयपटलावर  कर्मयोगाचा  उदात्त  कायमचा  ठसा  उमटविलेला  आहे.  श्रीकृष्णाच्या  चारित्र्याने,    उपदेशाने  भारतीय  इतिहासाला  जे  वळण  लागले  आहे  ते  विश्वाच्या  अंतापर्यंत  टिकणारे  चिरकालीन  आहे.  श्रीकृष्णाचा  हा  ज्ञानोपदेश  सर्वांगाने  परिपुर्ण  आहे.  या  गीतेच्या  तत्त्वज्ञानाचा  संतश्रेष्ठ  ज्ञानेश्वर,  आद्य  शंकराचार्य,  मध्वाचार्य,  इस्कॉनचे  प्रभूपाद  स्वामी,  महायोगी  श्रीअरविंद  घोष,  लोकमान्य  टिळक,  आचार्य  विनोबा  भावे,  डॉ.  सर्वपल्ली  राधाकृष्णन  अशा  अनेक  भारतीय  विचांरवंतांनी  सखोल  अभ्यास  केला  आहे.  तसेच  जगभर  परदेशामध्ये   गीतेची  १३३  भाषांतरे  इंग्रजी  भाषेमध्ये,  २१  भाषांतरे  जर्मन  भाषेमध्ये  अशा  परदेशी  विचारवंतांची  गीतेवरील  विवेचने  प्रसिध्द  झालेली  आहेत.  प्रा.  आर.  सी.  झीनर  यानी  १९७०साली  गिफोर्ड  लेक्चर्स  मध्ये  सांगितले  होते  की  जगातील  ७५  मुख्य  भाषांमध्ये  सुमारे  २०००हून  आधिक  भाषांतरे  झालेला  भगवद्गीता  हा  भारतीयांचा  तत्त्वज्ञान  विषयक  ग्रंथ  बायबलच्या  खालोखाल  लोकप्रिय  झालेला  जगामध्ये  दुस-या  क्रमांकाचा  धार्मिक  ग्रंथ  आहे.  तसेच  इ.स.  १७८५  ते  १९८५  या  दोनशे  वर्षामध्ये  गीतेची  २८७  भाषांतरे  इंग्रजीत  प्रसिध्द  झालेली  आहेत.
प्राचीन  इतिहासामध्ये  संशोधन  केल्यानंतर  श्रीकृष्णाचे  चरित्र  हरिवंश,  महाभारत,    भागवत  अशा  तीन  पुराणांमध्ये  प्रामुख्याने  दिसून  येते.  अलौकीक  शक्तीचा  प्रत्यय  दाखविला  तर  तो  मानवाचा  आदर्श  होत  नाही.  त्यामुळे   श्रीकृष्णाच्या  जीवनामध्ये  स्वकार्यासाठी  अमानवी  शक्तीचा  उपयोग  केलेला  नाही.  जिथे  आता  तो  दिसतो  तो  नंतर  घातलेला  आहे  असे  संशोधकांचे  मत  आहे.  महाभारतातील  उद्योगपर्वामध्ये  एके  ठिकाणी  आपल्या  मनुष्यत्वाचा  श्रीकृष्णाने  स्पष्टपणे  उल्लेख  केला  आहे.  तो  म्हणतो  पुरूषाला  जे  करणे  शक्य  आहे  ते  मी  करू  शकतो.  देवालाच  जे  करणे  शक्य  आहे  ते  कार्य  मी  कसे  करू  शकेन.  येथे  अजून  स्पष्ट  होते  की  श्रीकृष्ण  हा  युगपुरूष  होता.  योग्यवेळी  योग्य  निर्णय  घेण्याची  कृष्णाची  क्षमता,  निस्वार्थपणे  दोन  पक्षामध्ये  मध्यस्थी  करण्याची  त्याची  क्षमता,  ज्याच्यासाठी  लढायचे  ते  श्रध्देय  समाजाच्या  हिताचे  असेल  तर  कशाचेही  बलिदान  करायला  माणसाने  सिध्द  असले  पाहिजे  ही  त्याची  धारणा  युगपुरूषाला  साजेशीच  होती.  श्रीकृष्ण  कोणत्याही  समस्येचे  मूळ  प्रथमतः  समजावून  घेत  असे.  नंतर  हे  मूळ  शोधण्यासाठी  त्याच्याकडे  भूतकाळाची  जाण,  वर्तमानकाळाची  समज    भविष्यकाळाचा  परिणाम  याचे  ज्ञान  स्वभावतःच  होते.  अशा  रितीने  श्रीकृष्ण  द्रष्टा  तत्त्वज्ञानी  होता  हे  त्याच्या  संपुर्ण  जीवन  चरित्रावरून  समजते.
श्रीकृष्ण  युगपुरूष  होता  या  मताचा  ख्यातनाम  संशोधक  डॉ.ए.डी. पुसाळकर  यांनी  आपल्या  स्टडीज  इन    इपिक्स  अँड  पुराणाज  या  भारतीय  विद्याभवन,  मुंबई  यांनी  प्रसिध्द  केलेल्या  ग्रंथामध्ये  कृष्णाची  ऐतिहासिकता  नामक  पाचव्या  प्रकरणामध्ये  विचार  स्पष्ट  केला  आहे.  तर  दुर्गा  भागवत  आपल्या  पुर्ण  पुरूष  या  लेखातील  व्यासपर्वामध्ये  म्हणतात,--  जीवनाच्या  सर्व  बाजूंना  स्पर्श  करणारा,  व्यक्ती  व्यक्तींच्या  सुखदुःखाचे  स्पंदन  भोगून  त्यांचे  जीवन  कृतार्थ  करणारा  कृष्ण  आज सुध्दा  चिंतनीय  आहे  कारण  तो  नुसताच  मानव  नसून  एक  युगपुरूष  आहे.  महाभारतातील  व्यक्तीदर्शन  नामक  आपल्या  ग्रंथातील  कृष्णावरील  लेखात  डॉ.  शंकर  पेंडसे  म्हणतात,  --  कृष्ण  विष्णूचा  अवतार  होता  ही  कल्पना  प्रस्तूत  होण्यास  कृष्णच  जबाबदार  होता.  दुष्टाचा  संहारक,  गरिबांचा  उध्दारक,  लोकशाहीचा  प्रवर्तक,  निःस्वार्थ  समाससेवक,  समाजशत्रूंचा  निर्दालक  आणि  समाजातील  सुवृत्तांचा  पाठिराखा,  बुध्दिमान,  मुत्सद्दी  योध्दा  आणि  सार्वकालीन  महत्वाच्या  कर्मयोग  तत्त्वज्ञानाचा  उद्गाता  ही  कृष्णाची  प्रतिमा  डोळ्यासमोर  आणली  की  कृष्ण  पुराणांनी  ठरविलेला  विष्णूचा  अवतार  होता  म्हणून  मोठा  नसून  तो  स्वतः  सिध्द  ऐतिहासिक  महापुरूष  होता  हे  लक्षात  येते.  श्रीकृष्णासारखा  पुरूष  पुर्वी  कधी  झाला  नाही  आणि  पुढे  कधी  होणार  नाही  असे  मत  तर्कतीर्थ  लक्ष्मणशास्त्री  जोशी  यांनी  विश्वकोशामध्ये  व्यक्त  केले  आहे.
१९५४  साली  जपानमध्ये  झालेल्या  द्वितीय  विश्व  तत्त्वज्ञान  परिषदेमध्ये  प.पू.पांडुरंगशास्त्री  आठवले  म्हणतात,--श्रीकृष्णाचे संपुर्ण तत्त्वज्ञान  हे  तत्कालिक  नसून  चिरंतन  आहे.  संपुर्ण  जगाला  आत्मोन्नतीचा  आणि  समाजोन्नतीचा  चिरंतन  विचार  देणारा  श्रीकृष्ण  हा  एकमेवाद्वितीय  पुरूष  होता.  त्याच्या  तत्त्वज्ञानामध्ये  धर्माचा  अर्थ  प्रांतिक  किंवा  राष्ट्रिय  असा  मर्यादित  नसुन  अखिल  मानवजातीमध्ये  स्नेहभाव,  सद्वर्तन  आणि  सामंजस्य  निर्माण  व्हावे  हा  विश्वव्यापक  अर्थ  दिसतो.
अशा  रितीने  थोडक्यात  श्रीकृष्णाचे  व्यक्तीमत्वाच्या  दृष्टीने  आढळलेले  गुणविशेष  त्याच्या  विलक्षण  विभूतीमत्वाची  साक्ष  देतात.  व्यवहारीक  आणि  बौध्दिक  क्षेत्रात  आमूलाग्र  परिवर्तन  घडवून  धर्माधर्माचा  व्यावहारीक  विचार  जनसामान्यापुढे  ठेवून जीवनमूल्यांच्या  रक्षणासाठी  आवश्यक  अशा  शासनाची,  धर्मराज्याची  निर्मिती  करून  श्रीकृष्णाने  जे  जे  अभूतपुर्व  कार्य  केले त्यातून  त्याचे  युगपुरूषत्व  सिध्द  होते  हे  मान्य  करावे  लागेल.


स्वामी मोहनदास,  एल  ५०७  चंद्रमा  डिएसके  विश्व  धायरी  पुणे-४११०४१